ललित गर्ग
एक दूसरे से जुड़े रहकर जीवन को खुशहाल बनाना और दिल में जादुई संवेदनाओं को जगाना है तो उनके लिये एक रिश्ता है दोस्ती का। मित्र, सखा, दोस्त, फ्रेड, चाहे किसी भी नाम से पुकारो, दोस्त की कोई एक परिभाषा हो ही नहीं सकती। हमें तन्हाई का कोई साथी चाहिए, खुशियों का कोई राजदार चाहिए और गलती पर प्यार से डांटने-फटकराने वाला चाहिए । यदि यह सब खूबी किसी एक व्यक्ति में मिले तो निःसन्देह ही वह आपका दोस्त होगा। वही दोस्त, जिसके रिश्ते में कोई स्वार्थ या छल-कपट नहीं बल्कि आपके हित, आपके विकास, आपकी खुशियों के लिये जिसमें सदैव एक तड़फ एवं आत्मीयता रहेगी।
इसी दोस्ती के नाजुक रिश्ते में खुशियों के रंग भरने के लिये फ्रेण्डशिप दिवस अगस्त माह के प्रथम परिवार को मनाया जाता है। यो तो भारतीय संस्कृति और इतिहास में त्योहारों की एक समृद्ध परम्परा है। किसी-न-किसी धर्म और सम्प्रदाय से जुड़कर वर्ष का हर दिन कोई-न-कोई पर्व, त्योहार या दिवस होता है। हमने फ्रेण्डशिप दिवस जैसे अनेक नये या आयात किये हुई पर्व एवं दिवसों को हमारी संस्कृति और जीवनशैली का हिस्सा बना लिया है। फ्रेण्डशिप दिवस यानी मित्रता दिवस, सभी गिले-शिकवे भूल दोस्ती के रिश्ते को विश्वास, अपनत्व एवं सौहार्द की डोर से मजबूत करने का दिन।
मित्रता शब्द बड़ा व्यापक और मोहक है। कितना प्यारा शब्द है यह। तीन अक्षरों का एक शब्द समूचे संसार को अपने साथ समेट लेने वाला, दूसरों को, अनजान-अपरिचितों को, अपने निकट लाने वाला यह अचूक वशीकरण मंत्र है। मित्रता हमारी संस्कृति है। संपूर्ण मानवीय संबंधों का व्याख्या-सूत्र है। लुइस एल. काफमैन ने कहा है कि मित्रता का बीज बोएं, खुशियों का गुलदस्ता पाएं। जबकि देखने में यह आ रहा है कि हम मित्रता का बीज बोने का वक्त ही नहीं तलाश पा रहे है। दोस्ती की खेती खुशियों की फसल लेेकर आती है, लेकिन उसके लिये पारम्परिक विश्वास की जमीन और अपनत्व की ऊष्णता के बीज भी पास में होने जरूरी है।
वास्तव में मित्र उसे ही कहा जाता है, जिसके मन में स्नेह की रसधार हो, स्वार्थ की जगह परमार्थ की भावना हो, ऐसे मित्र सांसों की बांसुरी में सिमटे होते हैं, ऐसे मित्र संसार में बहुत दुर्लभ हैं। श्रीकृष्ण और सुदामा की, विभीषण और श्रीराम की दोस्ती इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। मित्रता दिवस की सार्थकता को सिद्ध करने के लिये हिन्दू धर्म में अनेक उदाहरण उपलब्ध है। हिंदू धर्म मित्रता को महत्व देता है, भारतीय पौराणिक कथाओं में ऐसे कई उदाहरण हैं जो किसी भी मित्रता के लिए प्रेरणा माने जाते हैं। भारतीय महाकाव्यों में भगवान ‘श्रीकृष्ण’ को सर्वश्रेष्ठ ‘सखा’ माना जाता है। वह सबसे अच्छा दोस्त है, जो अपने सभी दोस्तों के लिए तब खड़ा हुआ जब उन्हें उनकी ज़रूरत थी, चाहे वह द्रौपदी हो, अर्जुन हो या सुदामा हो।
जाति, धर्म या सामाजिक स्थिति की कोई सीमा न जानने वाला एक समृद्ध बंधन प्रदर्शित करने वाला दोस्ती का शाश्वत बंधन श्रीकृष्ण और सुदामा का है। ऐसा कहा जाता है कि उस समय समाज को विभाजित करने वाली एक बड़ी सामाजिक-आर्थिक खाई के बावजूद, दोनों सबसे अच्छे दोस्त थे। ऐसा माना जाता है कि एक बार सुदामा गंभीर गरीबी से जूझ रहे थे, गरीबी से लड़ने के लिए अपनी पत्नी के आग्रह पर, उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के लिए एक विनम्र उपहार लेकर द्वारका की यात्रा की। यह इशारा उन दोनों के बीच साझा किए गए अमर बंधन का सम्मान करने के लिए एक स्मृति चिन्ह के समान था। सुदामा की पत्नी ने अपने बच्चों को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन न होने के बावजूद सुदामा के प्रिय मित्र के लिए थोड़ी मात्रा में चावल एक पौटली में बांधकर दिये। भगवान श्रीकृष्ण अपने बचपन के मित्र से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उपहार में लाये चावल का स्वाद चखा और इसे अब तक का सबसे मीठा भोजन बताया। यह दोस्ती का एक अनूठा और प्रेरक उदाहरण है।
