जातीय जनगणना – जाति के नाम पर वोटों का बंटबारा !

गोविन्द ठाकुर

जाति के नाम पर एकबार फिर से कई क्षेत्रीय दल और उसके नेता राजनीति बिसात बिछाने की तैयारी कर रही है। बिहार में दोनों मुख्य विपक्षी पार्टी इस मामले को लेकर हाथ मिलाती नज़र आ रही है। नीतीश कुमार वैसे तो बीजेपी के साथ मिलकर तीसरी बार सत्ता पर काबिज है मगर नीतीश कुमार को लगता है कि देश में जाति के नाम पर जन गणना होनी चाहिए। तो बात बात में नीतीश कुमार का विरोध करने वाली राष्टीय जनता दल और उसके नेता तेजस्वी यादव और उनके पिता लालू यादव इस मुददे पर नीतीश के साथ गलबहिंयां दे रहे हैं। मतलब साफ दिखता है कि चाहे दोनों में विरोध जितनी हो मगर पिछड़ों राजनीति पर दोनों साथ ही रहेंगे। इसका दुसरा पहलू भी है। वह इस तरह है कि नीतीश कुमार को लगता है कि बिहार में वह बीजेपी का बड़ा भाई की हैशियत रखता है, मगर बीजेपी के बढ रहे वर्चस्व ने उसे पीछे धकेल रही है। ऐसे में अगर वह पिछड़ों की राजनीति पर बीजेपी को बैकफुट पर नहीं रखती है तो जल्द ही उसकी राजनीति सामाप्ति की ओर होगा। नीतीश के डर का एक और कारण यह भी है कि पहले बीजेपी अगड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करती थी लेकिन देश में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने खुद पिछड़ों का राजनीति करती दिख रही है और यही कारण है कि पिछड़ो वर्ग बड़ी तेजी से बीजेपी के पीछे खड़ी हो रही है।

जब तक अटल – आडवाणी की जोड़ी थी तब तक नीथीश कुमार को कोई चिंता नहीं थी उसे सिर्फ लालू यादव के चाल को ही समझना था मगर आज उसे मोदी और शाह की चाल को समझना पड़ रहा है। बिहार के चुनाव में मोदी ने रैली में खुद को अति पिछड़े वर्ग से होने की बात कहकर संकेत दे दिया था कि वह भी आगे इसी वर्ग को अपना जनाधार बनायेंगे। नीतीश कुमार के लिए और राजद भी इस मुददे पर परेसानी खड़ी कर सकती है। नीतीश को डर है कि कहीं राजद तेजस्वी ने इस मुददे को लेकर बाजी
ना मार दे इसलि ए नीतीश जातीय जनगणना को कराने पर जोर दे रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में सपा अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने भी जातीय जनगणना कराने की धार दे रहे हैं। हां, बसपा और कांग्रेस को इससे लेना देना नहीं है। लेकिन दुसरे छोटे दलों ने जो पिछड़ों की ही राजनीति करते हैं वह इसे मुददा बना रहे हैं। आगे होने वाले विधानसभा के चुनाव में हो सकता है कि अखिलेश यादव और दुसरे दल जनता के बीच इसे ले जा सकते हैं। जातीय जनगणना को लेकर सिर्फ ये दो राज्य ही नहीं बल्कि दक्षिण को राज्यों में बड़ी उत्तेजना है तमिलनाडू में डीएमके प्रमुख स्टालिन ने इसे बड़ा मुद्दा बना दिया है। स्टाइलिन नीतीश, तेजस्वी और अखिलेश यादव से भी बड़ा वकालत कर रहे हैं। माना जा रहा है कि तमिलनाडू में ओबीसी की संख्या सबसे ज्यादा है वे इस मुददे को धार देकर पूरी ओबीसी वोट को अपने पक्ष में करने की जुगत में है। जयललिता के मौत के बाद से ही स्टालिन अन्ना डीएमके के ओबीसी वोट को भी डीएमके के साथ जोड़ने को देख रहे हैं। महाराष्टृ, तेलंगाना, आध्र प्रदेश में जगन रैड्डी भी गाहे बगाहे इसे तुल दे देते हैं। लेकिन इसे लेकर उतरी भारत में राजनीति सुलग रही है।

सवाल उठता है कि भारत में जातीय जनगणना की शुरुआत कैसे हुई। 1857 के सिपाही विद्रोह जो बाद में पहला स्वतंत्र भारत के लिए विद्रोह का रुप धारण कर लिया था, उसकी जड़ में इसका स्तित्व है। इस विद्रोह ने मानो अंग्रेजों जडे हिलाकर रख दी थी। अंग्रेजों को लगने लगा था कि अगर भारत में इसी तरह लोगो एकजुट रहे तो उन्हें भारत से बागना पड़ेगा। अंग्रेजों को भारतीय एकता के इस भावना तोड़ना था। अंग्रेजों ने भारत में जाति के आधार पर जनगणना ले आयी और लोगों की एकता को तार तार कर दिया। कहा जाता है कि अगर यह जातिगत जनगणना नहीं ती तो अंग्रेस काफी पहले चले जाते मगर वे इसके बल पर 90 और सालों तक राज किया। महात्मा गांधी ने इसे समझा औक काफी विरोध के बाद 1931 में इसे बंद करा दिया गया। देख सकते हैं कि 1931 के बाद से ही स्वतंज्ञता की लड़ाई तेज हुई है।

भारत 1947 में स्वतंत्र हो गया । कुछ वर्षों तक सब ठीक रहा मगर फिर से लोहिया और दक्षिण के नेताओं ने इसे तुल देना शुरु किया तो मजबूर होकर कांग्रेस की सरकार को इसे बहाल करना पड़ा। बाद में फिर से कांग्रेस की सरकार ने सोनिया गांधी की पहल पर इसपर रोक लगा दी। तब से आज तक रोक लगी हुई है। आज फिर से इसे लागू करने को लेकर कई क्षेत्रीय दलों के बीच गठजोड़ किया जा रहा है। मोदी सरकार पर दबाव बनाये जा रहे हैं कई बार तो ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार विचार कर रही है। कई बार सुप्रीम कोर्ट में इसे लागू करने के लिए अपरोक्ष मामले लाये जाते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान नहीं लिया।

2011 के जनगणना के अनुसार देश में 44 लाख जातियां है जो राज्यों के हिसाब से अगड़ी पिछड़ी जातियों में बंटी है। जो एक राज्य में अगड़ी है वह दुसरे राज्यों में पिछड़ी है। इस जातीय जनगणना के पैरोकार कर रहे नेताओं की मंशा है कि देश में 50 फीसदी से अधिक पिछड़े वर्ग के लोग हैं ऐसे में जाति के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए साथ ही ना की उसकी सीमा 50 फीसदी तक ही सीमित रखा जाए। तो पहले अंग्रेजों ने भारतीय एकता को तोड़ने के लिए समाज को बांटा अब क्षेत्रीय दलों के नेता जो जाति की राजनीति करते हैं वे भारतीय एकता को तोड़ने की फिर से कोशिश में हैं ।