ललित गर्ग
बिहार की राजनीति एक बार फिर चुनावी रंग में रंग चुकी है। हर चुनावी सभा में, गली-मोहल्ले से लेकर सोशल मीडिया तक मुफ्त रेवडियों की घोषणाओं और वादों की बाढ़ आई हुई है। यह चुनावी मौसम पहले की तरह इस बार भी ‘रेवड़ी संस्कृति’ से सराबोर दिखाई देता है। महागठबंधन हो या एनडीए-दोनों गठबंधन एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ऐसे-ऐसे वादे कर रहे हैं जो सुनने में आकर्षक लगते हैं, पर उनकी व्यवहारिकता और आर्थिक सम्भावना पर गंभीर प्रश्न उठते हैं। ये चुनावी वादें कैसे पूरे होंगे या जनता के साथ विश्वासघात होगा? हर दल मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा रहा है, लेकिन शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि इन लोकलुभावन योजनाओं के लिए फंड कहां से आएगा, कैसे उनकी पूर्ति होगी और क्या यह राज्य की कमजोर आर्थिक स्थिति पर और बोझ नहीं बनेगा।
बिहार का यह चुनाव इसलिए खास नहीं है क्योंकि इससे दो दशकों से राज्य का चेहरा रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भविष्य तय होना है-यह खास इसलिये है क्योंकि दोनों गठबंधनों की तरफ से एक जैसी राजनीति चल रही है-लोकलुभावन घोषणाओं की। महागठबंधन ने दो दिन पहले ‘तेजस्वी -संकल्प’ घोषित किया। कांग्रेस, आरजेडी और दूसरे सहयोगी दलों ने बीते दिनों में जो चुनावी वादे किए हैं, उन्हें ही इसमें शामिल किया गया है। दूसरी ओर एनडीए के वादों की लिस्ट भी बेहद लंबी है। शुरुआत में नीतीश सरकार की तरफ से मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 10 हजार रुपये, 125 यूनिट फ्री बिजली, एक करोड़ नौकरियों का वादा, महिलाओं को नौकरी में आरक्षण, बढ़ी पेंशन-नीतीश ने चुनावी अभियान इस तरह शुरू किया।
महागठबंधन ने जवाब में 200 यूनिट फ्री बिजली, हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, महिलाओं को हर महीने ढाई हजार, और भी बहुत कुछ देने का वादा किया है। दोनों की गठबंधन की आसमानी घोषणाएं लुभा रही है, जनता को गुमराह कर रही है, सीधे-सीधे रूप में यह वोटों को खरीदने की साजिश है। नीति आयोग के आंकड़े बताते हैं कि देश की जनसंख्या में बिहार का हिस्सा 9 प्रतिशत से ज्यादा है, पर जीडीपी में योगदान 2021-22 में घटकर 2.8 प्रतिशत रह गया। बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की औसत प्रति व्यक्ति आय का केवल 30 प्रतिशत है, जबकि बेरोजगारी ज्यादा है। 2022-23 में राज्य की जीडीपी की तुलना में ऋण का अनुपात 39.6 प्रतिशत था।
बिहार के सामने सबसे बड़ी समस्या है आय के साधन जुटाने की। कुल कमाई में उसका अपना टैक्स रेवेन्यू केवल 23 प्रतिशत है और केंद्र की तरफ से अनुदान का हिस्सा 21 प्रतिशत। जन सुराज का दावा है कि मुफ्त की योजनाओं को पूरा करने के लिए 33 हजार करोड़ चाहिए होंगे। इस आंकड़े को सच मान लें तो राज्य के कुल बजट में से रोजमर्रा के कामकाज व योजनाओं का खर्च निकालने के बाद करीब 40 हजार करोड़ रुपये बचते हैं। क्या मुफ्त रेवड़ियों की घोषणाओं के वादा इससे पूरे होंगे?
