ललित गर्ग
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में राहुल गांधी जिस तरह की बातें कह एवं कर रहे हैं, निश्चित ही यह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शा रहा है, वे लगातार विभाजनकारी राजनीति को प्रोत्साहन देते हुए भूल जाते हैं कि उनके ऊपर देश को तोड़ने नहीं, जोड़ने की जिम्मेदारी है। प्रश्न है कि कब राहुल गांधी इस महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदारी वाले पद पर रहते हुए उसके साथ न्याय करेंगे? वे जानते नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उससे क्या नफा-नुकसान हो रहा है या हो सकता है। वे तो इसलिए बोल रहे हैं कि वे बोल सकते हैं, उन्हें बोलने की आजादी है, लेकिन इसका नुकसान देश को भुगतना पड़ रहा है। नेता प्रतिपक्ष ने महाभारतकालीन चक्रव्यूह और पद्म व्यूह का सहारा लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधना चाहा है। जिस तरह से उन्होंने बजट पूर्व हलवा परम्परा में वित्तमंत्री के साथ खड़े लोगों को जाति आधारित संरचना बताया वह कहीं से भी तार्किक नहीं लगता।
इस सेरेमनी में तो उस वक्त मंत्रालय के जो सीनियर अफ़सर होते हैं, वे ही मौजूद रहते हैं। इसमें जातिवाद कहाँ से आया? यह बात समझ से परे है। यही वजह है कि हलवा परम्परा की जब राहुल गांधी अपनी तरह से विवेचना कर रहे थे, तब वित्त मंत्री ने माथा पकड़ लिया था। राहुल गांधी ने जो तुलनाएँ की, वे निश्चित रूप से अतिरेक या अतिशयोक्ति कही जा सकती हैं। हर दिखते समर्पण की पीठ पर स्वार्थ चढ़ा हुआ है। इसी प्रकार हर अभिव्यक्ति में कहीं न कहीं स्वार्थ की राजनीति है, सत्तापक्ष को नुकसान पहुंचाने की ओछी मनोवृत्ति है।
लोकसभा में आम बजट पर चर्चा करते हुए नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने अपना पुराना आरोप नए सिरे से दोहराया कि बजट बनाने वालों में कोई एससी-एसटी और ओबीसी अधिकारी नहीं होता, उससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यही कि वह समाज को बांटने वाली विभाजनकारी राजनीति पर अड़े हैं। इस तरह की बेतुकी बातें करते हुए वे क्यों नहीं समझना चाहते कि ऐसी स्थिति और इस तरह की परम्परा कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों के समय से ही चली आ रही है। कांग्रेस ही इसकी जिम्मेदार हैं, लेकिन वह कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं। राहुल गांधी एक तरह से यह कहना चाह रहे हैं कि अनारक्षित वर्गों के अधिकारी आरक्षित वर्गों के हितों की उपेक्षा करते हैं। इस तरह वे देश की परम्पराओं एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के समझे बिना ऐसा कुछ कह जाते है जो देश की एकता, अखण्डता एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत होता है। राहुल के बोलने का बचकानापन तो कभी-कभी सारी हदें पार कर जाता है। एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया हैं कि उच्च जाति के शिक्षक प्रश्नपत्र बनाते हैं, इसलिए आरक्षित वर्ग के छात्र फेल हो जाते हैं। आखिर यह भड़काऊ राजनीति नहीं तो और क्या है?
