बर्मिंघम में राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय वेट लिफ्टरों ने भी कमाल का प्रदर्शन किया। खासकर, मीराबाई चानू ने तो कॉमनवेल्थ गेम्स में लगातार दूसरी बार स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया।
योगेश कुमार गोयल
राष्ट्रमंडल खेलों का समापन हो गया है और इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय भारोत्तोलकों ने जिस प्रकार भारतीय झंडे को ऊंचा रखा, वह देश के लिए गर्व की बात है। वेटलिफ्टिंग में 55 किलोग्राम भारवर्ग में संकेत ने रजत पदक जीता, जो इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का पहला पदक था। 61 किलोग्राम भारवर्ग में 269 किलोग्राम भार उठाकर गुरुराजा ने कांस्य पदक जीता। उसके बाद महिलाओं के 49 किलोग्राम भार वर्ग में मीराबाई चानू ने स्वर्ण पदक जीतकर तो इतिहास रच दिया क्योंकि राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का यह पहला स्वर्ण पदक था। बर्मिंघम में सोना जीतने वाली मीराबाई चानू भारत की पहली महिला और जेरेमी लालरिनुंगा देश के पहले पुरुष एथलीट बने। जहां तक मीराबाई की बात है तो उन्होंने 2018 में गोल्डकोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में भी सोना जीता था और पिछले साल टोक्यो ओलम्पिक में रजत पदक जीत चुकी हैं।
मीराबाई कॉमनवेल्थ गेम्स में शुरू से ही विश्वास से भरी नजर आ रही थी और उन्होंने स्नैच राउंड के बाद ही 12 किलो की भारी-भरकम बढ़त बना ली थी। वह शुरू से ही स्वर्ण पदक की पोजीशन पर बरकरार थी और 49 किलोग्राम भार वर्ग में 201 किलो वजन उठाकर कॉमनवेल्थ गेम्स में सोना जीतकर उन्होंने इस श्रेणी में नया रिकॉर्ड भी बनाया। दरअसल चानू ने स्नैच में 88 किलो जबकि क्लीन और जर्क में 113 किलो वजन उठाया। स्नैच का इस श्रेणी में यह राष्ट्रमंडल खेलों का नया रिकॉर्ड है। अपने पहले प्रयास में मीराबाई चानू ने स्नैच में 84 किलो वजन उठाया और दूसरे प्रयास में वह 88 किलो वजन उठाकर स्वयं के ही सर्वश्रेष्ठ की बराबरी करने में सफल रही। हालांकि उन्होंने तीसरे प्रयास में 90 किलो वजन उठाने का भी प्रयास किया लेकिन उसमें सफल नहीं हुई। राष्ट्रमंडल खेलों में पूरे देश को उनसे ऐसे ही स्वर्णिम प्रदर्शन की उम्मीद थी। सोना जीतने पर प्रधानमंत्री मोदी ने भी उन्हें असाधारण बताते हुए कहा है कि प्रत्येक भारतीय बर्मिंघम खेलों में उनके नया रिकॉर्ड बनाने तथा स्वर्ण पदक जीतने से हर्षित है और उनकी यह सफलता अनेक भारतीयों के लिए प्रेरणा है, खासकर उभरते खिलाडि़यों के लिए।
मणिपुर की 27 वर्षीया स्टार वेट लिफ्टर मीराबाई चानू की यह जीत भारत के लिए इसलिए भी बड़ी उपलब्धि है क्योंकि उन्होंने इन खेलों में लगातार दूसरी बार स्वर्ण जीतकर हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा किया है। इससे पहले पिछले साल ओलम्पिक खेलों में भी रजत पदक जीतकर उन्होंने भारत को गौरवान्वित किया था। चानू पीवी सिंधू के बाद दूसरी ऐसी भारतीय महिला खिलाड़ी हैं, जिसने ओलम्पिक के अब तक के इतिहास में रजत पदक जीता। टोक्यो ओलम्पिक के पहले ही दिन चानू की जीत भारत के लिए इसलिए भी गौरवान्वित करने वाली थी क्योंकि इससे पहले भारत ओलम्पिक खेलों में पहले दिन कभी कोई पदक जीतने में सफल नहीं हुआ था। चानू की ऐतिहासिक जीत के बाद भारत पदक तालिका में दूसरे स्थान पर पहुंच गया था और ऐसी उपलब्धि देश को उससे पहले कभी हासिल नहीं हुई थी।
