
- “एनालिसिस पर बैन: आयोग का डर या व्यवस्था की विफलता?”
- “शब्दों पर ताले और छात्रों पर शक: ये कैसा परीक्षा तंत्र?”
हरियाणा स्टाफ सिलेक्शन कमीशन द्वारा परीक्षा समाप्त होने से पहले प्रश्नपत्रों के एनालिसिस पर रोक लगाने और कार्रवाई की चेतावनी देने का आदेश छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और डिजिटल शिक्षा प्रणाली के खिलाफ है। यह न केवल असंवैधानिक है बल्कि परीक्षा पारदर्शिता और शिक्षकों की स्वतंत्रता पर भी हमला करता है। यदि आयोग चाहता है कि पेपर पर चर्चा न हो तो उसे पहले पेपर बाहर ले जाने से रोकना चाहिए था। छात्रों को डराना नहीं, विश्वास देना ज़रूरी है।
डॉ सत्यवान सौरभ
हरियाणा स्टाफ सिलेक्शन कमीशन (HSSC) के चेयरमैन हिम्मत सिंह का हालिया बयान कि “चारों शिफ्ट के एग्जाम पूरे न होने तक कोई भी प्रश्न पत्रों का एनालिसिस न करे, वरना कार्रवाई की जाएगी”, अपने आप में एक ऐसे आदेश का प्रतीक है जो न केवल छात्रों के अधिकारों पर कुठाराघात करता है, बल्कि लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की आत्मा को भी ठेस पहुंचाता है। क्या यह एक प्रशासनिक आदेश है या फिर संविधान की भावना के विरुद्ध सृजित सेंसरशिप का नया रूप?
सोचिए, यदि एनालिसिस ही प्रतिबंधित करना था, तो छात्रों को पेपर घर ले जाने देने की क्या जरूरत थी? क्यों उन्हें परीक्षा के बाद प्रश्न पत्र दिए गए? क्या आयोग खुद इस बात को मान रहा है कि उसके प्रश्नपत्र लीक होने की संभावना है या फिर यह उसकी असमर्थता का अप्रत्यक्ष स्वीकार है कि वह समान स्तर की परीक्षा आयोजित नहीं कर पा रहा?
शिक्षा कोई गुप्त साजिश नहीं होती जिसे पर्दे में रखा जाए। परीक्षा एक सार्वजनिक प्रक्रिया है, और प्रश्नपत्र उस प्रक्रिया का हिस्सा हैं। जब पेपर छात्रों को दे दिया गया है, तो उस पर चर्चा, विश्लेषण या शंका समाधान करना अभ्यर्थियों का मौलिक अधिकार है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। ऐसे में किसी विषय पर बोलने, लिखने, विश्लेषण करने पर कार्रवाई की धमकी देना लोकतंत्र को अपमानित करने जैसा है।
आश्चर्यजनक यह है कि जिस आयोग की परीक्षा व्यवस्था बार-बार विवादों में रही है — पेपर लीक, टालमटोल, नियुक्तियों में देरी — वही आयोग अब छात्रों को नैतिकता और गोपनीयता का पाठ पढ़ा रहा है। यह वैसा ही है जैसे खुद भ्रष्टाचार में लिप्त कोई व्यक्ति दूसरों को ईमानदारी की नसीहत दे।
यह आदेश न केवल विद्यार्थियों को चुप कराता है, बल्कि कोचिंग संस्थानों, यूट्यूब चैनल्स, शिक्षकों, और परीक्षा विशेषज्ञों की स्वतंत्रता को भी बाधित करता है। कोचिंग संस्थान कोई अवैध संस्था नहीं हैं। वे वही करते हैं जो सरकार खुद नहीं कर पा रही — तैयारी को आसान बनाना, विश्लेषण देना, कमज़ोर छात्रों की मदद करना। अगर कोई शिक्षक पहले शिफ्ट के प्रश्नों को लेकर समाधान दे रहा है, तो वह नकल नहीं फैला रहा, बल्कि छात्रों के मन की शंका दूर कर रहा है।
क्या आयोग मानता है कि उसके पास सभी शिफ्टों के लिए अलग-अलग प्रश्नपत्र तैयार करने की क्षमता नहीं है? या फिर वह मान चुका है कि छात्रों के बीच आपस में जानकारी साझा करने से उसकी परीक्षा प्रणाली हिल जाती है? अगर ऐसा है, तो ज़िम्मेदारी छात्रों की नहीं बल्कि आयोग की है।
एक ओर आयोग पारदर्शिता की बात करता है, और दूसरी ओर वह पेपर चर्चा पर रोक लगाता है। यह दोहरापन है। यदि आप व्यवस्था में विश्वास चाहते हैं, तो पहले आपको पारदर्शी बनना होगा। वरना आदेशों की धमकी से केवल डर पैदा होगा, भरोसा नहीं।
एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि क्या कोई सरकारी संस्था विद्यार्थियों के ज्ञान और समझ पर प्रतिबंध लगाने का हक रखती है? सवाल केवल एनालिसिस का नहीं है, सवाल अभिव्यक्ति का है। अगर आयोग छात्रों को यह आदेश दे रहा है कि वह न तो पेपर पर चर्चा करें, न यूट्यूब पर सवालों का हल देखें, न सोशल मीडिया पर टिप्पणी करें, तो यह ज्ञान पर अंकुश लगाने जैसा है।
