तनवीर जाफ़री
इन दिनों पूरे विश्व में इस्लामिक कलेण्डर के पहले महीने यानी माह ए मुहर्रम के दौरान इस्लामी इतिहास की शहादत की सबसे अज़ीम घटना को याद किया जा रहा है। लगभग 1450 वर्ष पूर्व 10 अक्टूबर 680 अथवा इस्लामिक कलेण्डर के अनुसार 10 मुहर्रम 61 हिजरी को इराक़ के करबला क्षेत्र में इसी मुहर्रम महीने के दौरान स्वयं को मुसलमान कहने वाले एक अधर्मी शासक यज़ीद इब्ने मुआविया ने पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन व उनके पूरे परिवार को क़त्ल करने का आदेश अपनी लाखों की सेना को दिया था। उधर हुसैन ने अपने 72 परिजनों व सहयोगियों के साथ दसवीं मुहर्रम को कर्बला में तेज़ गर्मी के तपते रेगिस्तानी मैदान में तीन दिनों तक भूखे व प्यासे रहते हुये अपनी व अपने परिवार के अनेक लोगों की बेशक़ीमती शहादत देकर यह साबित किया था कि हज़रत मोहम्मद के परिजनों व इस्लाम के वास्तविक वारिसों द्वारा अहंकारी ,अधर्मी,अय्याश व क्रूर शासक को कभी भी इस्लामी साम्राज्य के शासक के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती।
करबला के मैदान में हज़रत इमाम हुसैन ने अपनी,अपने छः महीने के मासूम बच्चे अली असग़र जवान बेटे अली अकबर व भाई अब्बास जैसे बहत्तर साथियों को अधर्म के विरुद्ध जिहाद बोलते हुये क़ुर्बान किया इन शहादतों की कोई दूसरी मिसाल नहीं है। उधर दूसरी तरफ़ यज़ीद व उसकी सेना द्वारा यहीं पर क्रूरता का वह इतिहास रचा गया जिसकी दूसरी मिसाल पूरी पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलती। यही वजह है कि दास्तान – ए – करबला को ग़लत(बातिल) के विरुद्ध सत्य (हक़) के लिए संघर्ष और अन्याय और झूठ के खिलाफ़ न्याय और सत्य के लिए बलिदान के प्रतीक के रूप में हमेशा जाना जाता रहेगा। करबला में इमाम हुसैन ने अपनी क़ुर्बानी देकर पूरे विश्व के सभी धर्मों व सम्प्रदाय के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इसीलिये आज पूरी पृथ्वी पर हज़रत हुसैन के चाहने वाले व उनका ग़म मनाने वाले मिल जायेंगे।
आज इस्लाम को बदनाम करने व इसपर आतंकवाद का लेबल चिपकने की विश्वव्यापी कोशिशें की जा रही हैं। ऐसे में इस बहस पर चर्चा होना लाज़िमी है कि इस्लाम का वास्तविक संरक्षक व मार्गदर्शक कौन है ? क्या सिर पर इस्लामी टोपी पहनने से,क़ुरआन की आयतें पढ़ने से,हाफ़िज़ व क़ारी बनने से,मुफ़्ती व मौलवी कहलाने से अज़ान,नमाज़ व रोज़े अदा करने,कलमा पढ़ने,हज,ज़कात अदा करने आदि के आधार पर किसी को सच्चा मुसलमान कहा जा सकता है ? यदि मुसलमान होने के लिये उपरोक्त दलीलें काफ़ी हैं फिर तो करबला में यज़ीदी सेना के सिपाही व अधिकारी भी उस समय के नमाज़ी, क़ारी, कल्मागो, हाजी,हाफ़िज़ व रोज़दार थे ? यदि यही बातें किसी को सच्चा मुसलमान बनाती हैं फिर तो अलक़ायदा में भी सभी लंबी दाढ़ी रखने वाले नमाज़ी व हाजी,हाफ़िज़ क़ारी मिलेंगे ? आई एस आई एस में भी ऐसे ही ‘वेशधारी’ मुसलमान मिल जायेंगे ? फिर तो क्रूर तालिबानियों का भी सच्चा मुसलमान कहने का दवा सही है ? पाकिस्तान से लेकर भारत व बांग्लादेश और भी कई देशों में ऐसे ही संगठनों द्वारा इस्लाम व मुसलमान के नाम पर किये जा रहे आतंकी हमलों को भी क्या इस्लामी शिक्षा से प्रेरित कहा जा सकता है ? जैसा कि वैश्विक स्तर पर प्रयास भी किया जा रहा है ?