राहुल गांधी ने बजट पर सरकार को घेरने के लिए महाभारतकालीन घटनाओं का उल्लेख करते हुए यह भी कह डाला कि जैसे अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर लिया गया था, उसी तरह देश को भी मोदी सरकार ने घेर रखा है। उन्होंने प्रधानमंत्री समेत जिन छह लोगों को इस घेराबंदी के लिए जिम्मेदार ठहराया, उसमें अंबानी-अदाणी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी शामिल कर लिया। उन्होंने दावा किया है कि भारत पर कब्जा करने वाले चक्रव्यूह के पीछे तीन ताकतें है- पहली एकाधिकार पूंजी का विचार, जिसमें दो लोगों को देश की समूची संपत्ति का मालिक बनने की अनुमति देना। दूसरा देश की संस्थाएं, एजेंसियां, सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग हैं एवं तीसरी राजनीतिक कार्यप्रणाली है। इन तीनों ने मिलकर देश को तबाह कर दिया है। इस तरह के बयानों एवं बोलों से स्पष्ट है कि वह मनमाने और बेतुके तर्क देने में संकोच नहीं कर रहे हैं। वह अपनी ऐसी बातों से चर्चा में तो आ जाते हैं और उनके समर्थक उनकी वाह-वाही करने में भी जुट जाते हैं, लेकिन नेता प्रतिपक्ष के तौर पर वह न तो समाज को कोई सही दिशा दे पा रहे हैं और न ही सरकार को कोई सार्थक सुझाव। यह स्थिति देश के लिये नुकसानदायी है, चिन्तनीय है।
राहुल गांधी के रुख-रवैये एवं अतिश्योक्तिपूर्ण तर्कों से यही लगता है कि वह अभी भी चुनावी मुद्रा में हैं। अपनी चुनाव पूर्व की आक्रामकता से वे उपरत नहीं हो पाये हैं। वे सदन के भीतर एवं सदन के बाहर ऐसी ही तर्कहीन बातों एवं बयानों से अराजक माहौल बना रहे हैं। आखिर वह जो कुछ मोदी सरकार से चाह रहे हैं, उसे कांग्रेस संगठन और साथ ही अपने दल द्वारा शासित राज्य सरकारों में क्यों लागू नहीं कर रहे हैं? क्या मोदी सरकार ने उन्हें ऐसा करने से रोक रखा है? उन्हें बताना चाहिए कि कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में बजट बनाने में आरक्षित वर्गों के कितने अधिकारियों की हिस्सेदारी होती है? वह मोदी शासन की तरह मीडिया में भी आरक्षित वर्गों के प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी कई बार उठा चुके हैं, लेकिन यह देखने को तैयार नहीं कि आखिर उनके परिवार के प्रभुत्व वाले मीडिया संस्थान में इन वर्गों के कितने लोगों की हिस्सेदारी है?
लोकसभा की कार्रवाई कांग्रेसी एवं विपक्षी सांसदों के वाक आउट, हंगामे, अनर्गल बहस की भेंट चढ़ रही है। विपक्षी अपनी सार्थक भूमिका का निवर्हन करने की बजाय लगातार सत्तापक्ष को घेरने एवं आरोप-प्रत्यारोप की घटिया राजनीति में लगा है। जिससे सरकार को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। देश भी इन त्रासद घटनाओं से कुछ हासिल नहीं कर पा रहा है। आखिर सरकार करे, तो क्या करे? उसने हर सत्र के शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठकें करके देख ली। दोनों सदनों के अध्यक्ष और उप-सभापति ने बारंबार समझा-समझाकर सहयोग की अपील कर ली। प्रधानमंत्री ने भी बार-बार सदस्यों से सदन को शांतिपूर्वक बहस के जरिये चलने-चलाने की विनम्र अपील कर डाली। बावजूद इसके एनडीए को सत्ता के आरंभ 2014 से अभी तक विपक्ष का सहयोग नहीं मिल पाया है। संसद के सत्रों की ही भांति नीति आयोग की बैठक का भी लगभग सभी विपक्षी दलों ने बहिष्कार कर दिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री आईं जरूर, लेकिन उन्होंने भी यह आरोप लगाकर बाहर का रास्ता नापा कि उनको बोलने नहीं दिया गया, माइक बंद कर दिया गया। हालांकि, सरकार ने इससे इनकार किया है। क्या देश के मतदाताओं ने भारी संख्या में विपक्ष को इसीलिए भेजा है कि वे उनके हितकारी कार्यों पर संसद में बहस करने के बजाय सब कुछ हंगामे या बहिष्कार की भेंट चढ़ा दें? कब विपक्ष संसद में मतदाताओं की भावनाओं के अनुरूप उनको सौंपी गई जिम्मेदारी के प्रति गंभीर होकर अपनी दायित्वों एवं कर्तव्यों का पालन करते हुए देश-निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वाह करेंगे?
नीति आयोग ऐसा कोई मंच नहीं, जिसे दलगत राजनीति का अखाड़ा बनाया जाए। वैसे भी, इस बार तो नीति आयोग की बैठक का एजेंडा देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के उपाय और सुझावों पर केंद्रित था। आखिर इस एजेंडे पर विपक्षी दलों एवं विपक्षी दल के मुख्यमंत्री को राजनीति करने की क्यों सूझी? वे यह ठान चुके हैं कि वे किसी भी, यहां तक की राष्ट्रीय हित के विषय पर भी सरकार के साथ मिलकर चलने को तैयार नहीं। इसकी झलक संसद में तो लगातार मिल रही है, लेकिन नीति आयोग में भी वैसी ही नकारात्मक स्थितियां दुर्भाग्यपूर्ण है। विपक्षी दलों का तर्क है कि उन्होंने नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार इसलिए किया, क्योंकि बजट में विपक्ष-शासित राज्यों की कथित तौर पर अनदेखी की गई। एक तो यह जनता को गुमराह करने वाला तर्क है, और यदि ऐसा लगता है, तो उन्होंने अपनी बात आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री के समक्ष कहने का अवसर गंवना क्यों पसंद किया?