ललित गर्ग
लोकसभा चुनावों की सरगर्मियां उग्र से उग्रतर होती जा रही है, पहली बार भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा बन रहा है, कुछ भ्रष्टाचार मिटाने की बात कर रहे हैं तो कुछ भ्रष्टाचारियों को बचाने की बात कर रहे हैं। मुसलमान वोटों की राजनीति करने वाले दल अपने घोषणा पत्रों में उनके कल्याण की कोई बात ही नहीं कर रहे हैं, मुसलमानों का सशक्तीकरण करने की बचाय उनके तुष्टीकरण को प्राथमिकता दी जा रही है। कुछ दल देश-विकास की बात कर रहे हैं तो कुछ दल विकास योजनाओं की छिछालेदार कर रहे हैं। किसी भी दल के चुनावी मुद्दे में पर्यावरण विकास की बात नहीं हैं। व्यक्ति नहीं, मूल्यों की स्थापना के स्वर कहीं भी सुनाई नहीं दे रहे हैं। सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। केजरीवाल जेल से सरकार चलाने की बात करके नैतिक एवं राजनीतिक मूल्यों के आन्दोलन से सरकार बनाने के सच को ही बदनुमा बना दिया है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चौराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढती हैं। समस्याओं से लड़ने के लिये हमारी तैयारी पूरे मन से होनी चाहिए।
लोकतंत्र के महापर्व पर समझना चाहिए कि हमने जीने का सही अर्थ ही खो दिया है। यद्यपि बहुत कुछ उपलब्ध हुआ है। कितने ही नए रास्ते बने हैं। फिर भी किन्हीं दृष्टियों से हम भटक रहे हैं। भौतिक समृद्धि बटोरकर भी न जाने कितनी रिक्तताओं की पीड़ा सही है। गरीब अभाव से तड़पा है, अमीर अतृप्ति से। कहीं अतिभाव, कहीं अभाव। जीवन-वैषम्य कहां बांट पाया अपनों के बीच अपनापन। अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, बस्तियां बस रही हैं मगर आदमी उजड़ता जा रहा है। पूरे देश में मानवीय मूल्यों का हृास, राजनीति अपराध, भ्रष्टाचार, कालेधन की गर्मी, लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन, अन्याय, शोषण, संग्रह, झूठ, चोरी जैसे-अनैतिक अपराध पनपे हैं। धर्म, जाति, राजनीति-सत्ता और प्रांत के नाम पर नए संदर्भों में समस्याओं ने पंख फैलाये हैं। हर बार के चुनावों की तरह इस बार भी आप, हम सभी अपने आपको जीवन से जुड़ी अंतहीन समस्याओं के कटघरे में खड़ा पा रहे हैं। कहा नहीं जा सकता कि जनता की अदालत में कहां, कौन दोषी है? पर यह चिंतनीय प्रश्न अवश्य है हम इतने उदासीन एवं लापरवाह कैसे हो गये कि राजनीति को इतना आपराधिक होने दिया? जब आपके द्वार की सीढ़ियां मैली हैं तो अपने पड़ौसी की छत पर गन्दगी का उलाहना मत दीजिए। कोई भी अच्छी शुरूआत सबसे पहले स्वयं की की जानी जरूरी है।
देश के लोकतंत्र को हांकने वाले लोग इतने बदहवास होकर निर्लज्जतापूर्ण कारनामे करेंगे, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। चौराहे पर खड़ा आदमी सब कुछ देख रहा है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा कि वह कौन सी राह पकड़े। आम आदमी सरकार ने शराब-शिक्षा में घोटाले किए, दागी चिन्हित भी हुए लेकिन आप सरकार ने भ्रष्टाचार को लेकर दोहरे मापदंड अपना लिए। अपनों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार कोई भ्रष्टाचार नहीं, राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कुछ नजर नहीं आता और वे चुनाव लड़ने की बात करते हैं। बात केवल कांग्रेस की ही नहीं है, बात राजनीतिक आदर्शों की हैं। जिसकी वकालत करते हुए कभी अन्ना हजारे तो कभी बाबा रामदेव, कभी केजरीवाल तो कभी श्री रविशंकरजी जन-आन्दोलन की अगवाई करते देते थे, अब ना तो ऐसे आन्दोलन होते हैं न ही उन पर विश्वास रहा। हमारे भीतर नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है। नीतियां सिर्फ शब्दों में हो और निष्ठा पर संदेह की परतें पड़ने लगें तो भला उपलब्धियों का आंकड़ा वजनदार कैसे होगा? बिना जागती आंखों के सुरक्षा की साक्षी भी कैसी! एक वफादार चौकीदार अच्छा सपना देखने पर भी इसलिए मालिक द्वारा तत्काल हटा दिया जाता है कि पहरेदारी में सपनों का खयाल चोरी को खुला आमंत्रण है।
