पाकिस्तान का भविष्य: अब घंटियां किसके लिए बज रही हैं? यानी उल्टी गिनती शुरू!!

Pakistan's future: For whom are the bells ringing now? That is, the countdown has begun!!

वैसे लंच मेन्यू में क्या क्या था?

बृज खंडेलवाल

वाशिंगटन के व्हाइट हाउस के कैबिनेट रूम में जब डोनाल्ड ट्रंप और पाकिस्तानी आर्मी चीफ आसिम मुनीर लंच पर जमे, तो जानकार लोगों का अंदाज है कि मेन्यू में सिर्फ सैंडविच ही नहीं, बल्कि परमाणु शांति” का हलवा और ईरान के खिलाफ गुप्त रणनीति की चटनी भी परोसी गई होगी! ट्रंप ने मुनीर को धन्यवाद देने का नाटक जरूर किया और दंभ भरा कि उन्होंने भारत-पाक युद्ध रोका, लेकिन असली मसाला रहा होगा स्वीट डिश के रूप में अमेरिका का पाकिस्तान में मिलिट्री बेस बनाने का ख्वाब।

रिवाइंड करके देखें तो लगता है कि ईरान के न्यूक्लियर ठिकानों पर अमेरिकी B 52 के हमलों से पूर्व आयोजित इस विशिष्ट लंच में ट्रंप ने पाक जनरल मुनीर से खामोश रहने की डील की होगी। मेहमानबाजी से खुश होकर मुनीर ने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करने का वर दिया, तो गदगद ट्रंप ने पूछा: क्या पाकिस्तान में अमेरिकी ड्रोन्स के लिए जगह मिलेगी? इजरायल-ईरान जंग के बीच, ट्रंप को चाहिए कि पाकिस्तान ईरान की पूर्वी सीमा पर अमेरिका को खुफिया जानकारी दे। मुनीर ने इशारों इशारों में हां भर दी, क्योंकि पाकिस्तान पहले ही ईरान का समर्थन जता चुका है । (चाइना-पाक इकोनॉमिक कॉरिडोर) पर अमेरिकी की नजर टिकी है। ट्रंप चाहते हैं कि पाकिस्तान चीन का BRI प्रोजेक्ट कमजोर करे ।

उधर, सरहद पार लोगों का जवाब था: “ये लंच नहीं, लफड़ा था!”

भारत ने इस मीटिंग को पाकिस्तान के लोकतंत्र की शर्मनाक हार बताया। क्या किसी देश के प्रधानमंत्री को छोड़कर सिर्फ सेना प्रमुख से मिलना सामान्य घटना है? ट्रंप महाशय की यह मीटिंग टैक्टिकल रोमांस है या खतरनाक डेट यह तो वक्त बताएगा। पर एक बात तय है — यह लंच दिल्ली-इस्लामाबाद-वाशिंगटन के रिश्तों पर ढंग से लाल मिर्ची छिड़क गया! अब खुजाते रहो!!
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान का हश्र देखकर, पाकिस्तान के भविष्य के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं। पाकिस्तान आज एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है, इसका भविष्य आंतरिक कमज़ोरियों और बाहरी दबावों के जाल में उलझा हुआ है। हाल ही में “ऑपरेशन सिन्दूर” ने पाकिस्तान की कमज़ोरियों को बेपर्दा कर दिया। ईरान-इसराइल तनाव, अमेरिकी सदर डोनाल्ड ट्रम्प की तरफ़ से फ़ौज के जनरल आसिम मुनिर को दावत-ए-ज़ुहूर, और लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ की बे-इज़्ज़ती, सब मिलकर पाकिस्तान की सियासत को और पेचीदा बना रहे हैं। मुल्क़ की हाइब्रिड सियासत, जिसमें फ़ौज की दख़ल कुछ ज़्यादा ही है, जम्हूरी संस्थानों को कमज़ोर कर रही है, जैसा कि इमरान ख़ान के साथ बद-सलूकी से ज़ाहिर है।