हालांकि 2016 के रियो ओलम्पिक में हार के बाद चानू को गहरा सदमा लगा था और उस हार के बाद वह इस कदर टूट गई थी कि उन्हें लगने लगा था कि ओलम्पिक में उनका सफर वहीं खत्म हो गया है। उस हार के बाद चानू मंच से रोती हुई गई थी लेकिन टोक्यो ओलम्पिक के लिए उनके बुलंद हौंसलों का परिचय तभी मिल गया था, जब उन्होंने ओलम्पिक की तैयारी के दौरान सोशल मीडिया पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था, ‘मेहनत लगती है, चोट भी लगती है, असफलता का अनुभव होता है….लेकिन सफलता की राह कभी भी किसी के लिए आसान नहीं होती!’ रियो ओलम्पिक की हार की हताशा से उबरने के बाद चानू बुलंद हौंसलों के साथ ऐसी ‘आयरन लेडी’ बनकर उभरी कि ओलम्पिक में भारोत्तोलन में उन्होंने न केवल भारत का 21 वर्ष का सूखा खत्म किया बल्कि भारोत्तोलन में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी भी बनी। उसी की बदौलत ओलम्पिक खेलों के पहले ही दिन टोक्यो में पोडियम में भारतीय तिरंगा शान से लहराया।
मणिपुर के नोंगपेक काकचिंग गांव में 8 अगस्त 1994 को जन्मी मीराबाई चानू हालांकि बचपन में तीरंदाज बनना चाहती थी लेकिन शायद उनकी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, जो उसे वेटलिफ्टिंग की ओर ले गई। दरअसल आठवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में उन्होंने जब इम्फाल की ही रहने वाली भारत की विख्यात भारोत्तोलक कुंजुरानी देवी के बारे में पढ़ा तो उन्होंने भी उसी की भांति भारोत्तोलक बनने और देश के लिए कुछ विशेष करने का निश्चय किया। कोई भी भारतीय महिला भारोत्तोलक अब तक कुंजुरानी से ज्यादा पदक नहीं जीत सकी है। जब चानू ने भारोत्तोलक बनने का निश्चय किया, उस समय तक उन्हें ओलम्पिक खेलों के बारे में कुछ नहीं पता था, तब उनका एक ही सपना था कि वह इस खेल में कोई बड़ा सा पदक जीतें। 2007 में जब मीराबाई ने प्रैक्टिस शुरू की तो उनके पास लोहे का बार नहीं था, इसलिए वह तब बांस से ही प्रैक्टिस किया करती थी। चूंकि गांव में कोई ट्रेनिंग सेंटर नहीं था, इसलिए वह 12 साल की उम्र में प्रैक्टिस के लिए ट्रक पर सवार होकर 50-60 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग के लिए जाया करती थी। हालांकि चानू का बचपन पहाड़ से जलावन की लकडि़यां बीनते हुए संघर्षों के दौर से गुजरा लेकिन इन संघर्षों का मजबूती से सामना करते हुए ओलम्पिक विजेता बनकर 4 फुट 11 इंच की छोटे से कद की चानू ने साबित कर दिखाया कि हौंसले बुलंद हों तो मंजिल तक पहुंचना नामुमकिन नहीं होता।
मीराबाई 17 साल की उम्र में जूनियर चैम्पियन बन गई थी और जिस कुंजुरानी की बदौलत उन्होंने स्वयं भी भारोत्तेलक बनने का निश्चय किया था, उसी कुंजुरानी के 12 वर्ष पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को उन्होंने 2016 में 192 किलोग्राम वजन उठाकर तोड़ दिया था। 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थ खेलों में 48 किलो भारवर्ग में चानू ने भारत के लिए रजत पदक जीता था। रियो अेालम्पिक में पराजय के बाद मीराबाई ने 2017 में अनाहेम में हुई विश्व भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में कुल 194 किलो (स्नैच में 85 और क्लीन एंड जर्क में 107) वजन उठाकर स्वर्ण पदक जीता था। इसके लिए उन्हें वर्ष 2018 में राजीव गांधी खेल रत्न और उसके बाद पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। 2018 में कॉमनवेल्थ खेलों में भी वह स्वर्ण जीतने में सफल हुई और उसी साल सीनियर महिला राष्ट्रीय भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में भी दूसरी बार स्वर्ण पदक जीता। 2020 में ताशकंद एशियाई चैम्पियनशिप में मीराबाई को कांस्य पदक हासिल हुआ था। सही मायनों में देश की आधी आबादी के लिए तो मीराबाई चानू की सफलता बेहद प्रेरणादायी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)