अनुज अग्रवाल
कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत व चीन के सैनिकों के बीच तवांग में हुई झड़प के बीच लगातार मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि मोदी सरकार की लचर विदेश नीति के कारण चीन की सेना ने भारतीय सैनिकों की पिटाई कर दी है व चीन भारत की दो हज़ार किलोमीटर भूमि और दबाकर बैठा है किंतु सरकार कुछ भी नहीं कर रही क्योंकि मोदी चीन से डरते हैं। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने राहुल गांधी की ग़लत भाषा व आरोपों की संसद में आलोचना की थी व विदेश नीति के मुद्दों पर संयत दृष्टिकोण अपनाने के लिए कहा था।हाल ही में अपने साक्षात्कार में रूसी राष्ट्रपति ने वैश्विक मामलों में भारत की भूमिका प्रभावी होते जाने की भविष्यवाणी की थी तो अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने भी माना है कि रूस ने भारत की सलाह पर यूक्रेन में परमाणु हमला नहीं किया। उधर यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने प्रधानमंत्री मोदी से बात की है व युद्ध समाप्त करवाने में मदद की गुहार लगायी है। चीन के विदेश मंत्री ने भी हाल ही में बयान जारी कर भारत से सामान्य संबंध बनाए रखने पर ज़ोर दिया है। दुनिया के लगभग सभी बड़े देश जी – 20 की भारत की अध्यक्षता को वैश्विक शांति के लिए बड़ी आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं। इन सभी घटनाक्रमों के बीच राहुल गांधी का बयान फुसफुसा व दिशाहीन नज़र आता है व स्पष्ट करता है कि भारत का विपक्ष विपरीत वैश्विक परिस्थितियों के बीच भी नकारात्मक राजनीति कर रहा है।
“सबका साथ, सबका विकास व सबका विश्वास” की मोदी सरकार की नीति व इसके ज़मीनी प्रभाव सर्वत्र दिख रहे हैं व पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे व तनाव की घटनाओं में प्रभावी कमी आयी है। अल्पसंख्यक समुदाय का विश्वास बीजेपी पर बढ़ रहा है व बीजेपी उन इलाको में भी जीत रही है जो अल्पसंख्यक बहुल हैं। इस सबके बाद भी अपनी राजनीति विश्वसनीयता पुन: बहाल करने को कोशिश में राहुल गांधी “भारत जोड़ो यात्रा “ के नाम पर नफरत व विभाजन की राजनीति अधिक करते दिख रहे हैं। हिंदू बहुल देश में सनातन संस्कृति व राष्ट्रवादी लोगों वि संगठनों को गाली देकर वे अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस की वही पुरानी “ बांटो और राज करो” की राजनीति को ही फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहे दिखते हैं।आसन्न लोकसभा चुनावों के पूर्व यह राजनीति कहीं फिर से देश को घातक सांप्रदायिक विभाजन व संघर्ष की ओर न धकेल दे। ऐसे में मोदी सरकार इस चुनौती का सामना किस कुशलता से कर पाती है और वैश्विक व कूटनीतिक मामलो में कितनी प्रभावी भूमिका निभा पायेगी यह आने वाला समय बताएगा।
कांग्रेस पार्टी व अन्य सभी विपक्षी दलों को समझना होगा कि देश में अल्पसंख्यकवाद की राजनीति के दिन लद गए हैं और जिस दिखाबटी नरम हिंदुत्व की राजनीति वे कर रहे हैं उसका बहुसंख्यक हिंदुओ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। हाल ही के हिमाचल व गुजरात के विधानसभा चुनावों के परिणाम इसके द्योतक हैं। सत्ताईस वर्षों के शासन के बाद भी बीजेपी तीन चौथाई से भी अधिक बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो पाई यद्यपि कांग्रेस व आम आदमी पार्टी पर्दे के पीछे सीट बंटवारे के खेल के बाद चुनाव लड़ रहीं थीं। हिमाचल में आम आदमी पार्टी द्वारा बीच में ही लड़ाई से बाहर होने के बाद भी कांग्रेस बीजेपी के विद्रोही उम्मीदवारों के कारण जैसे तैसे जीत पाई है । अगर बीजेपी के मिले वोटो व बागियो के वोटों को मिला लें तो ये 52% तक पहुँच जाते हैं। बीजेपी को अपने टिकट बंटवारे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना होगा व असंतुष्टों को मनाने की प्रभावी रणनीति बनानी होगी जिससे उसका राष्ट्रवादी वोट बैंक बंट न पाये। दिल्ली के एमसीडी चुनावों में यद्यपि बीजेपी हार गई किंतु किनारे पर मिली जीत ने दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार की तेजी से घटती लोकप्रियता व सुशासन के तथाकथित दिल्ली मॉडल की पोल खोलकर रख दी है।
