निर्मल रानी
नितीश कुमार बिहार की राजनीति के लिये कितना ही प्रासंगिक क्यों न रहे हों परन्तु उनके राजनैतिक जीवन का हासिल यही है कि उन्हें मीडिया ने ‘पलटी मार’ या ‘पल्टूराम’ का ख़िताब दे डाला है। नौ बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नितीश कुमार अलग अलग अवसरों पर कभी यू पी ए समर्थित मुख्यमंत्री बने तो कभी भाजपा व एन डी ए समर्थित तो कभी कांग्रेस आर जे डी के साथ महागठबंधन बनाकर। दुर्भाग्यवश डॉ राजेंद्र प्रसाद,जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर की कर्मभूमि वाले इसी राज्य में सत्ता से चिपके रहने में महारत रखने वाले नेता राम विलास पासवान को भी राजनीति का ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहा जाता था। कहने को तो यह नेता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का पैरोकार बताते हैं परन्तु महज़ सत्ता की मलाई खाने के लिये इन नेताओं ने साम्प्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाने में कभी परहेज़ नहीं किया। आज देश में दक्षिणपंथियों का जो विस्तार देखने को मिल रहा है उसमें देश के ऐसे तमाम ‘गिरगिटों ‘ की भी अहम भूमिका है जिन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता की ख़ातिर बार बार अपने ज़मीर का सौदा किया।
परन्तु पिछले दिनों जिन परिस्थितियों में और जिस समय नितीश कुमार ने आर जे डी-कांग्रेस का साथ छोड़ एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद की शपथ नौवीं बार ली है, उनके इस अप्रत्याशित क़दम ने उन्हें पूरी तरह बेनक़ाब कर दिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि कहाँ तो नितीश कुमार के ही प्रथम प्रयास से I.N.D.I.A गठबंधन वजूद में आया। नितीश की पहल पर ही 23 जून 2023 को 18 विपक्षी दलों की सबसे पहली बैठक पटना में ही हुई थी। यहाँ तक कि उन्हें I.N.D.I.A गठबंधन का संयोजक तक बनाने की चर्चा चली परन्तु अचानक ऐसा क्या हुआ कि उन्हें ‘राजनैतिक व वैचारिक धर्म परिवर्तन ‘ के लिये मजबूर होना पड़ा ? कहां तो अगस्त 2022 में एनडीए से अलग होने के बाद नीतीश कुमार यह कहते फिर रहे थे -कि वे मर जाना पसंद करेंगे लेकिन भाजपा के साथ लौटना पसंद नहीं करेंगे। उन्होंने एनडीए से अलग होते समय भाजपा पर जेडीयू को कमज़ोर करने का आरोप भी लगाया था। उधर भाजपा की तरफ़ से भी गृह मंत्री अमित शाह का उसी समय बयान आया था कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। परन्तु इन सभी ‘कथनों’ को दरकिनार करते हुये दोनों ने ही एक दूसरे से हाथ मिला लिया ?
