आम आदमी की पीड़ा का आख्यान है फ़िल्म ‘कागज-2’

The film 'Kaagaz-2' is the story of the suffering of the common man

  • रैली-जुलूसों पर रोक लगाने की वकालत

गिरीश पंकज

मशहूर अभिनेता और निर्देशक सतीश कौशिक अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जीवन के अंतिम समय में उनके द्वारा निर्मित, अभिनीत दो फिल्में ‘कागज’ और ‘कागज-2’ हमेशा श्रेष्ठ कथानक के लिए याद की जाएगी। कागज फिल्म मैंने नहीं देखी, मगर उसकी तारीफ खूब सुनी है ,जिसमें एक व्यक्ति को अपने ज़िंदा होने का कागज देना होता है। उसके लिए परेशान होता है। जिस फिल्म का निर्देशन सतीश कौशिक जैसे कलाकार कर रहे हों, उसकी सफलता पर संदेह का सवाल ही नहीं। लेकिन कागज-2 मैंने ध्यान से देखी। उसमें सतीश कौशिक का भावपूर्ण अभिनय झकझोर का रख देता है। यह पूरी फिल्म जो सवाल उठाती है,वह हम सब से जुड़ा सवाल है। हम आए दिन देखते हैं कि तथाकथित लोकतंत्र में हमारे जो जनप्रतिनिधि हैं, किस तरह से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर जुलूस निकालते हैं । उनके कारण ट्रैफिक जाम हो जाता है उसे जाम में एंबुलेंस में फँसती है और वह गाड़ियां भी फँस जाती है, जिनमें कोई गंभीर मरीज अस्पताल जाने के लिए तड़पता रहता है और जब तक वह अस्पताल पहुंचता है, तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है। अनेक डॉक्टरों का यही जुमला सुनने को मिलता है कि अगर पन्द्रह मिनट पहले ले आते तो शायद मरीज की जान बच जाती। इसी समस्या को फिल्म में उठाया गया है। आर्या रस्तोगी नामक लड़की यूपीएससी में टॉप करती है। उसके क्लर्क पिता मिस्टर रस्तोगी (सतीश कौशिक ) अपनी पत्नी के साथ बड़े-बड़े सपने देखते हैं लेकिन कुछ पल बाद लड़की अपने घर में ही सर के बल गिरती है । उसे अंदरूनी चोट लगती है, वह बेहोश हो जाती है। उसे फौरन अस्पताल ले जाने की तैयारी की जाती है लेकिन उनकी कार एक नेता की रैली में ऐसी फँसती है कि अंततः अस्पताल पहुँचते-पहुँचते काफी देर हो जाती है, और एक संभावनाशील लड़की की मृत्यु हो जाती है। इस मामले को वकील राजनारायण सिंह (अनुपम खेर) उठते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि इस मामले में जिला प्रशासन के अनेक अधिकारी भी दोषी हैं। सारे अधिकारी कोर्ट में आकर अपनी सफाई देते हुए कहते हैं कि हमने जो कागज भेजा था उसमें साफ-साफ लिखा था कि यातायात व्यवस्था सुचारू ढंग से चलनी चाहिए । वकील साहब अपना तर्क देते हैं कि सिर्फ कागज पर लिख देने से कुछ नहीं होता। व्यवस्था सुचारू ढंग से चले, इसकी जिम्मेदारी भी आपकी है । जज( किरण कुमार) को वकील का तर्क पसंद आता है और वह सभी जिम्मेदार अधिकारियों को निर्देश देते हैं कि आर्य के परिवार को दो करोड़ रुपये मुआवजे के रूप में दिए जाएं। पूरे फिल्म में सतीश कौशिक का मर्मस्पर्शी अभिनय आँखें नम कर देता है । खासकर जब भी अंत में वह जज के सामने घायल बेटी को अस्पताल ले जाने के समय हुई तकलीफ का वर्णन करते हैं।

यह हमारे समय का दुर्भाग्य है कि आजादी के पचहत्तर वर्षों में हमने लोकतंत्र को नेताओं और अफसरों की मौज-मस्ती के लिए छोड़ दिया है । नेता सड़कों पर जुलूस निकालते हैं उन्हें इस बात की रत्ती भर चिंता नहीं होती कि उनके कारण कितने लोगों की तकलीफ होती है । किसी को अस्पताल जाना है, किसी को इंटरव्यू देने तो किसी बच्चे को परीक्षा देने जाना है। ट्रैफिक में फँसकर सबका जीवन प्रभावित हो जाता है। लेखक द्वय अंकुर सुमन और शशांक खंडेलवाल ने बेहद प्रामाणिक कहानी लिखी है ।निर्देशक वीके प्रकाश के मंजे हुए निर्देशन का कमाल ‘कागज’ के बाद इस फिल्म में भी दिखाई दिया । लेकिन सबसे बड़ा कमाल तो सतीश कौशिक कर गए । इस फिल्म के बनने के कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो जाती है । लेकिन इस फिल्म में उनके अभिनय को लोग कभी भूल नहीं पाएंगे । मुझे लगता है यह फिल्म केवल फिल्म नहीं, एक वैचारिक आंदोलन है, प्रतिरोधी स्वर भी है। यह फिल्म हमारे समय का एक जीवंत हलफनामा है कि हमने लोकतंत्र को कितना अराजक बना दिया है। नेताओं की रैली में आम आदमी फँसता है ।कोई बहुत बड़ा नेता जा रहा हो तब भी ट्रैफिक जाम कर दिया जाता है। उस समय भी लोगों को बहुत तकलीफ होती है। इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मन में भी विचार आता है कि सड़कों पर होने वाली रेलियों पर पाबंदी लगनी चाहिए चाहे ।वह राजनीतिक रैली हो या धार्मिक जुलूस, किसी को भी अपना शक्ति प्रदर्शन करना हो तो किसी मैदान में जाकर कर सकते हैं। सड़कों को सिर्फ यातायात के लिए रखना चाहिए। उम्मीद की जाती है कि यह फिल्म सभी राजनीतिक दल के लोग देखेंगे, वे तथाकथित वीवीआईपी भी देखेंगे, जिनके कारण यातायात बाधित होता है और आम आदमी तरह-तरह की परेशानियों को झेलता है और मन मसोस के रह जाता है । सतीश कौशिक ,अनुपम खेर के अलावा अन्य कलाकारों में दर्शन कुमार ,स्मृति, नीना गुप्ता, अनंग देसाई आदि भी है, लेकिन बहुत दिनों के बाद अपने समय के प्रख्यात खलनायक जीवन के पुत्र किरण कुमार को जज के रूप में अभिनय करते देख अच्छा लगा । उन्होंने भी सबको प्रभावित किया। फिल्म के अंत में एक व्यंग्य जबरदस्त उभर कर सामने आता है ,जब नेता जी काफी विलंब से अदालत पहुंचते हैं क्योंकि खुद जाम में फँस जाते हैं । फिल्म की शुरुआत में पिता पुत्र के बीच अलगाव की कथा की उतनी आवश्यकता नहीं थी। बहरहाल, रैली और जुलूसोंके प्रति समाज में चेतना जाग्रत करने के लिए कागज-2 हमेशा याद रखी जाएगी।