भारत के विपक्षी दलों की एक बड़ी खामी आपसी एकता की कमी तो है ही , साथ ही उनके पास वैकल्पिक नीतियों व कार्यक्रमों की भारी कमी है। लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व को ममता बनर्जी, केसीआर व अरविंद केजरीवाल के साथ साथ नीतीश कुमार व अखिलेश यादव भी दे सकते हैं। विपक्ष शासित राज्य ऐसा कोई मॉडल नहीं दे पाये जैसा की बीजेपी ने गुजरात व मध्य प्रदेश में दिया वि अब उत्तर प्रदेश में दे रहे हैं। विपक्ष के पास बिगड़ती वैश्विक परिस्थितियों के बीच जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकट, कोरोना महामारी, आर्थिक मंदी व विश्व युद्ध के आसन्न संकट से निपटने की कोई दृष्टि व नीति नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अपने आप बढ़त ले जाती है। अगर विपक्ष एक हो जाता है व बड़ा आंदोलन कर मोदी सरकार को घेर पाया तो ही स्थिती उसके पक्ष में बदल जायेंगी, हो सकता है तब मोदी सरकार पाकिस्तान व चीन के मुद्दे पर आक्रामक हो राष्ट्रवाद का मुद्दा गरम कर बाज़ी पलटने की कोशिश करेंगे।
निश्चित रूप से देश व दुनिया के लिए आगामी वर्ष बहुत चुनौतीपूर्ण व संघर्षमय होने जा रहा है। नई विश्व व्यवस्था के आकार लेने के क्रम में रूस की पूरी कोशिश नाटो व ईयू को कमजोर व बर्बाद करने की है व पूर्व के यूएसएसआर को बहाल करने की है। तो चीन व अमेरिका के बीच का व्यापार युद्ध व जैविक युद्ध भी अब प्रत्यक्ष युद्ध के रूप में सामने आ सकता है। उभरता चीन अमेरिका को चुभ रहा है। अमेरिका को लगता है कि चीन वि रुस मिलकर उसे व नाटो को अप्रासंगिक कर सकते हैं। इसीलिए वह लगातार रुस व चीन की घेराबंदी कर नाटो देशों के साथ मिलकर उन्हें बर्बाद करने पर तूला है। रूस – यूक्रेन युद्ध में उलझा आर्थिक रूप से बदहाल हो रहा यूरोप का हर देश लगातार आंतरिक विरोध प्रदर्शनों से दो चार है और जैसा की उम्मीद है कि तेल – गैस का संकट व आर्थिक मंदी के बीच वह शीघ्र रुस के सामने घुटने टेक सकता है। अमेरिका ऐसा कभी नहीं चाहेगा और वह अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए युद्ध के कई मोर्चे खोलता जाएगा व दुनिया को विश्व युद्ध की ओर धकेल देगा। अमेरिका की अपनी आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है व बाइडेन मध्यावधि चुनावों के हारने के बाद से बैकफुट पर हैं। जैसे जैसे रिपब्लिकन पार्टी व पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप आगामी राष्ट्रपति चुनावों के लिए आक्रामक होंगे वैसे वैसे बाइडेन कूटनीति व युद्ध के मोर्चे पर आक्रामक हो अमेरिकी जनमत को अपने पक्ष में करने कोशिश करेंगे। कोरोना के महाविस्फोट के बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी जनता का ध्यान भटकाने के क्रम में ताइवान मुद्दे पर आक्रामक हैं तो उधर रुस- चीन का पिट्ठू उत्तरी कोरिया भी।इसके अतिरिक्त अपने अपने कारणों से दुनिया में छोटे छोटे अनेक वार फ़्रंट खुलते ही जा रहे हैं। निश्चित रूप से ये सभी महाशक्तियों की कुटिल नीतियों के कारण ही खुल रहे हैं। इन सभी छोटे बड़े संघर्षों का समग्र रूप “ विश्व युद्ध “ बन सकता है। कोरोना व जलवायु परिवर्तन जितना घातक होता जाएगा, सप्लाई चैन जितना अधिक बिगड़ेगी, आर्थिक मंदी जितनी बढ़ती जाएगी, देशों में आंतरिक आक्रोश व संघर्ष जितना बढ़ेगा चीन – अमेरिका में जितना अविश्वास बढ़ेगा व यूरोप में चल रहा संघर्ष जितना रुस के पक्ष में झुकेगा दुनिया उतनी ही विश्व युद्ध के निकट आती जाएगी। यह संघर्ष व विश्व युद्ध मानवता को वृहद् रूप में या मूल नष्ट कर देगा अथवा एक समतापूर्ण विश्व व्यवस्था को जन्म देगा इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।