
बृज खंडेलवाल
ग्रेटर नोएडा में एक दिल दहलाने वाली घटना ने तथाकथित मॉडर्न इंडियन सोसायटी की काली सच्चाई को प्रकाशित किया है। 28 वर्षीय निक्की को उनके पति और ससुराल वालों ने 36 लाख रुपये की दहेज मांग के लिए क्रूरता से प्रताड़ित कर जला दिया। यह भयावह घटना 21 अगस्त, 2025 को हुई, जिसे निक्की के छह साल के बेटे ने देखा, जिसने बताया कि उसकी मां पर कोई पदार्थ डाला गया, थप्पड़ मारा गया और फिर जिंदा जला दिया गया। यह जघन्य हत्या भारत में दहेज-संबंधी हिंसा की भयावह स्थिति को दर्शाती है, जहां पारंपरिक पारिवारिक मूल्य और वैवाहिक निष्ठा लालच और भौतिकवाद के दबाव में तार-तार हो रही है। कार, मोटरसाइकिल और सोना देने के बावजूद, निक्की का परिवार लगातार उत्पीड़न का शिकार रहा। क्या हमारा समाज बिखर रहा है या आधुनिकता का बोझ झेल नहीं पा रहा है?
आंकड़े बता रहे हैं कि शादी से जुड़ी सभी समस्याएं पेचीदा और सीरियस हो रही हैं। तलाक और विवाहोत्तर संबंध आम हो रहे हैं। सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर ने सही पूछा है “जब दिल मोहब्बत की आग में जलते हैं और उसी को तलाक की ठंडी राख बुझा देती है, तो सवाल उठता है—टूटता क्या है? रिश्ता या समाज की पुरानी परंपराएँ?” यही मंथन बदलते भारत की सबसे बड़ी हकीकत बन चुका है। शादी, जिसे कभी “सात जन्मों का बंधन” कहा जाता था, अब कितनी देर में टिकती है—यह बहस हर घर तक पहुँच चुकी है।
भारत में तलाक की दर-दुनिया की तुलना में अब भी बेहद कम, लगभग 1% ही है। लेकिन शहरी इलाकों की तस्वीर कुछ और कहती है। 2023 के एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे महानगरों में तलाक के मामलों में 350% की बढ़ोतरी हुई। हरियाणा महिला आयोग का दावा है—लगभग 60% तलाक लिव-इन संबंधों से जुड़े हैं। आँकड़े अदालतों की फाइल नहीं, समाज की बेचैनी बयान करते हैं।
सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “कारण साफ हैं—महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता, बदला हुआ जीवनचर्या, और सोशल मीडिया पर दिखावे की होड़। किसका घर बड़ा है, किसकी कार चमकदार है, किसका साथी ज़्यादा आकर्षक—यह तुलना रिश्तों को खोखला कर रही है। धैर्य की कमी ने इन्हें और नाजुक बना दिया है। पुरानी कहावत जैसे नए अर्थ में लौट आई है—“दूर के ढोल सुहावने।”
1961 का दहेज निषेध अधिनियम किताबी साबित हो रहा है। NCRB के 2023 आँकड़े बताते हैं कि हर साल लगभग 7,000 दहेज हत्या और 1.7 लाख से अधिक उत्पीड़न शिकायतें दर्ज होती हैं। पिंपरी-चिंचवड़ की 26 वर्षीय महिला की आत्महत्या ने फिर सवाल उठाया—क्या यह हमारी उसी “संस्कृति” का हिस्सा है जिस पर गर्व किया जाता है?
कानून भी बदलते दौर में दायरा बढ़ा रहा है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि लिव-इन रिलेशनशिप में भी दहेज के आरोप दर्ज हो सकते हैं। यानी सुरक्षा अब केवल पवित्र विवाह तक सीमित नहीं। शहरों में युवाओं के लिए लिव-इन आज लगभग सामान्य है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) के तहत मान्यता दी है। मगर चुनौतियाँ यहाँ भी कम नहीं। उत्तराखंड महिला आयोग की 2024 की दूसरी तिमाही में 650 शिकायतें दर्ज हुईं, जिनमें 300 से ज्यादा लिव-इन मामलों से जुड़ी थीं। अदालतें मान चुकी हैं कि ऐसे रिश्तों के टूटने का बोझ महिलाओं पर ज्यादा भारी पड़ता है। शायद एक वर्ग लिव इन को टेस्ट ड्राइव समझने लगा है।
2023 में भारत में 30% शादियाँ प्रेम विवाह थीं। पर सामाजिक दबाव, जातीय भेदभाव और आर्थिक असमानताएँ इन्हें तोड़ देती हैं। विडंबना यह कि कई प्रेम-विवाह भी दहेज और घरेलू हिंसा के दलदल से अछूते नहीं रहे। मोहब्बत से शुरू हुआ रिश्ता धीरे-धीरे बोझ बन जाता है।
शहरी विवाह संकट की एक खुली कड़ी है—व्यभिचार। ग्लोबल डेटिंग प्लेटफ़ॉर्म Ashley Madison के मुताबिक, भारत में 53% वयस्कों ने स्वीकार किया कि उन्होंने शादी के बाहर संबंध बनाए। दिल्ली-NCR इस मामले में आगे है। वहीं Gleeden के आँकड़े बताते हैं कि महिलाओं की भागीदारी—खासकर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और पुणे जैसे महानगरों में—तेजी से बढ़ रही है। हालाँकि ये ऑनलाइन आँकड़े वर्ग-विशेष तक ही सीमित हैं, लेकिन शहरी भारत में रिश्तों की परिभाषा अब कहीं ज्यादा जटिल और लचीली हो गई है।
तो फिर, शादी का भविष्य क्या है? समाज शास्त्री प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि अब यह केवल परंपरा नहीं रही। यह सम्मान, स्वतंत्रता और बराबरी का प्रतीक भी बन गई है। महिलाएँ अपमानजनक रिश्तों को ढोने की बजाय तलाक और नई शुरुआत को चुन रही हैं। यह सामाजिक पतन नहीं—बल्कि नए संतुलन की तलाश है। समय बदल रहा है और उसके साथ रिश्तों की परिभाषा भी। पिंजरे की सलाखें ढीली पड़ गई हैं, मगर समाज उन्हें पूरी तरह तोड़ने से हिचक रहा है। यही टकराव आने वाले भारत की सबसे बड़ी कहानी बनता जा रहा है।”