महाराष्ट्र की उठापटक : उद्धव जाएंगे या बचेंगे?

सुरेश हिंदुस्थानी

महाराष्ट्र की करवट लेती राजनीति में क्या होने वाला है, यह लगभग यह संकेत दे रहा है कि शिवसेना की अंदरूनी लड़ाई का बड़ा खामियाजा उद्धव ठाकरे को भुगतना पड़ सकता है। महाराष्ट्र के राजनीतिक युद्ध का परिदृश्य फिलहाल ऐसा दिखाई दे रहा है कि उद्धव ठाकरे के हाथ से सत्ता बहुत दूर जाने वाली है। उद्धव ठाकरे के विरोध में ताल ठोककर खड़े होने वाले एकनाथ शिंदे अपनी राजनीतिक शक्ति का अहसास कराने में सफल हुए हैं, लेकिन कहते हैं कि आज की राजनीति भरोसे का नाम नहीं है, इसलिए स्थिति परिस्थिति का सटीक आंकलन करना कठिन ही है। लेकिन इतना अवश्य है कि जिसने सत्ता का स्वाद ले लिया, वह आसानी से सत्ता छोड़ना नहीं चाहता। इसके लिए शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत और आदित्य ठाकरे के चेहरे स्पष्ट गवाही देने के लिए काफी हैं। ये दोनों नेता एक राजनीतिज्ञ के हिसाब से बात करते नहीं दिख रहे। दोनों के बयानों धमकी देने जैसे स्वर सुनाई दे रहे हैं। एक प्रकार से कहा जाए तो दोनों के बयानों ने आग में घी डालने जैसा कार्य किया है।

महाराष्ट्र में जो कुछ चल रहा है उसे लेकर राजनीतिक स्वर भले ही भिन्न-भिन्न प्रकार के निकल रहे हों, लेकिन इसके मूल में यही है कि शिवसेना अपने मूल सिद्धांतों से बहुत दूर जा रही थी, जिसे मूल कार्यकर्ता सहन नहीं कर पा रहा था। बस यही महाराष्ट्र की राजनीतिक लड़ाई है। हम जानते हैं कि देश में अभी जो राजनीतिक वातावरण बना है, उसके पीछे केवल दो ही प्रकार की राजनीति दिखाई दे रही हैं। जिसमें एक राजनीति वह है, जो हिन्दुत्व यानी राष्ट्रीयता के समीप है। जहां भारत के गौरव की प्रतिध्वनि गुंजित हो रही है और दूसरी तरफ वे लोग हैं जो हिन्दुत्व पर लगातार कुठाराघात कर रहे हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ऐसी राजनीति करने वाले दल भाजपा की सरकार पर हमला करने का अवसर पैदा करने का ही उपक्रम करते दिखाई देते हैं। उनकी पूरी शक्ति इसी बात पर केन्द्रित रहती है कि भाजपा को घेरने के लिए किस प्रकार के षड्यंत्र किए जाएं। यह वास्तविकता है कि ऐसे लोग सबका साथ और सबका विकास वाली अवधारणा को खारिज करने का ही काम करते हैं। उन्हें यह अच्छा ही नहीं लगता कि गरीब समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर हो। खैर हम महाराष्ट्र के विषय पर आते हैं। जब हिन्दुत्व के सिद्धांत पर चलने वाला राजनीतिक दल शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से समझौता करके जनादेश का अपमान करता है, तब शिवसेना का मूल कार्यकर्ता इससे आहत ही हुआ था, लेकिन शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे सत्ता पाने के लिए इतने उतावले हो गए थे कि उन्होंने अपने सिद्धांतों को पोटली में बांधकर एक कौने में रख दिया और उन लोगों के साथ कदम मिलाने के लिए बाध्य हो गए थे, जो हिन्दुत्व की अवधारणा को समाप्त करने पर उतारू हैं। इसलिए एकनाथ शिन्दे ने जो किया है, वह एक शिवसैनिक की दृष्टि से सही ही माना जाएगा। आज अगर एकनाथ शिन्दे यह दावा करते हैं कि वह बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना के कार्यकर्ता हैं, तो कोई अतिश्योक्ति भरा बयान नहीं दे रहे हैं। क्योंकि बाला साहेब ठाकरे इस देश में उन लोगों का विरोध ही करते रहे थे, जो हिन्दुत्व यानी भारतीय संस्कृति के विरोधी थे। इस सिद्धांत को शिवसेना का सिद्धांत माना जाए तो स्वाभाविक रूप से यही कहा जा सकता है कि एकनाथ शिन्दे का कदम शिवसेना को बचाने का है। आज शिवसेना के जो दो गुट दिखाई दे रहे हैं, उनमें उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के बीच तलवारें खींची हुई हैं। जिसमें स्वाभाविक रूप से यही कहा जाएगा कि लोकतांत्रिक रूप से जिस ओर बहुमत होता है, जीत उसी की होती है। आज की स्थिति में बहुमत एकनाथ शिंदे के साथ है। ऐसे में शिवसेना पर पहला दावा एकनाथ शिंदे का ही बनता है। यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे ने कार्यकर्ताओं की क्षमता को देखकर ही कार्य दिया। मनोहर जोशी और नारायण राणे इसके उदाहरण माने जा सकते हैं। वे चाहते तो स्वयं भी मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने आपको एक पालक के रूप में स्थापित किया। उनके रहते हुए पूरी शिवसेना एक परिवार के रूप में दिखाई देती थी। उद्धव ठाकरे ने अपने आपको ऐसा दिखाने का प्रयास किया, जैसे शिवसेना उनके परिवार का ही संगठन है।