हालांकि जे डी यू के कुछ नेताओं की तरफ़ से इस घटनाक्रम का दोष कांग्रेस पर मढ़ने की हास्यास्पद कोशिश की जा रही है। परन्तु दरअसल इस बार का पाला बदल नितीश कुमार पर बदनामी के साथ साथ अवसरवादिता की पराकाष्ठा की भी छाप छोड़ जायेगा। आर जे डी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी तो यहाँ तक कहते हैं कि “नीतीश के बारे में राजनैतिक विशेषज्ञ कुछ नहीं बता सकता बल्कि उनके बारे में तो ‘मनोचिकित्सक’ ही बता सकता है। नीतीश ने तो स्वयं ही विपक्ष के लोकतंत्र बचाने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे। उन्हें तो शर्म आनी चाहिए, यह धोखा देना है। यदि उन्हें कोई शिकायत थी तो वे बात कर सकते थे। ”जबकि कांग्रेस ने नीतीश कुमार पर धोखा देने और रंग बदलने का आरोप लगाया है। परन्तु कुछ राजनैतिक विश्लेषक इस पूरे नाटकीय घटनाक्रम के पीछे कुछ और ही वजह बता रहे हैं। कहा जा रहा है कि “जेडीयू के नेताओं व उनके निकट सहयोगियों पर जांच एजेंसियों का कसता शिकंजा इसकी प्रमुख वजह है। मिसाल के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गत वर्ष सितंबर में जेडीयू विधान पार्षद राधाचरण सेठ की मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में हुई गिरफ़्तारी। बाद में पिछले ही साल नीतीश कुमार के एक और निकट सहयोगी जेडीयू विधायक और मंत्री विजय चौधरी के साले अजय सिंह उर्फ़ कारू सिंह के आवास पर आयकर विभाग की छापेमारी,जेडीयू के क़रीबी माने जाने वाले एक और ठेकेदार गब्बू सिंह के ठिकानों पर आयकर विभाग द्वारा की गयी छापेमारी, बेगूसराय में बिल्डर कारू सिंह के आवास पर की गयी छापेमारी आदि केंद्र सरकार के ऐसे शिकंजे थे जिनके बाद यह संभावना बढ़ने लगी थी कि अब यह जांच नीतीश कुमार के कुछ क़रीबी अधिकारियों तक भी पहुँच सकती है। माना जा रहा है कि नीतीश के मन में भी यह डर ज़रूर रहा होगा कि कहीं इन्हीं मामलों में अब उनसे भी पूछताछ न शुरू हो जाए?”
वैसे भी दुनिया देख रही है कि भाजपा से मुख़ालिफ़त की क्या क़ीमत लालू यादव व उनके परिवार के लोगों को चुकानी पड़ रही है। जबकि ठीक इसके विपरीत हिमन्त बिश्व शर्मा और अजित पवार जैसे लोग जोकि भाजपा विरोधी होने के समय कभी विपक्ष के भ्रष्ट नेताओं की सूची में सबसे ऊपर हुआ करते थे वही सत्ता के समक्ष दंडवत करने के बाद अब किस तरह सत्ता सुख भोग रहे हैं ? इसलिये नितीश कुमार के पाला बदल का ताज़ातरीन खेल किसी राजनैतिक मजबूरी या किसी सहयोगी विपक्षी दल से लगी ठेस के कारण नहीं बल्कि स्वयं को सत्ता में ‘सुरक्षित’ बनाये रखने के मक़सद से खेला गया है। यहां एक बार फिर कांग्रेस नेताओं की दूरदर्शिता को स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने नितीश की इच्छानुसार उन्हें I.N.D.I.A गठबंधन का संयोजक नहीं बनने दिया। अन्यथा यही स्थित यदि नितीश के I.N.D.I.A गठबंधन के संयोजक के रूप में सामने आती फिर तो शर्तिया तौर पर I.N.D.I.A गठबंधन का जनाज़ा ही निकल गया होता?
वैचारिक रूप से भी नितीश का इस समय भाजपा से गलबहियां करने का कोई औचित्य नहीं था। क्योंकि जाति जनगणना जैसे संवेदनशील विषय पर भाजपा जे डी यू आमने सामने थे। जबकि नितीश तो जाति जनगणना को लेकर इतने उतावले थे कि उन्होंने आनन फ़ानन में बिहार में जाति जनगणना भी करा डाली। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने जैसी नितीश कुमार की महत्वपूर्ण मांग आजतक भाजपा ने पूरी नहीं की। ऐसे में यदि नितीश को जांच का भय नहीं था तो आख़िर क्या वजह थी कि उन्होंने ‘रंग बदलने’ के अपने ही कीर्तिमान को फिर से तोड़ दिया ? क्या ऐसे अवसरवादी,सिद्धांतविहीन,सत्ता चिपकू व स्वार्थी राजनीतिज्ञों को भारतीय राजनीति के आदर्श नेताओं में गिना जा सकता है ? या यह कहा जाये कि नितीश जी- है आपकी अदाओं से गिरगिट भी शर्मसार।