बदलती जलवायु, बिगड़ता स्वास्थ्य: 2025 की भयावह तस्वीर

Changing climate, deteriorating health: A grim picture for 2025

सुनील कुमार महला

प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। इस संदर्भ में ‘द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ ऐंड क्लाइमेट चेंज 2025’ की हाल ही की एक रिपोर्ट यह बताती है कि वर्ष 2022 में भारत में वायु प्रदूषण के कारण 17 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में बारीक कण (पीएम 2.5), घरेलू ईंधन से निकलने वाला धुआं, और वाहनों तथा औद्योगिक उत्सर्जन इसके प्रमुख कारण हैं।इसके अलावा, रिपोर्ट ने यह भी रेखांकित किया है कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के संयुक्त प्रभाव से देश में दिल की बीमारियाँ, फेफड़ों के रोग, स्ट्रोक और समय से पहले मृत्यु के मामलों में तेजी आई है। विशेषज्ञों ने चेताया है कि अगर वायु गुणवत्ता को नियंत्रित करने के ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में स्थिति और भयावह हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘द लैंसेट काउंटडाउन-2025′ रिपोर्ट का सबसे अहम संदेश यह है कि जलवायु कार्रवाई स्वास्थ्य के लिए जीवन-रेखा है। अर्थात् यदि इसमें देरी की जाएगी, तो इससे स्वास्थ्य-हानि, मौतें, आर्थिक बोझ और असमानताएँ और अधिक बढ़ेंगी। वहीं दूसरी ओर यदि इस दिशा में समय रहते कार्रवाई की जाएगी तो स्वास्थ्य-सहायक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। बहरहाल, ‘द लैंसेट काउंटडाउन-2025 की रिपोर्ट के प्रमुख तथ्यों की यदि हम यहां पर बात करें तो जलवायु परिवर्तन के चलते स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभाव विस्फोटक हैं।इस रिपोर्ट के अनुसार 1990-के दशक से अब तक गर्मी-संबंधित मृत्यु दर लगभग 23% बढ़कर सालाना करीब 5,46,000 मौतें हो गई हैं। आंकड़े बताते हैं कि साल 2024 में प्रत्येक व्यक्ति ने औसतन 16 दिन ऐसी जानलेवा गर्मी का सामना किया, जो मानव-कारण तापमान वृद्धि के बिना नहीं होती। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वन आग (वाइल्डफायर) की धुआँ-प्रदूषण से 2024 में रिकॉर्ड लगभग 1,54,000 मौतें हुईं और यह गर्म व शुष्क परिस्थितियों के बढ़ने और वनों की आग के बढ़ते जोखिम का परिणाम है।खाद्य-सुरक्षा पर गंभीर असर दिखा और साल 2023 में लगभग 1.23 करोड़ (12.3 मिलियन) अधिक लोग खाद्य-संकट (food insecurity) का सामना कर चुके हैं, जो 1981-2010 के औसत से ऊपर है।वर्ष 2024 में गर्मी-उत्प्रेरित श्रम-घंटे लगभग 639 बिलियन घंटे हुए, जिससे कम-विकसित देशों में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग 6% तक नुकसान हुआ, यह वास्तव में गंभीर आर्थिक प्रभावों को दिखाता है। इतना ही नहीं, जीवाश्म-ईंधन की उत्पादन-और-निवेश लगातार बढ़ रहे हैं, जबकि स्वास्थ्य-अनुकूल अनुकूलन वित्त-साधन पर्याप्त नहीं मिल रहे हैं, तथा परिणामस्वरूप मौसम-परिवर्तन के स्वास्थ्य जोखिम बढ़ रहे हैं। हालांकि, कुछ सकारात्मक संकेत भी हैं- जैसे कि पढ़े-लिखे देशों में कोयला से हटने की दिशा में कदम और नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि हुई है और इसने अनुमानित रूप से 2010-22 के बीच करीब 1,60,000 पूर्व समय से मृत्यु-रोकी हैं। हाल फिलहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। बढ़ता तापमान, वायु प्रदूषण और चरम मौसमी घटनाएँ(जैसे कि तूफान, बाढ़, सूखा, लू, शीतलहर, अत्यधिक वर्षा, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान और जंगल की आग आदि) मानव स्वास्थ्य पर सीधा असर डाल रही हैं। वास्तव में, ये घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के कारण पहले की तुलना में अधिक बार और अधिक तीव्र रूप में हो रही हैं। चरम मौसमी घटनाओं का प्रभाव मानव जीवन, कृषि, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर गंभीर रूप से पड़ता है। उदाहरण के लिए, बाढ़ और तूफान से जन-धन की हानि होती है, जबकि लू और शीतलहर से लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। सूखे की वजह से फसलें नष्ट होती हैं और पेयजल की कमी बढ़ जाती है।यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील है कि आज के समय में हृदय और श्वसन रोग, डेंगू-मलेरिया जैसी बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। खराब वायु गुणवत्ता बच्चों और बुजुर्गों के लिए विशेष रूप से खतरनाक है। फसलें प्रभावित होने से कुपोषण की समस्या भी बढ़ रही है। मानसिक तनाव और जल की कमी जैसी चुनौतियाँ भी स्वास्थ्य पर असर डाल रही हैं। इसलिए जलवायु परिवर्तन को रोकना, स्वास्थ्य की रक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है। कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तुरंत और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। बहरहाल, प्रदूषण की पीड़ा केवल वही बता सकते हैं,जो उसे लगातार झेल रहे हैं।विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर उस गलती की सजा भुगतने को अभिशप्त हैं, जो उन्होंने नहीं की। वास्तव में, प्रदूषण आज मानव जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा बन गया है। इससे हवा, पानी और मिट्टी सब के सब ज़हरीले हो गए हैं। आज लोग सांस की बीमारियों, जलजनित रोगों और त्वचा समस्याओं समेत अनेक बीमारियों से लगातार जूझ रहे हैं। यदि अब भी हमने सावधानी नहीं बरती, तो आने वाली पीढ़ियों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। हाल फिलहाल, लैंसेट की ताजा रिपोर्ट के दावे, न सिर्फ भयावह है, बल्कि बेहद दर्दनाक भी है। लैंसेट की रिपोर्ट के साथ-साथ, विभिन्न वर्षों में कई अन्य संस्थाओं के अध्ययनों ने भी ऐसे ही आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। भारत की बड़ी जनसंख्या के कारण यह संख्या स्वाभाविक रूप से अधिक दिख सकती है, फिर भी यह स्थिति गंभीर विचार-विमर्श और त्वरित सुधारात्मक कदमों की मांग करती है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में भारत के कई शहर शामिल हैं, जो देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है। लैंसेट और अन्य अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, पटना, लखनऊ, वाराणसी, और कानपुर जैसे शहरों में वायु गुणवत्ता का स्तर अत्यंत खराब पाया गया है। इन शहरों में पीएम 2.5 और पीएम 10 कणों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों से कई गुना अधिक है। इस प्रदूषण का मुख्य कारण वाहनों का धुआं, औद्योगिक उत्सर्जन, निर्माण कार्य, धूल, और पराली जलाना है।यह बहुत ही दुखद है कि हम प्रदूषण को अक्सर सामान्य समस्या समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं और इसके असर को महसूस करने से पहले ही हम लापरवाह रवैया अपनाते हैं। यह विडंबना ही कही जा सकती है कि आज शहरों में धुंध और सांस की बीमारियाँ बढ़ने के बावजूद चेतना बहुत ही कम है। नीतियों और कानूनों का पालन केवल कागज़ों तक ही सीमित रह जाता है।जब तक हम व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे, बदलाव असंभव है। हाल फिलहाल,सच तो यह है कि प्रदूषण को लेकर हम कभी ज्यादा सक्रिय और मुस्तैद नहीं रहे।न ही हमारी व्यवस्था का रवैया बहुत मुस्तैदी का कभी रहा। प्रदूषण को नियंत्रित व रोकने की जिम्मेदारी हम हमेशा दूसरों की समझते रहे हैं, जबकि यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी और कर्तव्य है। दिल्ली व दिल्ली एनसीआर में तो प्रदूषण कोई आज की समस्या नहीं रही है। यह समस्या लगभग तीन से चार दशक से भी कहीं ज्यादा पुरानी है। इसका आरंभ 1980 के दशक के उत्तरार्ध में दिखाई देने लगा था, जब जनसंख्या, औद्योगीकरण और वाहनों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी और यह समस्या लगभग लगभग जैसे स्थाई सी हो गई। हमारी सरकारें हालांकि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय समय-समय पर करती रही है, लेकिन बावजूद इसके प्रदूषण में कोई विशेष कमी नहीं आ पाई है। मसलन, दिल्ली की ही यदि हम यहां पर बात करें तो,