एनडीए और महागठबंधन, दोनों ही एक-दूसरे की घोषणाओं पर सवाल उठा रहे हैं। हालांकि हकीकत में दोनों को बताना चाहिए कि वे किस तरह इन वादों को पूरा करेंगे। बेरोजगारों को भत्ता, महिलाओं को नकद सहायता, युवाओं को लैपटॉप, किसानों के लिए ऋणमाफी-इन घोषणाओं की बाढ़ ने लोकतंत्र को मजबूती देने के बजाय उसे लोकलुभावन जाल में फंसा दिया है। यह स्थिति केवल बिहार की नहीं, पूरे देश की राजनीति में एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभर रही है, जहां सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता जनता की विवेकशीलता से नहीं, बल्कि प्रलोभनों की मिठास से तय किया जा रहा है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं, क्योंकि यह मतदाता को उपभोक्ता में बदल देती है और राजनीति को नीति से भटकाकर लाभ की गणित में फंसा देती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई ‘रेवड़ी संस्कृति’ की अवधारणा आज बिहार की राजनीति में पूर्णरूपेण साकार होती दिख रही है। मुफ्त बिजली, राशन, यात्रा या सहायता योजनाएं अब चुनावी घोषणाओं की अनिवार्य शर्त बन गई हैं। जनकल्याण का उद्देश्य पीछे छूट गया है, सामने है तो केवल वोटों की गिनती। इन घोषणाओं के माध्यम से मतदाता को प्रभावित करना एक तरह का सॉफ्ट करप्शन है, जहां खरीदी खुलकर नहीं होती, पर मानसिक रूप से मतदाता को बंधक बना लिया जाता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है, क्योंकि यह नीतियों और सिद्धांतों को कमजोर करती है और राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का खेल बना देती है। लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब चुनाव नैतिक और नीति-सम्मत हों। चुनाव का अर्थ केवल जीत और हार नहीं, बल्कि समाज के चरित्र और दिशा का निर्धारण है। नैतिक राजनीति वही है जिसमें जनहित को सर्वाेपरि माना जाए, न कि तत्कालिक लाभ को। यदि राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में केवल आकर्षक वादे ही भरते जाएं और उनके पीछे कोई आर्थिक या सामाजिक दृष्टि न हो, तो यह लोकतंत्र की आत्मा के साथ खिलवाड़ है। मतदाता को चाहिए कि वह ऐसी घोषणाओं से प्रभावित न हो, बल्कि यह देखे कि कौन-सी पार्टी या नेता दीर्घकालिक सुधार, रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुशासन की बात कर रहा है। लोकतंत्र उपहार नहीं, उत्तरदायित्व है, इसे समझना और निभाना नागरिक का धर्म है।
वोट किसी के द्वारा दी जा रही मुफ्त सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि भविष्य की स्थिरता, सुशासन और सच्चे विकास के लिए दिया जाना चाहिए। मतदाता का विवेक ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति है। अगर जनता भावनाओं या लालच में निर्णय लेगी, तो राजनीति और शासन दोनों भ्रष्ट हो जाएंगे। इसी तरह दलों को भी आत्मसंयम रखना चाहिए और यह समझना चाहिए कि सत्ता की प्राप्ति साधन नहीं, सेवा का अवसर है। आज सबसे बड़ी जरूरत है कि चुनावी घोषणाओं पर एक नियंत्रण तंत्र बने, चुनाव आयोग और नीति आयोग मिलकर इस पर नियम तय करें कि कोई भी दल अपने घोषणापत्र में ऐसे वादे न करे जिनका कोई आर्थिक आधार न हो। मीडिया को भी केवल वादों को प्रचारित करने में नहीं, बल्कि उनकी समीक्षा करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। जनता के बीच मतदाता शिक्षण अभियान चलाए जाने चाहिए ताकि लोग यह समझ सकें कि वोट किसी प्रलोभन का प्रत्युत्तर नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है।
वैसे तो दोनों ही गठबंधन एक-दूसरे की घोषणाओं पर सवाल खड़े कर रहे हैं। भाजपा-जद(यू) गठबंधन तेजस्वी की छवि को एक गैर जिम्मेदार सपने बेचने वाले नेता के रूप में गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। जाहिर है कि जब तक वादों को ठोस नीति में नहीं बदला जाएगा, वे केवल भाषणों की सजावट बने रहेंगे। महागठबंधन को चाहिए कि वह अपने घोषणापत्र को भावनात्मक अपील की बजाय आर्थिक व्यवहार्यता के साथ तैयार करे। यही रणनीति जनता में भरोसा जगाएगी और विपक्ष के हमलों को कमजोर करेगी। तेजस्वी यादव का करिश्मा, संवाद शैली और युवाओं से जुड़ाव उन्हें बिहार की राजनीति में एक बड़ा चेहरा बनाते हैं लेकिन उनकी पूरी चुनावी रणनीति धुआंधार वादों के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजनीति में कोई भी वादा तब ताकत बनता है जब उसमें विश्वसनीयता, यथार्थता और क्रियान्वयन की संभावना हो।
लोकतंत्र की पवित्रता तभी बचेगी जब राजनीति नीति से संचालित होगी, जब सत्ता सेवा का माध्यम बनेगी और जब मतदाता अपने विवेक से निर्णय लेगा। बिहार जैसे प्रबुद्ध राज्य को चाहिए कि वह रेवड़ी संस्कृति से ऊपर उठकर विकास, रोजगार, शिक्षा, नैतिकता और सुशासन पर आधारित राजनीति का चयन करे। तभी लोकतंत्र अपने वास्तविक अर्थ में जीवित रहेगा और आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकेंगी-“हमने वोट से अपना भविष्य खरीदा नहीं, बनाया है।”