यह आदेश डिजिटल स्वतंत्रता पर भी सवाल खड़े करता है। आज का युवा ऑनलाइन तैयारी करता है। यूट्यूब, टेलीग्राम, वेबसाइट्स और टेस्ट प्लेटफॉर्म उसके लिए क्लासरूम बन चुके हैं। जब आयोग इन प्लेटफार्मों पर चर्चा रोकता है, तो वह एक पूरे डिजिटल एजुकेशन इकोसिस्टम को सेंसर करने की कोशिश कर रहा है।
यहाँ यह बात भी गौर करने लायक है कि यह कार्रवाई का डर किस कानून के तहत है? क्या आयोग के पास ऐसा कोई कानूनी आधार है जिससे वह किसी विश्लेषणकर्ता, शिक्षक या छात्र पर मुकदमा चला सके? या यह सिर्फ मनमानी चेतावनी है? अगर यह आदेश किसी कानूनी व्यवस्था का हिस्सा नहीं है, तो यह पूरी तरह से असंवैधानिक और न्यायिक हस्तक्षेप योग्य है।
हम यह भी नहीं भूल सकते कि यही आयोग अपने पेपर लीक और गलतियों के लिए कुख्यात रहा है। चाहे वो क्लर्क भर्ती हो, ग्रुप डी का मामला हो या CET की विसंगतियां, आयोग की खुद की जवाबदेही सवालों के घेरे में रही है। ऐसे में जब आयोग खुद जवाबदेह नहीं बन पा रहा, तब वह दूसरों की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की शक्ति कैसे पा सकता है?
छात्रों की मानसिक स्थिति समझना जरूरी है। परीक्षा के बाद एक छात्र अपने दिए गए पेपर को लेकर जानना चाहता है कि उसके उत्तर सही थे या नहीं। अगर उसे बताया जाएगा कि एनालिसिस पर पाबंदी है, तो वह बेचैनी में रहेगा। मानसिक तनाव में रहेगा। यह किसी भी तरह से शैक्षणिक विकास का समर्थन नहीं करता।
इस आदेश से एक और वर्ग बुरी तरह प्रभावित होगा — वह हैं स्वतंत्र शिक्षाविद, यूट्यूबर और शैक्षणिक विश्लेषक, जो हर परीक्षा के बाद लाइव आकर छात्रों को मार्गदर्शन देते हैं। वे पेपर का हल समझाते हैं, संभावित कट-ऑफ पर चर्चा करते हैं, और छात्रों को करियर की दिशा बताते हैं। इस आदेश के बाद वे सब मौन हो जाएंगे। क्या हम वास्तव में मौन की उस व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ न सवाल पूछे जा सकते हैं, न जवाब दिए जा सकते हैं?
दरअसल यह पूरा आदेश परीक्षा से ज़्यादा मानसिकता पर केंद्रित है। यह उस सोच की उपज है जो सत्ता में रहते हुए आलोचना से डरती है। जो पारदर्शिता के बजाय गुप्तता में विश्वास रखती है। आयोग को चाहिए कि वह अपनी प्रणाली को इतना मजबूत करे कि किसी विश्लेषण से परीक्षा की निष्पक्षता प्रभावित न हो। वरना यह सिर्फ छात्रों को डराने और चुप कराने का प्रयास माना जाएगा।
आज आवश्यकता है ऐसे विचारों की जो छात्रों की आज़ादी और संविधान की आत्मा को बचाए रखें। परीक्षा एक प्रक्रिया है, लेकिन स्वतंत्रता एक मूलभूत अधिकार। दोनों में संतुलन जरूरी है। आयोग चाहे तो छात्रों से सहयोग की अपील कर सकता है, लेकिन धमकी नहीं। व्यवस्था सम्मान से चलती है, डर से नहीं।
अंत में, यह सवाल समाज को खुद से पूछना चाहिए — क्या हम एक ऐसे युग की ओर जा रहे हैं जहाँ सोचने और समझाने पर भी पाबंदी होगी?
क्या प्रश्नपत्रों से भी डरने लगे हैं हम?
या फिर यह उस शिक्षा व्यवस्था का लक्षण है जो छात्रों को सिर्फ आज्ञाकारी मशीन बनाना चाहती है — सोचने वाला नागरिक नहीं?
हरियाणा स्टाफ सिलेक्शन कमीशन द्वारा परीक्षा समाप्त होने से पहले प्रश्नपत्रों के एनालिसिस पर रोक लगाने और कार्रवाई की चेतावनी देने का आदेश छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और डिजिटल शिक्षा प्रणाली के खिलाफ है। यह न केवल असंवैधानिक है बल्कि परीक्षा पारदर्शिता और शिक्षकों की स्वतंत्रता पर भी हमला करता है। यदि आयोग चाहता है कि पेपर पर चर्चा न हो तो उसे पहले पेपर बाहर ले जाने से रोकना चाहिए था। छात्रों को डराना नहीं, विश्वास देना ज़रूरी है।