प्रमोद भार्गव
दिल्ली में दीपावली पर पटाखों के विस्फोट, पराली का जलना और ठंड की दस्तक के साथ ही वायु प्रदूशण बढ़ने लगता है, अतएव राजधानी क्षेत्र का जन-जीवन स्वास्थ्य कारणों से प्रभावित हो उठता है। मेडिकल जर्नल लैंसेट में हैरानी में डालने वाले सर्वे में बताया है कि भारत में 2010 की तुलना में 2022 में वायु में पीएम 2.5 कणों की मात्रा 38 प्रतिषत से ज्यादा हो चुकी है, इसलिए 17 लाख से भी ज्यादा लोग असमय मौत की गोद में सो गए। इससे भारी आर्थिक हानि भी देष को उठानी पड़ी है। इसी समस्या से निपटने के लिए दिल्ली में कृत्रिम बारिश (क्लाउड सीडिंग) की गई। परंतु बादलों में पर्याप्त नमी नहीं होने के कारण कृत्रिम बारिष का प्रयोग सफल नहीं रहा। वस्तुतः परीक्षण रोक दिया गया। यह क्लाउड सीडिंग पष्चिमी विक्षोभ के कारण बादलों से घिरे आसमान में दिल्ली के बुराड़ी के क्षेत्र में दो परीक्षण के उपाय किए गए थे। इन परीक्षणों में कुल 16 फ्लेयर्स से सिल्वर आयोडायड और सोडियम क्लोराइड योगिकों का मिश्रण चार से छह हजार फीट की ऊंचाईं पर बादलों में छोड़ा गया। लेकिन बारिष नहीं हुई। हालांकि थोड़ी बहुत बूंदें नोएडा और ग्रेटर नोएडा में जरूर धरती को भिगो गईं। कृत्रिम बारिष कराने की कोषिष में लगे कानपुर आईआईटी के निदेषक प्रो. मणीन्द्र अग्रवाल ने दावा किया है कि क्लाउड सीडिंग के असर से ही यह बारिश हुई है। इसी कारण राजधानी के कुछ स्थलों पर कणीय पदार्थ (पीएम) 2.5 और पीएम 10 में कमी दर्ज की गई है। अतएव यह अभियान पूरी तरह सफल रहा। हालांकि कृत्रिम बारिस नहीं होने की नाकामी को बादलों में पर्याप्त नमी नहीं होने का बहाना बनाया जा रहा है। हकीकत यह है कि कृत्रिम बारिश का उपाय पूरी तरह असफल रहा है। यह बारिश दिल्ली सरकार करा रही है।
इस अभियान के अंतर्गत कानपुर की हवाई पट्टी से सेना के विमान ने उड़ान भरी और एक बहुत बड़े हिस्से में वर्शा कराने वाले मिश्रण का छिड़काव किया। यह छिड़काव लंबाई में 25 नाटिकल मील और चौड़ाई में चार नाटिकल मील क्षेत्र में किया गया। पहले चरण में विमान ने करीब 4 हजार फीट की ऊंचाईं पर उद्देष्य को पूरा किया। इसमें आठ फ्लेयर्स दागे गए। लगभग 18.5 मिनट के इस अभियान के बाद विमान नीचे लाया गया और दूसरा चरण षाम 3 बजकर 55 मिनट पर षुरू हुआ। इस बार 5 से 6 हजार फीट की ऊंचाई से बादलों में रसायन का छिड़काव आठ फ्लेयर्स से किया गया। आईआईटी की रिपोर्ट के मुताबिक बादलों में नमी की मात्रा 15 से 20 प्रतिषत तक ही थी, जो कृत्रिम बारिष के लिए उपयुक्त स्थिति नहीं थी। जब इस स्थिति का आकलन कर लिया गया था, फिर विपरीत वायुमंडल में प्रयोग किए ही क्यों गए ? इस बावत आईआईटी ने बहाना बनाया कि यह स्थिति कम नमी वाली स्थितियों में सीडिंग की प्रभावषीलता का आकलन करने के लिए उचित थी। इसलिए ये परीक्षण किए गए। दिल्ली राज्य के पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि ऐसे प्रयोग राजधानी क्षेत्र में फरवरी 2026 तक किए जाते रहेंगे। अब मौसम विज्ञानी रिपोर्ट के आंकड़ों का गंभीर अध्ययन करने के बाद कृत्रिम बारिष के आगे के उपाय करेंगे।
कृत्रिम बारिष की तकनीक अत्यंत महंगी होने के साथ गारंटी से बारिष कराने वाली नहीं है। इसमें संदेह बना रहता है कि पर्याप्त धन खर्च करने के बावजूद कृत्रिम बारिश होगी अथवा नहीं ? इसीलिए मणीन्द्र अग्रवाल ने कहा है कि इस उपाय की कुल लागत करीब 60 लाख रुपए आई है। यह मोटे तौर पर प्रति वर्ग किमी लगभग 20,000 रुपए बैठती है। यदि यह परीक्षण 1000 वर्ग किमी क्षेत्र में किया जाता है तो इसकी लागत 2 करोड़ रुपए होगी। यदि यह परीक्षण पूरे षीतकाल में जारी रखा जाए तो इसकी लागत लगभग 25 से 30 करोड़ रुपए आएगी। हालांकि यह धनराषि इसलिए बहुत बड़ी धनराशि नहीं है, क्योंकि दिल्ली में प्रदूशण नियंत्रण पर खर्च की जाने वाली कुल धनराशि इससे कहीं ज्यादा है। विषेशज्ञों का मानना है कि कृत्रिम बारिष कराना धन की बार्बादी के अलावा कुछ नहीं है। एक बार बारिश के बाद दो-तीन दिन के भीतर प्रदूशण फिर ब्रढ़ जाता है। अतएव प्रदूशण की स्थायी रोकथाम जमीनी स्तर पर हो जाती है तो कहीं बेहतर है।