मतदाता सूची में सुधार पर सुप्रीम सहमति सराहनीय

Supreme Court's agreement on voter list reform is commendable

ललित गर्ग

बिहार में मतदाता सूची सुधार पर सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी सिर्फ एक न्यायिक फैसला नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल्य को पुष्ट करने वाला ऐतिहासिक एवं प्रासंगिक निर्णय है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को बिहार में मतदाता सूची की समीक्षा के लिए आधार, राशन और वोटर कार्ड को भी मान्यता देने का सुझाव देकर आम लोगों की मुश्किल हल करने की कोशिश की है। इससे प्रक्रिया आसान होगी और आशंकाओं को कम करने में मदद मिलेगी। बेशक, फर्जी नाम मतदाता सूची में नहीं होने चाहिए लेकिन ऐसे अभियानों के दौरान आयोग का जोर ज्यादा से ज्यादा नाम वोटर लिस्ट से निकालने के बजाय, इस पर होना चाहिए कि एक भी नागरिक चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने से वंचित न रह जाए। विपक्ष को चाहिए कि वह इस फैसले को राजनीतिक हार न माने, बल्कि इसे एक अवसर माने, जनविश्वास अर्जित करने का, लोकतंत्र में आस्था बढ़ाने का और सबसे जरूरी, राष्ट्रहित को राजनीति से ऊपर रखने का। मतदाता सूची में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का कार्य केवल बिहार ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में प्राथमिकता के आधार पर प्रारंभ करना चाहिए।

भारतीय लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सर्वाेपरि होता है। चुनाव आयोग यदि चुनाव कराने को तैयार है, और इसकी जुड़ी किन्हीं प्रक्रियाओं में कोई त्रुटि या खामी है तो उसका सुधार करना संविधान सम्मत है, तो फिर इस पर प्रश्नचिन्ह लगाने का अधिकार किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होना चाहिए। लेकिन जो प्रश्न जनता के मानस को उद्वेलित करता है, वह यह है कि विपक्ष बार-बार चुनावी प्रक्रियाओं, राष्ट्रीय हितों या सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी एकमत होकर विरोध करता है, आखिर क्यों? बिहार में एसआईआर को लेकर जो याचिकाएं और बहसें सामने आईं, उनमें एक प्रमुख तर्क यह था कि समय उपयुक्त नहीं है, सरकार अस्थिर है, या सामाजिक समीकरण तैयार नहीं हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जनता को प्रतिनिधित्व देने का अधिकार सर्वाेपरि है। लेकिन त्रुटिपूर्ण या फर्जी मतदाता सूची से चुनाव कराना भी लोकतंत्र का अपमान है। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि देर-सवेर नहीं, संवैधानिक कर्तव्य को समय पर निभाना जरूरी है।

अदालत ने एसआईआर पर कोई आदेश नहीं दिया है, लेकिन अपने इरादे की ओर इशारा तो कर ही दिया है। अदालत ने टाइमिंग को लेकर जो सवाल उठाया, वह उचित प्रतीत होता है। बिहार में इसी साल के आखिर तक विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में इतनी विस्तृत कवायद के लिए शायद उतना वक्त न मिल पाए, जितना मिलना चाहिए। बिहार में एसआईआर को लेकर जो असमंजस है, उसकी एक वजह निश्चित ही टाइमिंग है। जिनके पास जरूरी डॉक्युमेंट नहीं हैं, वे इतनी जल्दी उनका इंतजाम नहीं कर पाएंगे। हालांकि आयोग ने भरोसा दिलाया है कि किसी भी व्यक्ति को भी अपनी बात रखने का मौका दिए बिना मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जाएगा। वैसे बिहार में चुनाव को देखते हुए ही फर्जी मतदाताओं की संख्या बढ़ी या तथाकथित राजनीतिक दलों ने इन फर्जी मतदाताओं को बढ़ाया है। ऐसे में इन फर्जी मतदाताओं पर कार्रवाई अपेक्षित है। यह मामला केवल बिहार तक सीमित नहीं रहना चाहिए। दूसरे राज्यों में मतदाता सूचियों की समीक्षा किस तरह होगी, यह बिहार में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर निर्भर करेगा। ऐसे में स्वाभाविक ही नजरें इस बात पर टिकी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में आखिरकार इस प्रक्रिया का कैसा स्वरूप तय होता है?

भारतीय राजनीति में विपक्ष का कार्य सरकार की नीतियों पर निगरानी रखना है, आलोचना करना है, लेकिन वह आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए, राष्ट्र-विरोधी नहीं। आज हम देख रहे हैं कि आर्टिकल 370 हटाना हो, नागरिकता संशोधन अधिनियम-सीएए, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर-एनआरसी जैसे कानून हों, अग्निपथ योजना हो, या राम मंदिर निर्माण-लगभग हर मुद्दे पर विपक्ष ने एकमत होकर विरोध किया है। चाहे चीन या पाकिस्तान से जुड़ी संवेदनशील मसले हों, या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के निर्णय, विपक्ष अक्सर उन बिंदुओं पर एक सुर में सरकार का विरोध करता है, जबकि ऐसे राष्ट्रीयता के मुद्दों पर विपक्ष को सरकार एवं देश के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यह संयोग नहीं, एक दूषित राजनीतिक रणनीति बनती जा रही है कि ‘जो सरकार करे, उसका विरोध करो’, चाहे मुद्दा देशहित का ही क्यों न हो। इन स्थितियों में आम जनता का एक बड़ा सवाल है कि विपक्ष देश के साथ है या सिर्फ सत्ता की भूख के साथ? क्या चुनाव प्रक्रिया पर विरोध करना लोकतंत्र का मज़ाक नहीं है? क्या न्यायपालिका के निर्णयों को चुनौती देना सिर्फ स्वार्थ की राजनीति नहीं? क्या राष्ट्रीय मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े होने से विपक्ष की राजनीति कमजोर हो जाएगी? जब विपक्ष सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करता है, तो उसका नैतिक बल कमजोर होता है, और जनता का विश्वास टूटता है।