महाराष्ट्र के बारे दूसरी बात यह भी है कि विधानसभा चुनाव में जो जनादेश मिला था, वह भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को मिला था। इस जनादेश में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह से नकार दिया था, लेकिन शिवसेना की सत्ता पाने की तड़प ने तीसरे और चौथे नम्बर पर आने वाली कांगे्रस और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी को सत्ता सुख दे दिया। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जनता ने कांगे्रस और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी को सत्ता देने के लिए जनादेश नहीं दिया था। महाराष्ट्र ने हिन्दुत्व समर्थक दलों को जनादेश दिया था। लेकिन उस जनादेश को अपमानित करके उद्धव ठाकरे ने अपने पैरों में और शिवसेना में ऐसी कील ठोकने का काम किया, जो दो साल से हर शिवसैनिक को असहनीय दर्द का एहसास करा रही थी। इसी कारण शिवसेना के विधायकों का धैर्य जवाब दे रहा था। और वे अपनी उसी लाइन पर चले गए, जो बाला साहब ठाकरे ने बनाई थी। अब महाराष्ट्र में क्या होगा? यह तो समय बताएगा, लेकिन इतना अवश्य है कि अगर महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना मिलकर सरकार बनाती है तो यह अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा, क्योंकि जनादेश यही था। एकनाथ शिन्दे का कदम भले ही उद्धव ठाकरे के विरोध में दिखाई दे रहा हो, लेकिन यह उद्धव ठाकरे के विरोध में न होकर शिवसेना की सार्थकता को बचाने वाला कदम है। नम्बर के खेल के आधार पर भले ही उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हो गए हों, लेकिन इसके लिए उन्होंने जो किया, वह ठीक नहीं था।राजनीति अनिश्चितता का एक ऐसा खेल है, जिसमें कुछ भी अनुमान लगा पाना मुश्किल है। फिर भी महाराष्ट्र को लेकर एक सवाल पूरे राजनीतिक वातावरण में तैर रहा है कि उद्धव ठाकरे सत्ता में बने रहेंगे या फिर मुख्यमंत्री पद का त्याग करना होगा। महाराष्ट्र की राजनीतिक पिक्चर अभी चल रही है। वह भविष्य में कौन सा दृश्य दिखाएगी, यह लगभग तय दिखने लगा है।
(लेखक राजनीतिक चिंतक व विचारक हैं)