दिल्ली में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं, जिनमें बहुत अधिक पुराने वाहनों पर प्रतिबंध, निर्माण स्थलों पर धूल नियंत्रण, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना, और प्रदूषण से बचाव के लिए नागरिक-स्तरीय प्रयास शामिल हैं। सरकार वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रही हैं और गैर-बीएस-VI वाणिज्यिक वाहनों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रही हैं। इसके अतिरिक्त, कृत्रिम बारिश के परीक्षण और मिस्ट स्प्रेयर व एंटी-स्मॉग गन जैसे उपायों पर भी काम किया जा रहा है।कभी ओड तो कभी इवन नंबर प्लेट की गाड़ियों को सड़क पर चलने की अनुमति प्रदान की जाती रही है।आज शहरों का नियोजन भी सही नहीं है। शहरों में आज जगह-जगह अवैध निर्माण कार्य, अतिक्रमण देखने को मिलते हैं। इतना ही नहीं, आज जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल, और प्राकृतिक गैस) जलाने से पर्यावरण को गंभीर नुकसान हो रहा है, जैसा कि इससे गंभीर वायु प्रदूषण होता है और यह वैश्विक तापन, जलवायु परिवर्तन और अम्लीय वर्षा जैसी समस्याओं का कारण बनता है। क्या यह चिंताजनक बात नहीं है कि हमारे यहां जीवाश्म ईंधन से संचालित वाहनों को नियंत्रित करने की कोई कारगर नीति नहीं लागू हो सकी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दिल्ली में प्रति हजार व्यक्तियों पर वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती रही है, जिससे राजधानी की सड़कों पर यातायात का दबाव और प्रदूषण दोनों बढ़े हैं। वर्ष 2017-18 में दिल्ली में लगभग 556 वाहन प्रति हजार लोगों पर दर्ज किए गए थे। कुछ वर्षों बाद वर्ष 2020-21 में यह संख्या बढ़कर लगभग 655 वाहन प्रति हजार लोगों तक पहुँच गई, जो देश के अन्य बड़े शहरों की तुलना में काफी अधिक है। हालांकि,साल 2021-22 में यह अनुपात घटकर करीब 472 वाहन प्रति हजार लोगों पर आ गया, फिर भी दिल्ली में वाहनों की घनत्व दर भारत के किसी भी अन्य राज्य या शहर से अधिक बनी हुई है। यह आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में निजी वाहनों पर निर्भरता अत्यधिक है, जो प्रदूषण और ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं को और गंभीर बनाती है। यह स्थिति तब है, जब यहां मेट्रो ट्रेन जैसी स्तरीय परिवहन व्यवस्था है। बहरहाल,विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) लंबे समय से दुनिया के सभी देशों को चेतावनी देता आ रहा है कि वायु प्रदूषण आज मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक बन चुका है। इसके मानकों के अनुसार, हवा में मौजूद प्रदूषक तत्वों की एक निश्चित सीमा तय की गई है- जिसमें पीएम 10 का स्तर 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और पीएम 2.5 का स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए। ये सूक्ष्म कण इतने छोटे होते हैं कि फेफड़ों के अंदर गहराई तक प्रवेश कर जाते हैं और शरीर में कई तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं, लेकिन दुख की बात यह है कि दिल्ली जैसे बड़े महानगरों में सर्दियों की शुरुआत के साथ ही वायु गुणवत्ता तेजी से बिगड़ने लगती है। इस दौरान पीएम 10 और पीएम 2.5 के स्तर सामान्य सीमा से लगभग चार गुना तक बढ़ जाते हैं, जिससे हवा सांस लेने योग्य नहीं रह जाती। स्मॉग की मोटी परत, वाहन उत्सर्जन, पराली जलाने और औद्योगिक धुएं के कारण हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा खतरनाक स्तर पर पहुंच जाती है। आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में वायु प्रदूषण के चलते हृदय संबंधी रोगों से होने वाली मौतों में लगभग 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका अर्थ यह है कि प्रदूषित हवा केवल सांस और फेफड़ों की समस्या ही नहीं, बल्कि हृदय रोगों का भी प्रमुख कारण बन चुकी है।यह चिंताजनक है कि आज हमारे शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शीर्ष स्थानों पर लगातार बने हुए हैं। यह तथ्य न केवल पर्यावरणीय असंतुलन को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि स्वच्छ हवा जैसी मूलभूत आवश्यकता आज हमारे देश में कितनी बड़ी विलासिता बन चुकी है। ऐसे में, लैंसेट की रिपोर्ट को यूं ही हल्के में लेकर छोड़ा नहीं जा सकता है। सरकार और आम जन को प्रदूषण जैसी गंभीर और संवेदनशील समस्या से निजात पाने के लिए हर संभव व कारगर कदम उठाने होंगे। प्रदूषण को लेकर उदासीनता को अपनाना देश और मानवता के साथ अन्याय ही कहा जा सकता है।

वास्तव में, प्रदूषण रोकने के लिए सबसे पहले वाहनों के उत्सर्जन को कम करना जरूरी है, इसके लिए सार्वजनिक परिवहन और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना चाहिए। उद्योगों से निकलने वाले धुएं पर नियंत्रण के लिए सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए। पेड़-पौधों की संख्या बढ़ाकर और हरित क्षेत्र विकसित करके हवा की गुणवत्ता सुधारी जा सकती है। साथ ही, लोगों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाना भी अत्यंत आवश्यक है।