धीमी रफ़्तार से तय हुआ आधा सफर, क्या ऐसा ही रहेगा बाकी सफर?

Half the journey was covered at a slow pace, will the rest of the journey be like this?

प्रदीप शर्मा

देश में लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण मंगलवार को संपन्न हो गया। कहने को चार चरण और बचे हैं, लेकिन कुल 283 लोकसभा क्षेत्रों में मतदान हो चुका है, जबकि बहुमत का जादुई आंकड़ा 272 है। ऐसे में कहा जा सकता है कि हम मध्य अप्रैल से लेकर जून के पहले सप्ताह तक फैले इस चुनावी सफर का आधा रास्ता तय कर चुके हैं।

इस बार अब तक के चुनावों का सबसे दिलचस्प पहलू मतदान प्रतिशत साबित हुआ है। शुरुआती दोनों दौर में वोटिंग 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले कम रही। तीसरे चरण में भी यह ट्रेंड बदलता नहीं दिखा। हालांकि चुनाव आयोग के आधिकारिक आंकड़े आने में अभी वक्त है, फिर भी शुरुआती आंकड़ों के मुताबिक कुछ खास राज्यों और चुनाव क्षेत्रों में भले वोट प्रतिशत कुछ ज्यादा हो, राष्ट्रीय औसत देखते हुए कहा जा सकता है कि मतदाताओं में कोई अतिरिक्त उत्साह इस बार भी नजर नहीं आया।

यह तथ्य दिलचस्प इसलिए भी बन गया है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों खेमे इसकी अपने मुताबिक व्याख्या करते हुए इसे जीत के अपने दावे का आधार बना रहे हैं। सत्तारूढ़ NDA का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता को ध्यान में रखें तो साफ हो जाता है कि BJP और सहयोगी दलों के समर्थक मतदाता पहले की तरह वोट दे रहे हैं। वे इसमें BJP की चुस्त चुनावी मशीनरी की भूमिका को भी रेखांकित करते हैं। इसके विपरीत विपक्षी खेमे का कहना है कि 2014 और 2019 के चुनावों को मोदी समर्थक मतदाताओं के उत्साह ने ही खास बनाया था। इस बार लोगों में वैसा जोश नहीं है। वे कहते हैं कि यह तथ्य जैसे वोटिंग प्रतिशत में नजर आया है, वैसे ही रिजल्ट में भी दिखेगा।

इस चुनाव प्रक्रिया की जीवंतता का एक उदाहरण यह भी है कि अब तक के दौरों में वोटरों के रेस्पॉन्स के आधार पर विभिन्न दलों की प्रचार शैली में खास बदलाव दिख रहा है। पहले और दूसरे चरण के बाद चुनाव प्रचार ज्यादा तीखा होता दिखा। न केवल राजनीतिक दल एक-दूसरे को लेकर ज्यादा आक्रामक हुए बल्कि ऐसे मुद्दों पर उनका जोर बढ़ा जो आम मतदाताओं को उद्वेलित करके उन्हें चुनाव बूथों तक जाने को प्रेरित करे।

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में हर चुनाव ही खास होता है, फिर भी ये चुनाव विशेष रूप से देश-विदेश का ध्यान खींच रहे हैं तो उसकी वजह यह भी है कि विपक्ष ने इस बार लोकतंत्र को भी चुनावी मुद्दा बना दिया है। दूसरी ओर सत्ता पक्ष भी पीछे न रहते हुए यह आरोप लगा रहा है कि विदेशी ताकतें इन चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश में हैं। खैर, इन सब पर जनता क्या सोचती है, यह तो 4 जून को नतीजों के आने पर ही पता चलेगा।

इस चुनाव में भी ये तो साबित कर दिया कि चुनाव आयोग के दिशा निर्देश कोई काम नहीं आए। चुनावी रैलीओ में जमकर धर्म के नाम पर वोट मांगे गए। जाति का भी खूब बोलबाला रहा, हिन्दू- मुस्लिम,पाकिस्तान भी लगातार चल ही रहा है। ये सभी मुद्दे हर चुनाव में चलते आ रहे है, लेकिन इस बार एक नए मुद्दे की भी खोज हुई वो है ‘स्त्रीधन’, चुनावी भाषण में इस बार सत्ता पक्ष की तरफ से महिलाओं को कहा गया कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो आपका मंगलसूत्र तक छीन लिया जायेगा।

चुनाव प्रचार शुरू होने से पहले जनता को उम्मीद थी की इस बार वर्त्तमान सरकार पिछले 10 वर्ष की उपलब्धि जनता के सामने रखेगी और अगले 5 साल का Vision जनता को बताएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और क्या यही तो वजह नहीं है की इस बार जनता वोट डालने के अपने अधिकार में उतनी रुचि नहीं ले रही जितनी पहले करती थी।