किताबें उधार नहीं, अनुभूति होती हैं

Books are not borrowed, they are experiences

जब समाज सेवा की शुरुआत दूसरों की अलमारी से होती है, तो किताबें वस्तु बन जाती हैं, अनुभूति नहीं

किताबों का रिश्ता सिर्फ़ कागज़ और अक्षरों का नहीं होता, यह मन और आत्मा का संवाद है। आज जब लोग समाज सेवा या मित्रता के नाम पर किताबें माँगते हैं, तो यह सवाल उठता है — क्या उन्हें सच में किताबों से प्रेम है या केवल उन्हें मुफ़्त में पाने से? किताबें दान का सामान नहीं, एक अनुभव हैं। जो व्यक्ति अपने श्रम और जिज्ञासा से किताबें जुटाता है, वही उनकी असली कीमत समझता है। किताबें हमें आत्मनिर्भर बनाती हैं, हमें यह सिखाती हैं कि ज्ञान किसी की कृपा से नहीं, अपने प्रयास से अर्जित होता है।

डॉ. प्रियंका सौरभ

कभी कोई व्हाट्सएप पर लिखता है, कभी मैसेंजर पर, तो कभी ईमेल में — “हमने समाज सेवा के लिए एक लाइब्रेरी बनाई है, आप कुछ किताबें भेज दीजिए।” शुरुआत में यह संदेश मुझे अच्छे लगते थे। लगा कि लोग पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं, किताबों को जीवित रखना चाहते हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह सिलसिला कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया। अब हर कुछ दिनों में कोई न कोई संदेश आता है — वही आग्रह, बस शब्द थोड़े बदल जाते हैं। मैं हर बार विनम्रता से मना करती हूँ, और कुछ दिन बाद फिर वही निवेदन लौट आता है।

कभी-कभी सोचती हूँ — क्या सच में लोग किताबों से प्रेम करते हैं, या सिर्फ़ उन्हें मुफ़्त में पाने से? कुछ तो ऐसे भी हैं जो दोस्ती ही इस उम्मीद से करते हैं कि मैं उन्हें किताबें दूँगी — जैसे मेरी अलमारी किसी सार्वजनिक पुस्तकालय की शाखा हो और मैं उसकी अनिच्छुक लाइब्रेरियन। ऐसे लोगों की सोच यह होती है कि “आपके पास तो बहुत किताबें हैं, कुछ हमें भी दे दीजिए, समाज का भला हो जाएगा।” लेकिन मैं सोचती हूँ — समाज सेवा की शुरुआत हमेशा दूसरों की अलमारी से क्यों होती है?

अगर सच में किताबों से प्रेम है, तो अपने श्रम से उन्हें जुटाइए। किताबें पाने का आनंद तभी होता है जब उन्हें पाने में थोड़ी मेहनत, थोड़ा इंतज़ार और बहुत-सा लगाव शामिल हो। वो किताबें, जिन्हें आपने अपनी पहली तनख्वाह से खरीदा हो, जिनके पन्नों पर कॉफ़ी के निशान हों या जिनमें आपकी उंगलियों के मोड़ से पन्ने मुड़े हों — वही किताबें आपके जीवन का हिस्सा बनती हैं। किताबों से प्रेम का अर्थ यह नहीं कि आप उन्हें जमा कर लें या दूसरों से माँगकर अपने रैक में सजा लें। किताबों से प्रेम का अर्थ है — उन्हें पढ़ना, उनसे प्रश्न करना, उनसे बहस करना और कभी-कभी उनसे असहमति जताना। किताबें जीवित प्राणी की तरह हैं — वे संवाद चाहती हैं, मौन नहीं।

आजकल किताबें माँगने का एक नया चलन शुरू हो गया है — समाज सेवा के नाम पर। कोई संगठन कहता है कि वह “गरीब बच्चों के लिए लाइब्रेरी” बना रहा है, कोई “महिला सशक्तिकरण केंद्र” के लिए किताबें चाहता है। शुरुआत में यह सब बहुत प्रेरक लगता है। लेकिन जब वही लोग साल दर साल, बार-बार वही संदेश भेजते हैं, तो शक होने लगता है — क्या सच में ये लाइब्रेरियाँ बन रही हैं, या किताबें किसी के ड्राइंगरूम की सजावट बन रही हैं? समाज सेवा की भावना प्रशंसनीय है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हम दूसरों की मेहनत, लगाव और निजी संपदा को अपने नाम के झंडे तले बाँट लें।

किताबें सिर्फ़ कागज़ और शब्दों का ढेर नहीं होतीं — वे किसी व्यक्ति की यात्रा का हिस्सा होती हैं। उनमें उसकी सोच, उसकी भावनाएँ, उसके समय की छाप होती है। इसलिए जब कोई किताब माँगता है, तो वह केवल एक वस्तु नहीं माँग रहा होता, बल्कि किसी के जीवन का अंश माँग रहा होता है। यही कारण है कि जब कोई कहता है, “आपके पास तो इतनी किताबें हैं, कुछ हमें दे दीजिए,” तो मुझे यह एक भावनात्मक हस्तक्षेप जैसा लगता है। किताबों से जो रिश्ता बनता है, वह व्यक्तिगत होता है। वह संग्रह नहीं, संगति होती है।

