नीतीश सरकार को कहीं भारी न पड़ जाए पंचमेवा की सरकार

डॉ. संजय कुमार श्रीवास्तव

बिहार में 5 साल बाद फिर से नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने भाजपा से अपना नाता तोड़ लिया है। जेडीयू के सांसदों और विधायकों की मीटिंग के बाद बीजेपी से गठबन्धन तोड़ने की घोषणाा की गयी। और अब जदयू नेताओं के साथ नीतीश तेजस्वी यादव के साथ राजभवन जायेगे। नीतीश सरकार को राजद, कांग्रेस और वामदलों ने समर्थन देने के लिए पत्र भी तैयार कर लिया है।
कांग्रेस विधायक शकील अहमद खान का कहना है कि नीतीश कुमार महागठबन्धन के मुख्यमंत्री होगे और सबकुछ तय हो गया है। सवाल उठता है, आखिर पंचमेवा की सरकार और वो भी कांग्रेस के साथ कितने दिन चल पायेगी। अगर हम इतिहास को उठाकर देखें तो पाते हैं चाहे वो उत्त्र प्रदेष में सपा के साथ गठबन्धन हो या महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ गठबन्धन हो सभी जगहों पर कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों की लुटिया डुबोई है। बिहार के सियासी उठापटक् की बात करे तो देखते हैं कि यहां पर भी पंचमेवा (आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस, लेफ्ट और निर्दलीय) की सरकार बन रही है।

अब आइये जानते हैं नीतीष के मन में बीजेपी के लिए खटास क्यों पैदा हुआ। पहली बाद नीतीष बीजेपी से तब नाराज हुये जब विधानसभा भवन के षताब्दी वर्ष समारोह के समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बिहार आये थे। कार्यक्रम का सारा खर्च बिहार सरकार ने किया था लेकिन नीतीष कुमार की फोटो कहीं भी नहीं लगाई गई। फोटो लगी भी तो बीजेपी कोटे के विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा और नरेन्द्र मोदी का लगी। दूसरा जब पुस्तिका का लोकार्पण किया जा रहा था उसमें भी नीतीष कुमार का फ ोटो नहीं लगाया गया। बीजेपी के इस रवैये से नीतीष बहुत नाराज हुए।

नीतीश कुमार के नाराजगी के दूसरे भी कारण रहे हैं जिसमें बीजेपी के मंत्री, विधायक और नेता कहीं न कहीं उन्हें और उनकी पार्टी को तीसरे नम्बर की पार्टी मानते थे साथ ही उन्हे अहसास भी कराते रहते रहते थे कि अगर वो बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं तो सिर्फ बीजेपी की कृपा से ही बने हैं। नीतीश कुमार बीजेपी के साथ रहते हुए केन्द्र सरकार के फैसले न तो स्वीकार कर पा रहे थे और न ही विरोध कर पा रहे थे।

तल्खी का ये आलम कि नीतीश कुमार ने धीरे-धीरे दूरी बनानी शुरू कर दी समय-समय पर जब भी दिल्ली मीटिंग के लिए बुलाया गया वो नहीं गये। हद तो तब हो गयी जब जब गृहमंत्री अमित शाह ने सभी एनडीए शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को तिरंगा झंडा फहराने की बैठक के लिए बुलाया गया परन्तु नीतीश कुमार नहीं गये। यहां तक कि जब पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के विदाई समारोह में उनके सम्मान में भोज का निमंत्रण दिया गया उस समय भी नीतीश कुमार नहीं पहुंचे। अगर मन में किसी के प्रति खटास उत्पन्न हो जाये तो इन्सान अपनों से भी दूरियां बना लेता है। यही नीतीश कुमार ने भी किया। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में नीति आयोग की बैठक होनी थी इस बैठक में सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को शामिल होना था परन्तु नीतीश कुमार इस बैठक में नहीं आये।

अतः अब सवाल ये भी उठता है कि इस तरह का गठबन्धन करने की जरूरत पार्टियों को क्यों पड़ती है। आखिर जोड़-तोड़ की राजनीति की आवश्यकता पड़ता है। प्रश्न का उत्तर अगर खोजें तो यही मिलता है कि आज की राजनीति सिर्फ और सिर्फ मौका परस्त की राजनीति है। नेताओं को जनता से कोई मतलब नहीं हैं। आज राजनीति में देखें तो ऐसा लगता है जितने नेता हैं उनमें से अधिकतर सरकारी पैसा को लूटने के लिए आते हैं। अभी हम ताज़ा उदाहरण के तौर पर बंगाल, महाराष्ट्र और दिल्ली के नेताओं के घरो से मिल रहे नोटों की गड्डियां कम से कम तो यही बता रही है। आज जनता मंहगाई से परेशान है लेकिन पार्टियां जीडीपी बताकर वाहवानी लूट रही है। लेकिन आम जनता को जीडीपी से कोई मतलब नहीं है आम जनता तो सीधे-साधे षब्दों में सिर्फ ये जानती है कि मंहगाई कितने रूपये बढ़ रही है।