फाउंडर जिन्ना की ज़िद से पैदा हुए इस मुल्क़ की बुनियाद, जो एक “पाक” इस्लामी मुल्क़ की तामीर थी, हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ नफ़रत और मज़हबी कट्टरपंथ पर टिकी हुई है। ये नफ़रत वक़्त-बे-वक़्त दहशतगर्दी की शक्ल में सामने आती है, मगर पड़ोसी मुल्क ने 1948, 1965, 1971, 1999 की जंगों और अब ऑपरेशन सिन्दूर में हार से कोई सबक़ नहीं लिया है। बांग्लादेश का बनना एक सख़्त सबक़ था, और अब बलूचिस्तान उसी राह पर है।

ऑपरेशन सिन्दूर ने पाकिस्तान की फ़ौजी और रणनीतिक कमज़ोरियों को उजागर किया। इसने मुल्क़ को वक़्ती तौर पर शायद एकजुट किया हो, मगर नुक़सान बहुत बड़ा हुआ है। फ़ौजी अड्डों और न्यूक्लियर ठिकानों पर ख़तरा मंडराया, जो पाकिस्तानी आर्म्ड फोर्सेज की नाकामी को साबित करता है।

बांग्लादेश के निर्माण के बाद भी सबक़ न सीखने वाला पाकिस्तान अब बलूचिस्तान में बग़ावत का सामना कर रहा है। बलोच, सिन्धी, और पश्तून की बेचैनी एक पंजाबी-हकूमत और फ़ौजी सियासत के ख़िलाफ़ विद्रोह की निशानी है।

ट्रम्प का मुनिर को बुलाना और शरीफ़ को नज़रअंदाज़ करना ये दिखाता है कि अमेरिका का एस्टेब्लिशमेंट लोकतंत्र से ज्यादा फ़ौजी शासन को तरजीह देता है। इस तरह की सियासत लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला करती है, जैसा कि इमरान ख़ान की क़ैद से जाहिर है। फ़ौज द्वारा रावलपिंडी से हुकूमत चलाना पाकिस्तान को “गैरिसन स्टेट” बनाए रखता है, जहां तरक़्क़ी, और आर्थिक विकास की बजाय सिक्योरिटी को प्राथमिकता दी जाती है।

पाकिस्तान की आर्थिक हालत बद से बदतर होती जा रही है। इस्लामाबाद में हुकूमतों ने तरक़्क़ी पर ध्यान नहीं दिया, जिससे मुल्क़ बाहरी इमदाद पर निर्भर रहा है। 2023 में 3 अरब डॉलर और 2024 में 7 अरब डॉलर का IMF बेलआउट मिला, मगर GDP की रफ़्तार सिर्फ़ 2.4% है (वर्ल्ड बैंक, 2024)। क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 80% से ज़्यादा और महंगाई 9.6% (IMF, 2025) है। चीन और अमेरिका की इमदाद ने मुल्क़ को ग़ुलाम बना दिया है।

जिन्ना का “पाक” मुल्क़ का ख़्वाब हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ नफ़रत पर टिका है। ये द्वेष कश्मीर से मुंबई तक दहशतगर्दी की शक्ल में उभरता रहा है। ओसामा बिन लादेन का अब्बोटाबाद में मिलना इसकी मिसाल है। ये तथ्य भी गौर तलब है कि हिन्दुस्तान के 20 करोड़ मुसलमान पाकिस्तान से बेहतर ज़िंदगी जीते हैं, जबकि पाकिस्तान में मज़हबी हिंसा और अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म बदस्तूर है। ईरान-इसराइल तनाव ने हालात और पेचीदा बना दिए हैं।

किसके लिए घंटियाँ बज रही हैं? पाकिस्तान का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि क्या वो नफ़रत, फ़ौजी हकूमत, और बाहरी ताक़तों की ग़ुलामी से आज़ाद हो सकता है। जम्हूरी हकूमत, आर्थिक क्रांति, और पड़ोसियों से सुलह के बग़ैर, ये मुल्क़ टुकड़ों में बंट सकता है। बलूचिस्तान की बग़ावत और फ़ौज की ज़िद यही इशारा दे रही है।