लोग कहते हैं कि देश में लाइब्रेरियाँ नहीं हैं, इसलिए वे व्यक्तिगत संग्रहों से किताबें माँगते हैं। पर क्या सच में ऐसा है? मेरे अपने शहर में डॉ. कामिल बुल्के की लाइब्रेरी है — शब्दों और भाषाओं का अद्भुत संग्रह। राज्य पुस्तकालय और ब्रिटिश लाइब्रेरी — दोनों ही ज्ञान के खज़ाने से भरे पड़े हैं। मैंने अपनी पढ़ाई के दिनों में इन्हीं लाइब्रेरियों से किताबें लीं, घंटों वहीं बैठकर पढ़ा। उन पन्नों की महक, लकड़ी की अलमारियों की ठंडक और पुराने कागज़ की स्याही में घुली हुई ख़ामोशी आज भी मेरे मन में जीवित है।

लाइब्रेरी जाना एक अनुशासन सिखाता है। किताबों के साथ समय बिताने की एक लय बनती है। वहाँ आपको केवल ज्ञान नहीं मिलता, बल्कि धैर्य और विनम्रता भी मिलती है। आज जब सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध है, तब भी असली किताबों की दुनिया की तुलना नहीं की जा सकती। डिजिटल पन्ने रोशनी देते हैं, लेकिन कागज़ के पन्ने आत्मा देते हैं।

अब जब मैं किताबें खरीदती हूँ, तो वह मेरे लिए कोई साधारण ख़रीदारी नहीं होती। यह मेरे भीतर की यात्रा होती है। कुछ किताबें मेरे अकेलेपन की सखी हैं — वे तब साथ होती हैं जब शब्दों की ज़रूरत होती है, लेकिन लोग नहीं। कुछ किताबें मेरे विचारों की हमसफ़र हैं — वे तब जवाब देती हैं जब दुनिया सवाल पूछती है। हर किताब मेरे मन का एक कोना है, एक स्मृति है, एक विचार का विस्तार है। कभी-कभी मैं सोचती हूँ — किसी किताब को उधार देना वैसा ही है जैसे अपने दिल का एक टुकड़ा किसी को दे देना और फिर रोज़ यह सोचना कि क्या वह लौटेगी भी या नहीं।

कई बार किताबें लौटती नहींं। कई बार वे लौटती हैं, लेकिन उनके पन्नों से वह अपनापन गायब होता है जो पहले था। इसीलिए मैंने सीखा है कि किताबों को दान नहीं करती, बस उन्हें जीती हूँ। हमारे समाज में “दान” का एक विशेष स्थान है, लेकिन हर चीज़ दान योग्य नहीं होती। किताबें उनमें से एक हैं। किताबें तब दान बन जाती हैं जब उन्हें देने वाला उन्हें केवल वस्तु समझता है, और पाने वाला उन्हें केवल सजावट समझता है। लेकिन जब दोनों उन्हें “अनुभव” मानते हैं, तब वे आत्मा का आदान-प्रदान बन जाती हैं।

किताबें किसी भी समाज का बौद्धिक आधार हैं। लेकिन जब हम उन्हें सिर्फ़ “मुफ़्त में पाने” की मानसिकता से देखते हैं, तो हम उस ज्ञान की गरिमा को छोटा कर देते हैं। किताबें खरीदना, पढ़ना, संभालना — यह सब एक संस्कृति है, जो धीरे-धीरे गायब हो रही है। हम चाहते हैं कि सब हमें “मुफ़्त” मिले — शिक्षा, किताबें, विचार, प्रेरणा — लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि उनके निर्माण में कितना श्रम और समर्पण लगा है।

अगर सच में किसी को किताबों से प्रेम है, तो वह उन्हें पाने की कोशिश करेगा। वह अपनी तनख्वाह का थोड़ा हिस्सा किताबों के लिए रखेगा। वह बुकफेयर में जाएगा, सेकंड हैंड स्टॉल पर पुराने शीर्षक खोजेगा, या किसी लेखक से संवाद करेगा। सच्चा पाठक किताबों को उधार नहीं माँगता — वह उन्हें खोजता है, अर्जित करता है, और पढ़ने के बाद अपने भीतर उन्हें जीवित रखता है। किताबों की असली कीमत वही समझ सकता है, जिसने उन्हें अपने श्रम, अपनी जिज्ञासा और अपने प्रेम से पाया हो।

वो जानता है कि किताबें सिर्फ़ ज्ञान नहीं देतीं, वे जीवन का नज़रिया देती हैं। किताबें किसी के विचारों का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मा का विस्तार हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि पढ़ना केवल जानकारी पाना नहीं, बल्कि अपने भीतर के संसार को गहराई देना है।

कभी-कभी मैं सोचती हूँ — किताबों की असली ताक़त यही है कि वे हमें आत्मनिर्भर बनाती हैं। वे सिखाती हैं कि ज्ञान किसी की दया पर निर्भर नहीं होता। और शायद यही कारण है कि मैं अपनी किताबें आसानी से किसी को नहीं देती — क्योंकि उन्होंने मुझे वही सिखाया है जो शायद कोई इंसान नहीं सिखा सका। किताबें दान की वस्तु नहीं, आत्मा की भाषा हैं। वे अपने भीतर हमारे विचारों, संवेदनाओं और संघर्षों का संग्रह रखती हैं।

इसलिए जब कोई मुझे कहता है — “आपके पास इतनी किताबें हैं, कुछ दे दीजिए,” तो मैं मुस्कुरा कर कहती हूँ — “अगर सच में किताबों से प्रेम है, तो उन्हें खोजिए, खरीदिए, और पढ़िए।”

क्योंकि किताबों से प्रेम का असली प्रमाण उन्हें माँगना नहीं, बल्कि उन्हें जीना है। और जब आप किसी किताब को जी लेते हैं — तब वह कभी छूटती नहीं, वह आपके भीतर बस जाती है — हमेशा के लिए।