बिहार की राजनीति हो या पूरे देश की राजनीति हो प्रत्येक जगह पर कहीं न कहीं तुष्टिकरण की राजनीति हो रही है। मेरा खुद का अनुभव ये है कि वहां के सरकारी महकमों में कोई लगाम नहीं हैै। दूसरे प्रदेश की बात करें तो सरकारी स्कूलों में शुक्रवार की छुट्टी कर दी जा रहीे हैॅ और सरकार को पता ही नहीं। सरकारी स्कूलों में उर्दू माध्यमिक विद्यालय लिखवा दिया जा रहा है और प्रशासन सो रहा है। आज का नेता इस देश के लिए नेता नहीं बनता है आज का नेता सिर्फ अपने सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए बनता है।
देश की जनता इन नेताओं से पूछना चाहती है क्या आपके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं क्या आपके घरवालों का इलाज सरकारी अस्पतलों में होता है। इसका जवाब उनके पास नहीं हैं क्योंकि वो अच्छी तरह जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में अगर उनके बच्चे पढ़ेंगे तो शायद उनके बच्चे क्लर्क भी न बन पाये और अगर अस्पतालों में इलाज के लिए गये तो पता नहीें जिदा वापस आयेंगे भी या नहीं।

बिहार में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। जिसकों जहां मिल रहा है लूट रहा हैॅ नही तो बिहार के पास जितनी खनिज सम्पदा थी उस खनिज सम्पदा से वो आज देश का नम्बर वन प्रदेश होता। लेकिन सच्चाई ये है कि बिहार में इस सरकारी खनिज सम्पदा को अपना मालिकाना हक समझाा और उसपर माफियाओं को वर्चस्व कायम हो गया। बिहार में ऊॅंची और नीची जाति के भेद-भाव को खत्म करने का प्रयास नहीं किया गया बल्कि जातिवादी राजनीति को और बढ़ावा दिया गया ताकि उसे वोट में परिवर्तित किया जा सके। परन्तु अब समय आ गया है वोट की राजनीति से ऊपर उठकर देश की जनता के बारे में सोचना होगा अन्यथा आने वाले 50 सालों के बाद भी हम उसी जगह खड़े होंगे जहां पर हम आज हैं। फर्क सिर्फ इतना होगा राजनीति जहां पहले बिना तकनीकी के सहगयोग के किया जाता था वहीं आज राजनीति तकनीकी के सहयोग से किया जा रहा है। तकनीकी का प्रयोग अगर सही तरीके से न किया जाये तो वो स्वयं के लिए तो घातक होता ही है देश के लिए भी घातक हो जायेगा।

आज राजनीतिक गठबन्धन करते समय इस बात को तवज्जों नहीं दिया जाता कि कुछ समय पहले कोई दोस्त था या दुश्मन । इस बात पर जोर दिया जाता है कि मौके की नजाकत क्या है। मौके की नजाकत को देखते हुए जो दुश्मन होते हैं उन्हें भी दोस्त बना लिया जाता है। चुनाव के समय किसी पार्टी का जो सबसे बड़ा दुश्मन होता है चुनाव के बाद वही उसका सबसे करीबी दोस्त बन जाता है। हम देश की राजनीति में आज हो रहे बदलावों को देख सकते हैं और हम देश की राजनीती को किस दिशा में ले जा रहे हैं। इस तरह की राजनीति का परिणााम हम महाराष्ट्र और बिहार जैसे अन्य प्रदेशों में देख सकते है। आज जनता को ठगा जाता है क्योंकि जो जनता जिस पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए किसी दूसरे पार्टी को वोट करती है बाद में पार्टियां एक दूसरे से मिलकर जोड़-तोड़ कर सरकार बना लेती हैं। यहीं तो हैं पंच मेवा की सरकार, और पंचमेवा की सरकार कहीं नीतीश सरकार को भारी न पड़ जाए।