इसी तरह कर्ण और दुर्याेधन महाभारत में खलनायक हो सकते हैं, लेकिन उनके सबसे बड़े दुश्मन भी यह स्वीकारते है िकवे दोस्ती की एक अद्भुत मिसाल है, किंवदंतियों में कहा गया है कि भले ही दुर्याेधन अपने स्वार्थ के लिए कर्ण से मित्रता करना चाहता था, लेकिन उनके बीच का मिलन मित्रता के सबसे ज्यादा याद किए जाने वाले चित्रणों में से एक बन गया। उस समय, हस्तिनापुर जाति और भेदभाव की वास्तविकताओं से जूझ रहा था, अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध के बीच दुर्याेधन ने कर्ण को अंगा का राजा नियुक्त करके परंपराओं और मानदंडों को चुनौती दी। कुशल होते हुए भी कर्ण के पास उचित वंश का अभाव था, जिससे कृपा की दृष्टि में उसकी उम्मीदवारी निरर्थक हो गई, जिन्होंने कर्ण की जाति जानने पर उसका मजाक उड़ाया था। इसे महसूस करते हुए, दुर्याेधन ने उसे अंगा के राजा के रूप में नियुक्त किया, इसलिए उसे शक्ति की लड़ाई में अर्जुन के बराबर माना गया।
रामायण में, भले ही त्रिजटा को रावण के एजेंट के रूप में दर्शाया गया है, लेकिन त्रिजटा भी भगवान श्रीराम की जीत की कामना करती है। वह सीता की सभी प्रतिकूलताओं में मदद करती है और उन्हें बाहरी दुनिया की खबरों से अवगत कराकर उन्हें सांत्वना प्रदान करती है। लोककथाओं के अनुसार, रावण की मृत्यु के बाद, त्रिजटा को सीता और श्रीराम ने उसकी सच्ची साथी होने के लिए पुरस्कृत किया था। त्रिजटा को स्थानीय देवी के रूप में सम्मान देते हुए, उज्जैन और वाराणसी में उनकी पूजा की जाती है। रामचरित में ही एक प्रसंग आता है। जब विभीषण श्रीराम की तरफ से रावण के साथ युद्ध करने आता है तो रावण को बहुत क्रोध आ जाता है। वह कहता है, तू मेरा भाई होकर भी शत्रु की तरफ से लड़ रहा है, तो पहले तुझे ही खत्म करूंगा। क्रोध में अंधा होकर रावण विभीषण पर शक्ति प्रहार करने लगता है, तब पीछे खड़े लक्ष्मण विभीषण के आगे आ जाते हैं- कहते हैं यह शक्ति का प्रहार मैं झेलूंगा। तुम हमारे शरणागत हो, मित्र हो, तुम पर संकट नहीं आना चाहिए। तुम्हारा संकट हम झेलेंगे और आखिर विभीषण को बचाने के लिए लक्ष्मण रावण की शक्ति प्रहार झेल लेते हैं। तो यह है मित्रता। मित्र के प्राणों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की परवाह नहीं करना।
मित्रता दिवस मनाने का मूल हार्द यही है कि दोस्ती में विचार-भेद और मत-भेद भले ही हों मगर मन-भेद नहीं होना चाहिए। क्योंकि विचार-भेद क्रांति लाता है जबकि मन-भेद विद्रोह। क्रांति निर्माण की दस्तक है, विद्रोह बरबादी का संकेत। स्वस्थ निमित्तों की शृंखला में मित्रता का भाव बहुत महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति बिना राग-द्वेष निरपेक्ष भाव से सबके साथ मित्रता स्थापित करता है, सबके कल्याण का आकांक्षी रहता है, सबके अभ्युदय में स्वयं को देखता है उसके जीवन में विकास के नए आयाम खुलते रहते हैं। मित्रता का भाव हमारे आत्म-विकास का सुरक्षा कवच है। आचार्य श्री तुलसी ने इसके लिए सात सूत्रों का निर्देश किया। मित्रता के लिए चाहिए-विश्वास, स्वार्थ-त्याग, अनासक्ति, सहिष्णुता, क्षमा, अभय, समन्वय। यह सप्तपदी साधना जीवन की सार्थकता एवं सफलता की पृष्ठभूमि है। विकास का दिशा-सूचक यंत्र है।
प्रश्न उभरता है, आज मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री-भाव का इतना अभाव क्यों? क्यों है इतना पारस्परिक दुराव? क्यों है वैचारिक वैमनस्य? क्यों मतभेद के साथ जनमता मनभेद? ज्ञानी, विवेकी, समझदार होने के बाद भी आए दिन मनुष्य लड़ता झगड़ता है। विवादों के बीच उलझा हुआ तनावग्रस्त खड़ा रहता है। न वह विवेक की आंख से देखता है, न तटस्थता और संतुलन के साथ सुनता है, न सापेक्षता से सोचता और निर्णय लेता है। यही वजह है कि वैयक्तिक रचनात्मकता समाप्त हो रही है। पारिवारिक सहयोगिता और सहभागिता की भावनाएं टूट रही हैं। सामाजिक बिखराव सामने आ रहा है। धार्मिक आस्थाएं कमजोर पड़ने लगी हैं। आदमी स्वकृत धारणाओं को पकड़े हुए शब्दों की कैद में स्वार्थों की जंजीरों की कड़ियां गिनता रह गया है।