भाजपा जो हमेशा राजनीतिक शुचिता की बात करती रही, उसकी शुचिता कहां है? कितने दागी एवं अपराधी नेताओं को उसने अपने दल में जगह ही नहीं दी, टिकट तक दे दिया। हो सकता है 400 के बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिये भाजपा की कुछ मजबूरियां हो। कमल तो खिलेगा ही, लेकिन उस खिलाहट में मजबूरियों के नाम पर मूल्यों के साथ समझौता नहीं होता तो यह लोकतंत्र को स्वस्थ बनाने का एक अनूठा उदाहरण होता। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कभी कहा था कि व्यक्ति को अपने जन्म से नहीं बल्कि कर्म से पहचाना जाना चाहिए, यह वाक्य उनके पोते राहुल गांधी पर भी लागू हो रहा है। वे तमाम सुखों एवं सुविधाओं में पले-बढ़े और उन्होंने जीवन में कोई संघर्ष नहीं किया या ये कहें कि जीवन के लिए संघर्ष करने की उनके सामने कोई नौबत नहीं आई। कहते हैं – “जा के पैर न परी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई”। जब आप लोगों की पीड़ा को उसी भाव से महसूस नहीं कर पाते तो दूसरों को आपकी बात पर भरोसा नहीं हो पाता। इस भरोसे को पाने के लिए उस पीड़ा को पहले खुद भुगतना होता है। यही वजह है कि राहुल गांधी सच्ची और ठीक बात कहते हैं तब भी लोग उसे उस सच्चाई के साथ, उस भाव में अंगीकार नहीं कर पाते। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का मौजूदा यह आचरण स्वीकार्य नहीं। पूरा राजनीतिक वातावरण ही हास्यास्पद हो चुका है। यदि हालात नहीं सुधरे तो राजनीतिक दलों की दुर्गति तय है। बदलती राजनीतिक सोच एवं व्यवस्था के मंच पर बिखरते मानवीय मूल्यों के बीच अपने आदर्शों को, उद्देश्यों को, सिद्धांतों को, परम्पराओं को और जीवनशैली को हम कोई ऐसा रंग न दे दें कि उससे उभरने वाली आकृतियां हमारी भावी पीढ़ी को सही रास्ता न दिखा सकें।
राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाठशाला के प्रधानाचार्य की तरह अपने दल के कार्यकर्ताओं को पाठ पढ़ाया कि वह झूठे एवं बेबुनियाद आरोपों की परवाह किए बिना तेजी से काम करें। जबकि विपक्षी दलों की सारी की सारी कवायद में एक अनर्थ सच्चाई के ही दर्शन हुए क्योंकि जैसे केवल चेहरे बदलने से दामन के दाग नहीं धुल जाते, वैसे ही कुछ युवा चेहरों को सामने खड़ा करने से क्रांतिकारी सोच पैदा नहीं की जा सकती। भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यक्तिगत आरोपों की झड़ी लगाकर पृष्ठभूमि में डालने की कोशिश की जा रही है।
कई राजनीतिक दल तो पारिवारिक उत्थान और उन्नयन के लिये व्यावसायिक संगठन बन चुके हैं। सामाजिक एकता की बात कौन करता है। आज देश में भारतीय कोई नहीं नजर आ रहा क्योंकि उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्रीयन, पंजाबी, तमिल की पहचान भारतीयता पर हावी हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति ने सामाजिक व्यवस्था को क्षत-विक्षत करके रख दिया है। ऐसा लगता है कि सब चोर एक साथ शोर मचा रहे हैं और देश की जनता बोर हो चुकी हैं। हमें अतीत की भूलों को सुधारना और भविष्य के निर्माण में सावधानी से आगे कदमों को बढ़ाना। वर्तमान के हाथों में जीवन की संपूर्ण जिम्मेदारियां थमी हुई हैं। हो सकता है कि हम परिस्थितियों को न बदल सकें पर उनके प्रति अपना रूख बदलकर नया रास्ता तो अवश्य खोज सकते हैं। आने वाले नये राजनीतिक नेतृत्व का सबसे बड़ा संकल्प यही हो कि राष्ट्रहित में स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करेंगे। राष्ट्र सर्वोपरि है और राष्ट्र सर्वोपरि रहेगा। व्यक्ति का क्या मूल और क्या विसात। विरोध नीतिगत होना चाहिए व्यक्तिगत नहीं। एक उन्नत एवं विकासशील भारत का निर्माण करने के लिये हमें व्यक्ति नहीं, मूल्यों एवं सिद्धान्तों को शक्तिशाली बनाना होगा।