
अजय कुमार
समाजवादी पार्टी ने जिस अंदाज में अपने तीन बागी विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है, उसने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। एक तरफ यह अनुशासन का संदेश है, तो दूसरी ओर जातीय समीकरणों का राजनीतिक संतुलन भी। लेकिन बात सिर्फ निष्कासन की नहीं है, असली सवाल यह है कि सात में से केवल तीन पर ही कार्रवाई क्यों हुई? यह निर्णय सिर्फ पार्टी विरोधी गतिविधियों के आधार पर नहीं, बल्कि रणनीतिक और सामाजिक गणनाओं को ध्यान में रखकर लिया गया है। अखिलेश यादव की इस ‘आंशिक कार्रवाई’ के केंद्र में एक नई समाजवादी राजनीति आकार ले रही है, जो पुराने मुलायम युग से अलग दिखती है, लेकिन उतनी ही संवेदनशील भी है।
अखिलेश यादव ने अयोध्या की गोसाईगंज सीट से विधायक अभय सिंह, अमेठी की गौरीगंज सीट से विधायक राकेश प्रताप सिंह और रायबरेली की ऊंचाहार सीट से विधायक डॉ. मनोज पांडे को निष्कासित कर पार्टी का संदेश स्पष्ट कर दिया कि भीतरघात अब बर्दाश्त नहीं होगा। लेकिन इससे भी बड़ा संदेश यह गया कि जिन लोगों ने न केवल भाजपा के पक्ष में वोट डाला, बल्कि पार्टी के खिलाफ लगातार बोलते रहे, उनके लिए सपा में अब कोई जगह नहीं है। ये तीनों विधायक एक लंबे समय से सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश यादव के खिलाफ बयानबाज़ी कर रहे थे। मनोज पांडे ने तो यहां तक कह दिया कि उन्होंने एक साल पहले ही भाजपा ज्वाइन कर ली थी और अब सपा की कार्रवाई से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वहीं अभय सिंह और राकेश प्रताप सिंह लगातार सपा को ‘हिंदू विरोधी’ और ‘रामविरोधी’ पार्टी करार देते रहे हैं। ऐसे में इन पर कार्रवाई न करना अखिलेश के लिए अपनी साख और नेतृत्व दोनों पर सवालिया निशान बन सकता था।
लेकिन जिस तरीके से बाकी चार विधायकों को पार्टी में बरकरार रखा गया है, उसने राजनीतिक विश्लेषकों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या सपा में कार्रवाई भी अब जाति देखकर तय होती है? दरअसल, जिन तीनों को निकाला गया, वे सभी सवर्ण हैं मनोज पांडे ब्राह्मण और बाकी दो ठाकुर। वहीं पूजा पाल, आशुतोष मौर्य, विनोद चतुर्वेदी और राकेश पांडे में से दो पिछड़ी जातियों से हैं और दो ब्राह्मण हैं, जिनका पार्टी विरोधी बयान सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया। यही वह अंतर है जो अखिलेश यादव की रणनीति को जातीय गणित से जोड़ता है। सपा इन दिनों ‘पीडीए’ यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक समीकरण को केंद्र में रखकर आगे बढ़ रही है। ऐसे में उन विधायकों को तुरंत बाहर करना जिन्हें पार्टी अभी अपने जनाधार से जोड़कर देख रही है, सियासी आत्मघात हो सकता था।
पूजा पाल और आशुतोष मौर्य जैसे नेता न सिर्फ ओबीसी वोट बैंक में सपा के लिए सहायक हो सकते हैं, बल्कि इनका निष्कासन समाजवादी पार्टी को उस वर्ग से और दूर कर सकता था, जिसे जोड़ने के लिए पार्टी लगातार मेहनत कर रही है। वहीं ब्राह्मणों को लेकर अखिलेश का रुख अभी भी संतुलित है। 2022 के चुनावों में ब्राह्मणों को जोड़ने की नाकाम कोशिशों के बाद भी पार्टी उन्हें पूरी तरह छोड़ना नहीं चाहती। यही वजह है कि विनोद चतुर्वेदी और राकेश पांडे जैसे ब्राह्मण विधायकों पर फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यह रणनीति सधी हुई है ना सवर्णों को पूरी तरह नाराज़ करना है, ना ही कोर वोट बैंक को जोखिम में डालना है।
लेकिन सवाल सिर्फ जाति का नहीं है। व्यवहार और भाषा भी उतनी ही अहम भूमिका निभाते हैं। जिन तीन विधायकों को निकाला गया, उन्होंने सिर्फ पार्टी लाइन से हटकर वोटिंग नहीं की, बल्कि सोशल मीडिया से लेकर टीवी इंटरव्यू तक में अखिलेश यादव को कमजोर, अहंकारी और जातिवादी नेता बताया। ये लोग भाजपा के बड़े नेताओं के साथ मंच साझा करते रहे और अपने क्षेत्र में भाजपा कार्यकर्ताओं की तरह सक्रिय रहे। वहीं बाकी चार ने भले ही वोट भाजपा को दिया हो, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर चुप्पी साधे रखी। राजनीति में चुप्पी अक्सर सजा से बचा लेती है, और यही इन विधायकों के साथ हुआ।
सपा की यह आंशिक कार्रवाई पार्टी अनुशासन की मजबूती भी दर्शाती है और आने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीति को भी। अखिलेश यादव यह अच्छी तरह जानते हैं कि 2027 का चुनाव उनके राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट हो सकता है। ऐसे में उन्हें पार्टी के भीतर विश्वासघात से ज्यादा अपने जनाधार की एकता चाहिए। यही वजह है कि उन्होंने ऐसे लोगों को पहले निशाने पर लिया, जिनके जाने से पार्टी को वोटों का नुकसान नहीं होगा। ठाकुर और ब्राह्मण विधायक जो अब भाजपा की ओर झुक चुके हैं, उन्हें बाहर निकालकर अखिलेश ने सपा के अंदर एक स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब पार्टी में अनुशासन सर्वोपरि होगा।
भाजपा ने इस मुद्दे को लपकने में देर नहीं लगाई। उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा कि सपा अब अपने ही कार्यकर्ताओं पर अत्याचार कर रही है और पार्टी पूरी तरह बिखर चुकी है। लेकिन भाजपा को भी यह मालूम है कि सपा की यह कार्रवाई केवल अनुशासन नहीं बल्कि रणनीतिक शुद्धिकरण है। सपा अब पुराने ढांचे को तोड़कर नई सामाजिक गठजोड़ तैयार कर रही है, जिसमें जाति, विचारधारा और निष्ठा का संतुलन अहम है।
कुल मिलाकर, समाजवादी पार्टी ने तीन विधायकों को निष्कासित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी में अब केवल संख्या नहीं, विचारधारा और व्यवहार भी अहम होगा। लेकिन जो चार विधायक फिलहाल बचे हुए हैं, उन पर नजरें टिकी रहेंगी। अगर ये लोग भी भविष्य में पार्टी लाइन से हटते हैं या भाजपा से नज़दीकी बढ़ाते हैं, तो यह तय माना जा रहा है कि अगली सूची में उनके नाम भी होंगे। फिलहाल अखिलेश यादव ने एक सधी हुई सियासी चाल चली है, जिससे पार्टी के भीतर अनुशासन भी कायम हो और जातीय संतुलन भी न बिगड़े। यह चाल चुनावी शतरंज की तैयारी है, जहां हर मोहरा अब पार्टी लाइन से ही चलेगा।