यूसीसी लागू करने वाला पहला राज्य बना उत्तराखंड !

Uttarakhand became the first state to implement UCC!

सुनील कुमार महला

हाल ही में उत्तराखंड समान नागरिक संहिता(यूनिफार्म सिविल कोड) लागू करने वाला पहला राज्य बन गया है, जिसमें लिव-इन-रिलेशन व तलाक पंजीकरण तथा बेटियों हेतु संपत्ति में अधिकार जैसे प्रावधान हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि सभी धर्मों के लोगों हेतु समान नागरिक कानून होने चाहिए। पाठकों को बताता चलूं कि भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता(यूनिफार्म सिविल कोड) होगी। इसका सीधा सा और सरल अर्थ यह है कि, भारत के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये। दूसरे शब्दों में कहें तो समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को हमारे संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 के तहत परिभाषित किया गया है। इसमें यह बात कही गई है कि पूरे देश में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करना राज्य का नैतिक कर्तव्य है। सरल शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है एक देश एक नियम। यह भी कहा जा सकता है कि समान नागरिक संहिता धर्म से परे देश के सभी नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने के लिए विधि(कानून) रखती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि उनके मौलिक और संवैधानिक अधिकार सुरक्षित हैं। वास्तव में यदि किसी राज्य में सिविल में सिविल कोड लागू होता है, तो विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे के साथ-साथ लिव-इन रिलेशनशिप जैसे तमाम विषयों में हर नागरिकों के लिए एक-सा कानून होगा। गौरतलब है कि शादी के साथ-साथ लिव-इन में रहने वाले कपल्स को भी रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य होता है।उल्लेखनीय है कि संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। गौरतलब है कि समान नागरिकता संहिता के अंतर्गत व्यक्तिगत कानून, संपत्ति संबंधी कानून और विवाह, तलाक तथा गोद लेने से संबंधित कानूनों में मतभिन्नता है। हाल ही में उत्तराखंड ने यूसीसी को लागू कर यह दिखाया है कि यदि इरादे सही हों और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति, कृतसंकल्प हों, तो ऐसे बहुत ही संवेदनशील मुद्दों पर भी निर्णायक कदम उठाए जा सकते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि उत्तराखंड सरकार का यह न्याय और समानता आधारित कदम बहुत ही काबिले-तारीफ है। निश्चित ही उत्तराखंड सरकार की ओर से उठाया गया यह कदम देश के अन्य राज्यों के साथ ही साथ पूरे देश के लिए प्रेरणा व संकल्प का स्त्रोत बनेगा। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि अब तक गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है और 1954 का विशेष विवाह अधिनियम किसी भी नागरिक को किसी विशेष धार्मिक व्यक्तिगत कानून के दायरे से बाहर शादी करने की अनुमति देता है। गौरतलब यह भी है कि भारतीय संविधान में गोवा को विशेष राज्‍य का भी दर्जा दिया गया है। गोवा में यूसीसी की वजह से कोई ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है और ना ही बिना रजिस्ट्रेशन के विवाह कानूनी तौर पर मान्य होता है। वहां प्रॉपर्टी(संपत्ति) पर पति-पत्‍नी का समान अधिकार, तलाक सिर्फ कोर्ट के जरिए हो सकता है। इतना ही नहीं, माता-पिता द्वारा संपत्ति का मालिक अपने बच्चों को भी बनाना होता है। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी भी समाज की प्रगति और सौहार्द्रता हेतु उस समाज में विद्यमान सभी पक्षों के बीच समानता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है।समान नागरिक संहिता लागू होने से समानता और सौहार्दपूर्ण भाव को पहले से और अधिक गति मिल सकेगी। पाठकों को बताता चलूं कि भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन के माध्यम से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को प्रविष्ट किया गया था, लेकिन अब तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है। वास्तव में धार्मिक आधार पर कहीं भी कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारतीय संविधान किसी भी धार्मिक भेदभाव को समाप्त करने की बात कहता है। गौरतलब है कि भारत में अधिकतर व्यक्तिगत कानून धर्म के आधार पर तय किये गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के व्यक्तिगत कानून हिंदू विधि से संचालित किये जाते हैं।इधर, मुस्लिम तथा ईसाई धर्मों के भी अपने अलग व्यक्तिगत कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है, जबकि अन्य धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानून भारतीय संसद द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित हैं। यह विडंबना ही है कि आज भी स्वतंत्रता के इतने बरसों बाद भी देश में लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ विद्यमान हैं, और देश का एक बड़ा वर्ग आज भी अपने मूलभूत अधिकारों के लिये लगातार संघर्ष कर रहा है। कहना ग़लत नहीं होगा कि विधि के समक्ष समता(समानता) की अवधारणा आज हमारे समाज की मूलभूत आवश्यकता है। कहने को तो आज देश में महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त हैं लेकिन फिर भी कहीं न कहीं दोनों के बीच एक असमानता की खाई है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इस ग्लोबल दुनिया में महिलाओं की समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है,उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है।हमारे देश के संविधान में भी स्त्री और पुरुष, दोनों को चुनावों में वोट डालने का समान व बराबर अधिकार दिया गया है। पाठक जानते हैं कि सभी धर्मों के स्त्री व पुरुषों के लिए आपराधिक कानून भी समान हैं, इसके बावजूद अगर शादी, तलाक, बच्चे और संपत्ति से संबंधित सिविल मामलों में धर्म के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। बहरहाल,उत्तराखंड सरकार का समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने का निर्णय वाकई ऐतिहासिक है,जो संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लिखित नीति निर्देशक सिद्धांत के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।कहना ग़लत नहीं होगा कि उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता को लागू कर एक आधुनिक, प्रगतिशील और समानता आधारित समाज की ओर ठोस कदम बढ़ाने का परिचय दिया है।सच तो यह है कि उत्तराखंड ने यूसीसी के माध्यम से अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की कोशिश की है। वास्तव में यूसीसी किसी भी धर्म या संप्रदाय के खिलाफ नहीं है बल्कि यह तो सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों की बात करता है। कहना चाहूंगा कि यह हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के सामंजस्यपूर्ण भारत के निर्माण के दृष्टिकोण के अनुरूप है, जहां किसी भी धर्म, लिंग, जाति समुदाय के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं होगा।गौरतलब है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड दुनिया के कई देश में पहले से लागू है, जिनमें क्रमशः अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किये, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र जैसे देश शामिल हैं। हालांकि, यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कई इस्लामिक देशों में शरिया कानून और कई यूरोपीय देशों में धर्मनिरपेक्ष कानून को फॉलो किया जाता है। अंत में, यही कहूंगा कि उत्तराखंड द्वारा राज्य में यूसीसी को लागू करना
सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में एक शानदार व बड़ा कदम है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह महिला सशक्तीकरण और समानता की दिशा में एक नायाब पहल है। इससे जहां एक ओर हलाला जैसी प्रथाओं पर अंकुश लग सकेगा, वहीं दूसरी ओर धर्म और समुदाय के आधार पर भेदभाव भी खत्म होगा।भारत में अभी शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में विभिन्न समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग कानून हैं। यूसीसी आने के बाद भारत में किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह किए बगैर सब पर इकलौता कानून लागू होगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि स्त्री-पुरुष के जिन समान अधिकारों पर हमारे महापुरुषों ने जोर दिया था, उनकी प्राप्ति की दिशा में उत्तराखंड ने कदम बढ़ा दिए हैं। हाल फिलहाल देखने वाली बात यह है कि यूसीसी पूरे देश में कब तक लागू होगा ?