प्रेम प्रकाश
भारत ने नवाचार और उद्यम के विकेंद्रीकृत मॉडल का ऐसा उपहार दुनिया को दिया है, जिस पर विश्व प्रसिद्ध आर्थिक विशेषज्ञों की भी सहमति है। सहमति के इस आधार को ऐतिहासिक और वैचारिक रूप से देखना-समझना खासा दिलचस्प है। गौरतलब है कि गांधीवादी अर्थशास्त्री डॉ. जेसी कुमारप्पा की प्रसिद्ध पुस्तक “इकोनॉमी ऑफ परमानेंस” 1948 में आई थी। कुमारप्पा ने अर्थव्यवस्था के स्थायित्व पर जोर देते हुए इसके विकेंद्रित मॉडल की बात की थी। दरअसल, वे अपनी बात करते हुए भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की वकालत कर रहे थे।
कुछ दिन पहले फिलिप अघियन, पीटर हॉविट और जोएल मोकिर को जब संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार दिया गया, तो यह एक बार फिर अर्थ और विकास के मुद्दे पर भारतीय दृष्टिकोण को मिली वैश्विक स्वीकृति है। इन तीनों अर्थ विज्ञानियों ने बीती दो सदियों के दौरान हुई मानवता की अभूतपूर्व प्रगति की व्याख्या करते हुए अपनी आर्थिक अवधारणा को गढ़ा है। मोकिर ने जहां इस अवधारणा को लंबा ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ दिया है, वहीं अघियन और हॉविट ने इसे एक औपचारिक गणितीय ढांचा करार देते हुए क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन करार दिया है। यह विचार नया नहीं है। भारत में भाषा और संस्कृति से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक विविधता और विकास की बात कही जाती रही है।
वैसे अर्थशास्त्र का आकादमिक जगत जोसेफ शुंपीटर को इस बात का श्रेय देता रहा है कि उन्होंने सबसे पहले क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन की सैद्धांतिकी दी। बीसवीं सदी के प्रभावशाली ऑस्ट्रियाई-अमेरिकी राजनीतिक अर्थशास्त्री शुंपीटर का आर्थिक तर्क था कि उद्यमिता और नवाचार के नए उत्पादों प्रक्रियागत ढंग से बाजारों और अर्थव्यवस्था को चलाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उत्पादन, व्यापार और बाजार अपने पुराने प्रचलनों पीछे छोड़ते हुए नया संतुलन विकसित करते हैं। गौरतलब है कि शुंपीटर तकरीबन उसी दौर में अपनी बात कह रहे थे जब कुमारप्पा विकास और अर्थव्यवस्था के स्थायित्व की बात करते हुए इसके विकेंद्रित स्वरूप पर जोर दे रहे थे। दरअसल, शुंपीटर अपना तर्क पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को सामने रखकर दे रहे थे, जबकि कुमारप्पा कृषि सहित असंगठित क्षेत्र के उद्यम को एक बड़ी आर्थिक ताकत के तौर पर देख रहे थे।
गौरतलब है कि अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार की अब तक 56 बार घोषणा हो चुकी है और कुल 96 अर्थ पंडितों को यह सम्मान मिल चुका है। पर हाल के वर्षों में जिन भी अर्थशास्त्रियों ने यह पुरस्कार प्राप्त किया है, उनमें से ज्यादातर का जोर अर्थव्यवस्था और विकास के गगनचुंबी आंकड़ों पर नहीं, बल्कि उनके क्षैतिज विस्तार पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में कहें तो सबका साथ और सबका विकास की दृष्टि के साथ अर्थ और विकास का चक्र घूमना जरूरी है। क्योंकि तभी समृद्धि और खुशहाली का बड़ा समावेश देश और समाज के स्तर पर देखने को मिलेगा।
पिछले वर्ष यह पुरस्कार डैरोन असेमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स ए. रॉबिन्सन को साझे तौर पर दिया गया था। इन तीनों ने अपने शोध में यह दिखाया कि जिन देशों में खुले और समावेशी संस्थान ज्यादा हैं, वे तेजी से विकास और अपने नागरिकों के लिए अधिक समृद्धि सुनिश्चित करते हैं। यह शोध देशों की अमीरी और गरीबी की वजह बताते हुए कहता है कि नीति और शोध का समावेशी तंत्र अगर विकसित नहीं होता तो फिर विकास की धारा क्षीण ही रहेगी।
विचार की इस सीध पर ही आगे बढ़ते हुए विचार करें तो भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर हर तरफ से लगातार उत्साहजनक खबरें आ रही हैं। पहले जहां विश्व बैंक ने भारत के जीडीपी ग्रोथ के अनुमान को बढ़ाया, तो वहीं अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि भारत दुनिया की सबसे तेज इकोनॉमी बना रहेगा। यह बड़ी बात है कि टैरिफ वार और वैश्विक अस्थिरता के बीच हमारी अर्थव्यवस्था लगातार अपनी मजबूती दर्ज करा रही है। इस मजबूती के पीछे भारत की वह अर्थ दृष्टि है, जो मौलिक तौ है ही ऐतिहासिक तौर पर मान्य भी है। देखना दिलचस्प है कि कोविड के दौरान और उसके बाद के दौर में भारत में जो स्टार्टअप क्रांति हुई है, वह छोटे-बड़े आर्थिक व उद्यमशील नवाचार के आर्थिक दमखम को रेखांकित करती है।
आज भारत स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र में वैश्विक स्तर पर तीसरे स्थान पर है। हमसे आगे सिर्फ अमेरिका और चीन हैं। देश में आज 1.9 लाख से अधिक स्टार्टअप हैं और इनमें सौ से अधिक यूनिकॉर्न हैं। पेटेंट दाखिलों की संख्या भी पिछले दशक में दोगुनी हो गई है, 2014 में 40 हजार से बढ़कर 2025 में 80 हजार से अधिक हो गई। ये स्टार्टअप लाखों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं। अटल इनोवेशन मिशन, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और आत्मनिर्भर भारत जैसी पहलें इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
बीते एक दशक में देश में जैम ट्रिनिटी (जनधन, आधार, मोबाइल), 900 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता और यूपीआई के दस अरब से अधिक मासिक लेनदेन ने डिजिटल समावेशन की एक मजबूत नींव तैयार की है। इसके साथ ही जीएसटी, इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीएल), श्रम कानूनों के सरलीकरण और पिछली कराधान नीति को समाप्त करने जैसे प्रमुख आर्थिक सुधारों ने देश में उद्यम के नए कंगुरे तैयार करने में मददगार साबित हो रहे हैं। भारत सरकार के आला मंत्री की तरफ से इंडिया मोबाइल कांग्रेस 2025 में जब यह बात कही जा सकती है कि नवाचार हमारे डीएनए में है तो यह कोई गर्वोक्ति नहीं, बल्कि भारतीय मेधा और पुरुषार्थ पर व्यक्त विश्वास है। यकीनन आज नवाचार के साथ सर्व-समावेशी और सर्व-स्पर्शी विकास और समृद्धि का भारत का रास्ता ऐसी तमाम चिंताओं का उत्तर तो है ही, यह बड़ी आबादी के साथ जटिल वैश्विक स्थितियों के बीच आगे कदम बढ़ाने का रोडमैप भी है।