जी नहीं, यज़ीद से लेकर अलक़ायदा,आई एस और तालिबानों जैसे अनेक आतंकी संगठन सभी लगभग एक ही विचारधारा से प्रेरित हैं। यह इस्लाम और मुसलमानों का नाम केवल इसलिये लेते हैं ताकि इस्लामी जगत को धोखे में रखकर उसका नैतिक समर्थन हासिल किया जा सके । इनका वजूद पूर्णतयः राजनैतिक मक़सदों को हासिल करने के लिये है। इन्हें सत्ता चाहिये और सत्ता का विस्तार चाहिये। करबला में हज़रत हुसैन ने अपने समय के सर्वशक्तिशाली चरित्रहीन सीरियाई शासक यज़ीद को इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने व उसे इस्लामी शासक स्वीकार करने से इसीलिये इनकार कर दिया था ताकि इतिहास इस बात का गवाह रहे कि हज़रत मुहम्मद के इस्लामी सिद्धांत किसी दुश्चरित्र अपवित्र अहंकारी व ज़ालिम बादशाह को इस्लामी सल्तनत का बादशाह स्वीकार करने की क़तई इजाज़त नहीं देते। इसीलिये हज़रत हुसैन ने इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिये यज़ीदी आतंक व यज़ीदी विचारधारा के विरुद्ध जिहाद किया था। नतीजतन हज़रत हुसैन को अपने पूरे कुंबे की क़ुरबानी देनी पड़ी थी ?
आज भी दुनिया के अनेक देश या तो आतंकी संगठनों की गिरफ़्त में हैं,या वहां ऐसी ही विचारधाराओं के लोग सत्ता में हैं। और जिस वर्ग का भी व्यक्ति या जमाअत इन्हें बेनक़ाब करती है, जो भी इनका ‘यज़ीदी कनेक्शन’ सार्वजनिक करते हैं यह उनकी जान के दुश्मन बन जाते हैं। ये मस्जिदों,दरगाहों, ईमामबारगाहों ,जुलूस व मीलाद पर होने वाले हमले,मस्जिदों में व मुहर्रम के जुलूसों में हो रहे आत्मघाती हमले,वक़्त वक़्त पर आतंकी संगठनों द्वारा घोषित फ़र्ज़ी जिहाद,यह सब यज़ीदी विचारधारा को पोषित करने वाले संगठनों व उनसे जुड़े लोगों के काम हैं। परन्तु चूँकि यह लोग अपनी सभी अमानवीय गतिविधियां इस्लाम का नाम लेकर और हाथों में इस्लामी कलमा लिखा झंडा लेकर अंजाम देते हैं इसलिये पारम्परिक रूप से इस्लाम विरोधी पूर्वाग्रह रखने वाला विश्व का एक बड़ा वर्ग इसे इस्लामी शिक्षा व समग्र मुस्लिम कृत्य के रूप में पेश करता है।
जबकि दरअसल असली जिहाद तो करबला में हज़रत हुसैन को उन्हीं ज़ालिम ताक़तों के विरुद्ध करना पड़ा था जो इस्लामी चोले में छुपकर इस्लाम पर नियंत्रण हासिल करना चाह रहे थे। परन्तु हुसैन ने एक अज़ीम क़ुरबानी पेशकर दुनिया को यह बता दिया कि असली इस्लाम,बादशाहों,तानाशाहों व शासकों का नहीं बल्कि मुहम्मद के घराने वालों का है। आज भी जो इस्लाम, सल्तनत की सियासत में उलझा है दरअसल वह इस्लाम नहीं बल्कि पैग़ंबरों,रसूल,इमामों,फ़क़ीरों,सूफ़ियों,त्यागी,तपस्वी व वास्तविक अध्यात्म वादियों द्वारा पोषित इस्लाम ही सच्चा इस्लाम है। ग़ज़नवी से लेकर सद्दाम,लादेन,मुल्ला उमर और ग़द्दाफ़ी तक ऐसे अनेक आतंकी,आक्रांता व तानाशाह लोगों ने धर्म के नाम का दुरूपयोग केवल अपनी सत्ता को बचाने या विस्तार के लिये किया। जबकि वास्तविक इस्लाम करुणा,प्रेम,भाईचारा,शांति,अहिंसा और सद्भाव पेश करता है। और हज़रत मुहम्मद के इसी सच्चे इस्लाम की रक्षा के लिये उनके नवासे हज़रत हुसैन ने करबला में 72 लोगों की शहादत देकर आतंक के विरुद्ध जिहाद की सबसे बड़ी मिसाल पेश की थी।