अशोक मधुप
उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस हर वर्ष नौ नवम्बर को मनाया जाता है। स्थापना के 25 साल पूरे होने पर इस वार स्थापना दिवस को विशेष उत्साह से मनाया जा रहा है। एक नवंबर से 11 नवंबर तक प्रदेश भर में राज्य स्थापना के 25 साल पूरे होने पर रजत जयंती कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इस कड़ी में तीन नवंबर को विधानसभा के विशेष सत्र में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का विशेष संबोधन हुआ तो वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ नवंबर के जश्न में शामिल होंगे।
नौ नवंबर यह दिन उत्तराखंड के लोगों के संघर्ष, बलिदान और अदम्य जिजीविषा की याद दिलाता है। यह वह तारीख है जब नौ नवंबर 2000 को भारत का 27वाँ राज्य — उत्तराखंड (प्रारंभिक नाम “उत्तरांचल”) — अस्तित्व में आया। वर्षों के लंबे जनसंघर्ष, आंदोलन और अनेक बलिदानों के बाद यह पर्वतीय प्रदेश आखिरकार अपनी अलग पहचान पाने में सफल हुआ।
स्वतंत्रता के बाद उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे पहाड़ी क्षेत्रों के लोग प्रशासनिक उपेक्षा, रोजगार की कमी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित थे। मैदानों से अलग भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस क्षेत्र के लोग लंबे समय से अलग राज्य की मांग कर रहे थे। 1952 में प्रथम पृथक राज्य आंदोलन की आवाज उठी , लेकिन उस समय इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। धीरे-धीरे यह भावना जनमानस में गहराई तक बैठ गई। यहां के निवासी सोचने लगे कि अलग राज्य बनने पर ही प्रदेश का विकास होगा। प्रदेश के युवाओं को रोजगार मिलेंगे। 1970 के दशक में “उत्तरांचल क्रांति दल” जैसे संगठनों ने इस मांग को संगठित रूप से आगे बढ़ाया। 1994 में यह आंदोलन निर्णायक चरण में पहुँचा। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नौकरियों में आरक्षण नीति को लेकर एक विवादास्पद निर्णय लिया गया, इससे पहाड़ी क्षेत्र के लोगों में असंतोष फैल गया। इस दौरान मसूरी, खटीमा, मुज़फ्फरनगर, रामपुर तिराहा जैसी जगहों पर प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोलीबारी की। इन घटनाओं ने आंदोलन को और तीव्र कर दिया।
राज्य निर्माण के संघर्ष में अनेक लोगों ने अपने प्राण न्योछावर किए।
खटीमा (जनपद ऊधमसिंहनगर) में एक सितम्बर 1994 शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गोली चला दी। कई लोग मारे गए और अनेक घायल हुए। यह घटना राज्य आंदोलन की चिंगारी बनी।
अगले ही दिन दो सितम्बर 1994 मसूरी में आंदोलनकारियों पर गोलीबारी हुई। राज्य आंदोलन के अग्रणी नेता इंद्रमणि बडोनी के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा था। कई महिलाओं और युवाओं ने इस संघर्ष में भाग लिया।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन का सबसे काला अध्याय माना जाता है। मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहा कांड। यहां पर दो अक्टूबर 1994 दिल्ली कूच कर रहे आंदोलनकारियों पर बेरहमी से गोली चलाई गई, लाठीचार्ज हुआ और महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार हुआ। इस घटना ने पूरे देश को हिला दिया और अलग राज्य की मांग राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई। कर्णप्रयाग, गैरसैंण और श्रीनगर जैसे स्थानों पर भी अनेक लोगों ने अपनी जान दी और जेलों में यातनाएँ सहीं।
इन घटनाओं से आंदोलन में नया जोश आया। जनता सड़कों पर उतर आई, छात्र, महिलाएँ, बुजुर्ग और किसान — सभी ने इसमें भाग लिया।
आखिरकार, केंद्र सरकार ने आंदोलन की तीव्रता को देखते हुए पृथक राज्य की मांग पर विचार शुरू किया। एक अगस्त 2000 को संसद में “उत्तरांचल राज्य विधेयक” पारित हुआ । नौ नवम्बर 2000 को यह राज्य आधिकारिक रूप से अस्तित्व में आया।
इस दिन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों — देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली, अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और ऊधमसिंहनगर — को मिलाकर उत्तरांचल राज्य बना। बाद में 2007 में राज्य का नाम बदलकर “उत्तराखंड” रखा गया।
राज्य आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं और कार्यकर्ताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
“उत्तराखंड के गांधी” के नाम से विख्यात इंद्रमणि बडोनी शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन को जनांदोलन का रूप दिया। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट, प्रेमलाल, शांति मेहरा, त्रिलोक सिंह नेगी, सुशीला बलूनी, राजेन्द्र सिंह आसवाल, गोविंद सिंह रावत जैसे अनेक लोगों ने अपने स्तर पर नेतृत्व किया। महिला आंदोलनकारियों ने भी अग्रणी भूमिका निभाई। पहाड़ी महिलाएँ रात-दिन सड़कों पर रहीं और नारे गूँजे — “हमारा उत्तराखंड कैसा हो, वीरों की बलिदानी जैसा हो।”
प्रदेश बनने के बाद पिछले 25 वर्षों में उत्तराखंड ने शिक्षा, पर्यटन, सड़क, ऊर्जा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है। देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, नैनीताल और पिथौरागढ़ जैसे स्थान अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाते हैं। राज्य ने अपनी समृद्ध लोकसंस्कृति, लोकनृत्य, संगीत, और पर्वों (जैसे नंदा देवी राजजात, हरेला, फूलदेई) के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इतना कुछ होने के बाद भी राज्य को पलायन, बेरोजगारी, पर्यावरणीय असंतुलन और भूकंपीय खतरे जैसी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। राज्य निर्माण के मूल उद्देश्य — “पर्वतीय विकास और स्वावलंबन” — की भावना को साकार करना आज भी जरूरी है। इस पर कुछ काम नही हुआ।
उत्तराखंड राज्य की स्थापना केवल राजनीतिक उपलब्धि नहीं, बल्कि जनबलिदान और त्याग का परिणाम है। हर वर्ष नौ नवम्बर को यह दिन याद दिलाता है कि इस राज्य के निर्माण में कितने नौजवानों ने अपने सपनों और प्राणों की आहुति दी। प्रदेशवासियों का कर्तव्य है कि हम उनके सपनों के अनुरूप एक समृद्ध, स्वावलंबी और पर्यावरण-संतुलित उत्तराखंड का निर्माण करें ,ताकि आने वाली पीढ़ियाँ गर्व से कह सकें —“यह वही धरती है जहाँ बलिदानों ने इतिहास रचा था।”
				
					




