निर्मल रानी
गैंगस्टर एवं राजनीतिज्ञ अतीक़ अहमद एवं उसके भाई अशरफ़ अहमद की इलाहाबाद में पुलिस हिरासत में पिछले दिनों बड़े ही रहस्य्मयी तरीक़े से हत्या कर दी गयी। बावजूद इसके कि अतीक़ का एक लंबा आपराधिक रिकार्ड था फिर भी जिस तरह हत्यारों ने बड़ी आसानी के साथ पुलिस हिरासत की परवाह किये बिना अतीक़ अहमद के सिर में गोली मारी एवं उसके भाई अशरफ़ की भी बिल्कुल क़रीब से गोली मारकर हत्या की उसे लेकर पुलिस की चौकसी पर सवाल उठना स्वभाविक है। सवाल उठाया जारहा है कि अतीक़ व अशरफ़ के हत्यारों ने जब लगभग 22 सेकेंड तक इन दोनों पर आधुनिक हथियारों से गोलियां बरसाईं और उनपर 29 गोलियां दाग़ीं इसके बावजूद सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्यारों पर जवाबी फ़ायरिंग क्यों नहीं की गयी ? इस गोलीबारी में अतीक़ अहमद को आठ गोलियां लगीं जबकि अशरफ़ अहमद को नौ गोलियां लगीं । ख़बरों के अनुसार गोलीबारी अंजाम देने के 22 सेकेंड बाद हमलावरों ने अपने हथियार स्वयं ज़मीन पर फेंक दिये और अपने हाथ ऊपर उठाकर आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद पुलिस उन्हें बड़ी तत्परता से गाड़ी में बिठाकर घटनास्थल से चलती बनी। उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में यहां तक कि जेल और अदालतों में हत्याएं होना कोई नई बात नहीं है। इसी इलाहाबाद में उच्च न्यायालय परिसर में 25 सितंबर 1981 को लटूरी सिंह नमक एक विधायक को गोली मार दी गयी थी। जिस समय लटूरी सिंह पर गोलियां बरसाई गयीं उस समय कम से कम 50 सशस्त्र पुलिसकर्मी उसकी सुरक्षा के लिये उसकेसाथ व उच्च न्यायालय परिसर में तैनात थे। उसके बावजूद लटूरी सिंह को गोली मार दी गई थी। उस समय केवल एक हमलावर को ही मौक़े से गिरफ़्तार किया जा सका था जबकि शेष 13 हमलावर फ़रार हो गये थे। इसके इलावा भी ऐसी दर्जनों घटनायें प्रदेश में हो चुकी हैं। परन्तु ऐसी हर घटना के बाद पुलिस की ‘कारगुज़ारी ‘ पर संदेह भी जताए जाते रहे हैं।
अतीक़ व अशरफ़ की हत्या जिस आसानी से की गयी व पुलिस एक तरह से मूक दर्शक बनी देखती रही उससे कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। इनमें एक संदेह यह भी किया जा रहा है कि अदालती आदेश के अनुसार अतीक़ को पुलिस कस्टडी में इसलिये रखा गया था ताकि पुलिस उमेश पाल हत्याकांड की जांच के अलावा अतीक़ के आपराधिक साम्राज्य के और गहरे राज़ जान सके। परन्तु उसकी हत्या से वह रहस्य तो उसके साथ ही दफ़्न हो गये ? वैसे भी इस हत्याकांड ने वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के उन दावों की भी हवा निकाल कर रख दी है जिसमें वे यू पी में क़ानून व्यवस्था चाक चौबंद होने की बात करते हैं। अदालती आदेश पर पुलिस हिरासत में सौंपे गये एक गैंगस्टर की सुरक्षा जो पुलिस सुनिश्चित नहीं कर सकती वह क़ानून व्यवस्था चाक चौबंद होने का दावा कैसे कर सकती है। अभी गत सोमवार को ही जालौन में बाइक सवार गुंडों ने स्कूल से परीक्षा देकर वापस आ रही एक बी ए की छात्रा की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी। बाइक सवार हमलावरों ने उसके सिर में पिस्टल लगाकर गोली चलायी जिससे उसका सिर ही फट गया। यह है योगी राज में क़ानून व्यवस्था का आलम और बेटियों को संरक्षण देने के दावों की सच्चाई ?
बहरहाल इसी उत्तर प्रदेश में कानपुर के निकट बिकरू गांव में 2 जुलाई 2020 की रात एक दिल दहलाने वाला हादसा हुआ था। उत्तर प्रदेश पुलिस बल उस दिन गैंगस्टर विकास दुबे को पकड़ने के लिए छापेमारी करने बिकरू गांव गई थी। तभी विकास दूबे व उसके साथियों ने पूरे पुलिस बल पर गोलियों की बौछार कर दी। इस गोली काण्ड में एक डी एस पी व एक थानेदार सहित 8 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गयी थी। इस घटना के बाद विकास दूबे के कई साथी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे। उसका घर बुलडोज़र से गिरा दिया गया था। परन्तु इस पूरे प्रकरण में सबसे चर्चित मोड़ तब आया था जबकि यू पी पुलिस विकास दुबे को उज्जैन के महाकाल मंदिर से गिरफ़्तार कर सड़क मार्ग से कानपुर ला रही थी। और कानपुर के क़रीब पहुंचकर पुलिस ने उसे ‘मुठभेड़’ बताकर मार गिराया। पुलिस की ओर से बताया गया कि जिस गाड़ी में विकास दुबे सवार था वह पलट गयी और गाड़ी पलटने के बाद विकास दूबे ने पुलिस हिरासत से भागने के कोशिश की। जिसके बाद पुलिस ने उसे मुठभेड़ में मार गिराया।
विकास दूबे की पुलिस हिरासत में हुई कथित मुठभेड़ के बाद भी यह सवाल उठने लगे थे कि वह उज्जैन किसके निमंत्रण पर और क्या उम्मीदें लेकर गया था ? उसी समय सवाल यह भी उठा था कि जो पुलिस बल राज्य सरकार का विमान लेकर विकास दुबे को अपनी हिरासत में लेने उज्जैन गयी थी वह फ़ोर्स उसे विमान से वापस लाने के बजाये सड़क मार्ग से लेकर क्यों आई ? इस तरह के और भी कई राज़ विशेषकर उसको राजनैतिक संरक्षण दिये जाने जैसे अनेक रहस्य भी विकास दूबे की ‘कथित मुठभेड़ ‘ के साथ ही हमेशा के लिये रहस्य ही बने रह गए। आज तक विकास दूबे की ‘गाड़ी पलटने ‘ की घटना पर यू पी पुलिस को शर्मिन्दिगी उठानी पड़ती है। यहाँ तक कि यू पी में किसी अपराधी की गाड़ी पलटना गोया एक मुहावरा सा बन गया है। विकास दूबे की कथित मुठभेड़ हो या अतीक़ ब्रदर्स की पुलिस हिरासत में हुई हत्याएं ,इतने बड़े अपराधियों का पुलिस की मौजूदगी में इतनी आसानी से निपट जाना या निपटा दिया जाना यह सवाल ज़रूर खड़े करता है कि पुलिस हिरासत में होने वाली इसतरह की हत्याएं वास्तव में आपराधिक घटनायें ही हैं या फिर किन्हीं बड़े रहस्य को दफ़नाने की साज़िश ? और इन रहस्य्मयी हत्याओं या तथाकथित मुठभेड़ों के पीछे के रहस्यों से क्या कभी पर्दा उठ भी सकेगा ?