सर्वेश कुमार सिंह
देश में गठबंधनों की राजनीति चल रही है। दो बड़े गठबंधन आमने सामने हैं। एक गठबंधन सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में काम कर रहा है दूसरा विपक्ष के सबसे बड़े और सबसे पुराने दल कांग्रेस के नेतृत्व में बना है। लेकिन गठबंधन के दौर में सहयोगी दलों का इनसे जुड़ना और दूर होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। यही गठबंधन राजनीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है, हाल में इस चुनौती का सामना कांग्रेस के नेतृत्व वाला इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूजिव एलायंस (आईएनडीआईए) कर रहा है। इस गठबंधन के सामने सबसे बड़ी समस्या सीट शेयरिंग का मामला निपटा कर अंजाम तक पहुंचाना है। लेकिन, यही मुद्दा इस गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। सीट शेयरिंग में सही तालमेल और सर्वसम्मति के अभाव में गठबंधन बिखर रहा है। इस स्थिति में सबसे बड़ा दल कांग्रेस दबाव में है। क्योंकि गठबंधन को बचाने की जिम्मेदारी कांग्रेस की है, वह सबसे बड़ा दल है।
गठबंधन में अस्थिरता और टूट के खतरे का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर हो रहा है। उत्तर प्रदेश में पहले से ही गठबंधन के बड़े सहयोगी समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस के संबंध सामान्य नहीं हैं। विधान सभा चुनाव के दौरान सपा और कांग्रेस के बीच पैदा हुई तल्खी हालांकि अब कम हो रही है। लेकिन, समाजवादी पार्टी के रुख से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। ताजा मामला समाजवादी पार्टी की ओर से राष्ट्रीय लोकदल के लिए सात सीटें छोड़ने क बाद कांग्रेस के लिए जीत की संभावना अथवा मजबूत आधार वाली 11 सीटें देने का है। शनिवार को सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने एक ट्वीट करके कांग्रेस के लिए 11 सीटें देने की बात कह दी है। उन्होंने कहा कि 11 सीटों के साथ हम आपसी सहयोग की अच्छी शुरुआत कर रहे हैं। खास बात यह है कि यह घोषणा एकतरफा है, कांग्रेस के साथ पिछले चार पांच दिन में सपा की कोई बैठक न तो राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रदेश स्तर पर हुई है। यही वजह है कि सपा प्रमुख के ट्वीट के बाद कांग्रेस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया 11 सीटें स्वीकारने या अस्वीकारने के लिए बारे में नहीं आयी है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने सिर्फ इतना कहा है कि अंतिम फैसला केन्द्रीय नेतृत्व को लेना है।
गठबंधन के सामने चुनौती और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जो जमीनी हकीकत है, उसे कांग्रेस अच्छी तरह से समझ रही है। कांग्रेस के सामने अब सबसे पहली प्राथमिकता इस संदेश को रोकना है कि गठबंधन कांग्रेस के कारण टूट रहा है। अगर यह परसेप्शन आगे वढ़ा तो कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में नुकसान हो सकता है। पश्चिम बंगाल और बिहार में गठबंधन को हुई क्षति के बाद उत्तर प्रदेश में भी यदि हालात दोहराये गए तो फिर सारा दोष क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर ही मढ़ देंगे और संदेश यह जाएगा कि कांग्रेस एक गठबंधन को नहीं संभाल पायी तो लोकसभा चुनाव में कैसे सफल होगी। यह भी संदेश जा सकता है कि कांग्रेस का जनाधार कमजोर होने के कारण क्षेत्रीय दल अलग हो रहे हैं, जैसा संदेश बिहार में जनता दल यूनाइटेड के अलग होने के बाद गया है।
कांग्रेस की इस मजबूरी को अखिलेश यादव ने अच्छी तरह समझ लिया है। उनहें मालूम है कि कांग्रेस दबाव में है। उसकी यह मजबूरी है कि वह गठबंधन धर्म के लिए सबसे बड़ा त्याग करे और यह त्याग है सपा द्वारा तय की गईं 11 सीटों को स्वीकारना। कांग्रेस इलीलिए इस मामले पर अभी तक कोई अंतिम फैसला नहीं ले सकी है। वैसे समाजवादी पार्टी ने जिन 11 सीटों को कांग्रेस के लड़ने के लिए तय किया है ये वह सीटें जहां पिछले चुनाव में कांग्रेस को एक लाख या उससे अधिक मत मिले हैं। जो सीटें तय की गई हैं उनमें रायबरेली, अमेठी, कानपुर, उन्नाव, फतेहपुर सीकरी, सहारनपुर, संतकबीर नगर, कुशीनगर, धौरहरा, वाराणसी हैं।
लखनऊ और वाराबंकी में भी कांग्रेस एक लाख से अधिक मत पाने वाली सीटों में है लेकिन, सपा ये दोनों सीटें नहीं देगी। कांग्रेस के पास इनमें से इस समय मात्र एक सीट रायबरेली है। यहां से श्रीमती सोनिया गांधी सांसद हैं। अमेठी में राहुल गांधी चुनाव हार चुके हैं। बाकी सीटों पर भी कांग्रेस अपने पुराने वोटों के साथ सपा का साथ मिलने से भाजपा के सामने चुनौती खड़ी कर सकती है। राहुल गांधी की न्याय यात्रा उत्तर प्रदेश में फरवरी में प्रवेश करेगी। इससे पहले कांग्रेस यह चाहती है कि सपा के साथ तालमेल बना रहे और उत्तर प्रदेश में गठबंधन को कोई नुकसान न हो, इसलिए कांग्रेस न चाहते हुए भी 11 सीटों के फार्मुले को स्वीकार कर लेगी। इस फार्मूले में सपा 62, कांग्रेस 11 और रालोद 7 सीटों पर लड़ेगी। आज की जो स्थिति है उसमें कांग्रेस के लिए यह बेहतर निर्णय भी होगा कि वह सपा के सीट शेयरिंग के फैसले को स्वीकार करने की घोषणा कर दे।