भारतीय राजनीति को अब रचनात्मक विपक्ष की ज़रूरत है, ऐसा विपक्ष जो सत्ता में नहीं है, फिर भी राष्ट्र के लिए सत्ता के साथ खड़ा हो सकता है। जो यह समझ सके कि लोकतंत्र सरकार और विपक्ष दोनों से चलता है, लेकिन राष्ट्र सबसे ऊपर है। बिहार में चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट की अनुमति इस बात का प्रतीक है कि संस्थाएं अभी भी न्याय और संवैधानिकता की रक्षा कर रही हैं। लेकिन विपक्ष यदि इस निर्णय पर भी नकारात्मक रवैया अपनाता है, तो यह जनता की आकांक्षाओं, लोकतांत्रिक मूल्यों और विकासशील भारत की दिशा के विरुद्ध होगा। विपक्ष को चाहिए कि वह अपनी राजनीति को जनहित से जोड़े, जनविरोध से नहीं। विपक्ष यदि राष्ट्रहित में सोचने की दिशा में खुद को परिवर्तित नहीं करता, तो वह धीरे-धीरे प्रासंगिकता खो देगा।

भारतीय लोकतंत्र की नींव निष्पक्ष, पारदर्शी और समावेशी चुनावों पर टिकी होती है। इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत बनाने की दिशा में बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू किया गया मतदाता सूची सुधार अभियान हाल ही में राष्ट्रीय बहस का केंद्र बना। लेकिन जिस बात ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह यह है कि इस पूरी कवायद के दौरान विपक्ष एक बार फिर एकजुट होकर इसका विरोध करता नजर आया, भले ही मामला राष्ट्रहित और लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ा हो। बिहार में राज्य निर्वाचन आयोग ने वोटर लिस्टों को दुरुस्त करने, फर्जी वोटरों की छंटनी, और नए योग्य मतदाताओं को जोड़ने का जो कार्य प्रारंभ किया, वह एक सामान्य प्रशासनिक कार्य नहीं था, बल्कि एक लोकतांत्रिक शुद्धिकरण था। यह सुधार न केवल चुनावों को पारदर्शी बनाता है, बल्कि नागरिक अधिकारों की रक्षा भी करता है। परन्तु कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रक्रिया पर आपत्ति जताई और इसे जातीय आंकड़ों, राजनीतिक संतुलन और चुनावी गणित से जोड़कर कोर्ट का रुख किया।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि मतदाता सूची का शुद्धिकरण संविधान सम्मत प्रक्रिया है और इसे बाधित नहीं किया जा सकता। अदालत ने चुनाव आयोग की कार्रवाई को न केवल वैध बताया, बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी बताया। यह फैसला यह भी दर्शाता है कि अब समय आ गया है जब चुनावी ईमानदारी को राजनीतिक शोरगुल और वोट बैंक की राजनीति के शोर में दबाया नहीं जा सकता। विपक्ष की प्रतिक्रिया लगभग स्वचालित होती जा रही है, चाहे मुद्दा हो आर्थिक सुधार का, रक्षा नीति का, विदेश नीति का, या अब मतदाता सूची सुधार का। प्रश्न यह उठता है कि क्या हर सुधार प्रक्रिया, चाहे वह कितनी भी लोकतांत्रिक या पारदर्शी हो, विपक्ष के लिए मात्र एक राजनैतिक खतरा है? विपक्ष का यह रवैया यह दर्शाता है कि उसे संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा कम और अपनी राजनीतिक गणनाओं पर भरोसा अधिक है।

एक सामान्य नागरिक के लिए सबसे बड़ा अधिकार है वोट देना। यदि कोई सुधार प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि एक भी फर्जी वोटर सूची में न हो, कोई भी योग्य मतदाता छूटे नहीं, जाति, धर्म या राजनीति से ऊपर उठकर नागरिकता के आधार पर मतदाता सूची बने, तो फिर उसका विरोध क्यों?विपक्ष इस डर से ग्रस्त है कि यदि मतदाता सूची साफ-सुथरी हो गई, तो उनके कथित परंपरागत वोट बैंक कमजोर हो सकते हैं। उन्हें डर है कि जातीय और क्षेत्रीय समीकरण बदल सकते हैं। लेकिन यह तर्क लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है। लोकतंत्र ‘जो है, उसे प्रतिबिंबित करे’, न कि ‘जो चाहिए, उसे निर्मित करे’।