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार तेज गर्मी या प्रलय आने पर सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर, समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से रस यानी नमी खींचकर सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएं चलने का कारण बनता है। यही हवाएं लू कहलाती हैं। परंतु अब यही हवाएं देश के पचास से ज्यादा शहरों को ‘उश्मा-द्वीप‘ (हीट आइलैंड), धुंध और वायु प्रदूशण में बदल रही हैं। आमतौर से गर्म हवाएं तीन से आठ दिन चलती हैं और एक-दो दिन में बारिश हो जाने से तीन-चार दिन राहत रहती है, लेकिन गर्म हवाएं चलने की निरंतरता बनी रहती है। जिसने कई शहरों को ऊष्मा-द्वीप में बदलकर रहने लायक नहीं रहने दिया है। इसके प्रमुख कारणों में षहरीकरण का बढ़ना और हरियाली का क्षेत्र घटना माना जा रहा है। अतएव हमें अपने महानगर जलवायु के अनुरूप बनाने होंगे। उसके लिए बहुमंजिली इमारतों पर वर्टिकल स्थिति में खेती करनी होगी।इससे तात्कालिक छुटकारे के लिए कृत्रिम बारिश के उपाय भी किये जा सकते हैं। लेकिन महंगे होने के कारण इन उपायों को एक साथ कई महानगरों में अमल में लाना आसान नहीं है।
कुछ समय पहले गर्मी से तपते दुबई में ड्रोन के जरिए बादलों को बिजली के झटके देकर बारिश कराई गई थी। बारिश कराने की यह नई तकनीक है। इसमें बादलों में बिजली के झटके देकर बारिश कराई जाती है। इसके प्रभाव से बादलों में घर्षण होता है और बारिश होने लगती है। लेकिन दुबई के बादलों को बिजली का कुछ ज्यादा झटका लग गया, नतीजतन दुबई और आसपास के शहरों में ऐसी जमकर बारिश हुई कि बाढ़ का सामना करना पड़ गया।अतएव कृत्रिम बारिश खतरनाक भी साबित हो सकती है, यह पहली बार पता चला! गर्मी से तपते संयुक्त अरब अमीरात ने द्रोण के जरिए बादलों को पहले कृत्रिम मेधा से इलेक्ट्रिक चार्ज किया गया था। दरअसल यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के वैज्ञानिक इस पर पिछले कुछ समय से काम कर रहे थे। इस तरह से बारिश कराना बेहद महंगा है। कृत्रिम बारिश के अन्य तरीकों में पहले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं और फिर उनसे बारिश कराई जाती है।चीन ने इस तकनीक से बारिश कराने में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर ली है।
पांचवें दशक में वैज्ञानिकों ने प्रयोग करते हुए महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के लखनऊ में कृत्रिम बारिश कराई थी। दिल्ली में पिछले साल शीत-ऋतु में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश की तैयारी कर ली गई थी,लेकिन संभव नहीं हुई।भारत में कृत्रिम बारिश की शुरुआत 70 साल पहले हुई थी।तब कृत्रिम बारिश के जाने-माने मौसम विज्ञानी एसके चटर्जी की अगुवाई में गैस के गुब्बारों से बारिश कराई गई थी। कृत्रिम बारिश करना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इसके लिए पहले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं।पुरानी और सबसे ज्यादा प्रचलित तकनीक में विमान या रॉकेट के जरिए ऊपर पहुंचकर बादलों में सिल्वर आयोडाइड मिला दिया जाता है। सिल्वर आयोडाइड प्राकृतिक बर्फ की तरह होती है।इसकी वजह से बादलों का पानी भारी हो जाता है और बरसात हो जाती है।कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कृत्रिम बारिश के लिए बादल का होना जरूरी है। बिना बादल के क्लाउड सीडिंग नहीं की जा सकती है। बादल बनने पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया जाता है। इसकी वजह से भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है और इनमें भारीपन आ जाता है। फिर गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से ये धरती पर गिरने लगती हैं । वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के 56 देश क्लाउड सीडिंग का प्रयोग कर रहे हैं ।
इस तरह की बारिश का पहला प्रयोग फरवरी 1947 में ऑस्ट्रेलिया के बाथुर्स्ट में किया गया था। इसे जनरल इलेक्ट्रिक लैब ने अंजाम दिया था। छठे और सातवें दशक में अमेरिका में कई बार कृत्रिम बारिश करवाई गई। ज्यादातार मामलों में कृत्रिम बारिश सूखे की समस्या से बचने या फिर गर्मी से राहत के लिए की जाती है।चीन ने 2008 में ओलंपिक खेलों के लिए बारिश के खतरे को टालने हेतु कृत्रिम बारिश कराई थी। यह प्रयोग 21 मिसाइलों को आसमान में उमड़े बादलों पर दाग कर अंजाम तक पहुंचाया गया था।नतीजतन खेलों से पहले खूब बारिश हो गई थी।और खेलों के समय प्राकृतिक बारिश का खतरा टल गया था। लखनऊ और महाराष्ट्र में भी कृत्रिम बारिश की तकनीक अपनाई जा चुकी है। लेकिन प्रदूषण से निपटने के लिए किसी बड़े भूभाग में इसका प्रयोग अब तक संभव नहीं हो सका





