ललित गर्ग
दुष्यंत कुमार ऐसे ग़ज़लकार एवं फनकार हैं जो निराशा में आशा, अंधेरों में उजाले एवं मुर्दों में जान भर देते हैं। हिंदी कविता और हिन्दी गजल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता उनको मिली, वैसी लोकप्रियता सदियों में किसी कवि एवं शायर को नसीब होती है। दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं। उनके लिखे स्वर सड़क से संसद तक गूंजते रहे हैं। इस सृजनधर्मी बहुआयामी लेखक एवं कवि ने कविता, गीत, गजल, काव्य, नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया लेकिन गज़लों के वे महासूर्य बन चमके। वे हिंदी गजल के लिए विख्यात है किंतु उन्हें यह ख्याति हिंदी गजलों के लिए नहीं, हिंदुस्तानी गजलों के लिए मिली। वे क्रांतिकारी विचारों वाले शायर हैं, उनकी शायरी को सामाजिक धारणाओं, आदर्श-व्यवस्थाओं एवं मजबूत राष्ट्रीय सोच का सूत्रपात कहा जा सकता है। जो सोयी शक्तियों को जगाता है, जो समय के साथ चलने की समाज एवं व्यक्ति को सूझ देता है। उन्होंने राष्ट्रीय-भावना, कुछ अनूठा करने के जज्बे को जीवंतता देते हुए समाज में क्रांति घटित करने का प्रयत्न किया।
जब भी बात ग़ज़लों की होती है तो उर्दू जुबान ही याद आती है लेकिन दुष्यंत कुमार एक ऐसा चमकता-दमकता नाम हैं जिन्होंने हिन्दी में ग़ज़लें लिखीं और उन्हें मुकाम तक भी पहुंचाया, उनकी ग़ज़लों में आम जनमानस का दर्द नज़र आता है। शायद दुष्यंत कुमार अकेले ऐसे शायर हैं, जिनके शेर सबसे ज्यादा बार सार्वजनिक मंचों ही नहीं, संसद में पढ़े गए हैं। सभाओं में नेताओं से लेकर वक्ताओं ने उनके शेर सुनाकर व्यवस्था पर चोट की हैं एवं सरकार को जगाने और जनचेतना का कार्य किया है। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। हममें से कितने ही लोग अपनी ज़िंदगी में इन कालजयी पंक्तियां का इस्तेमाल करते रहे हैं। उनके कई शेर हैं जो व्यक्ति में ही नहीं बल्कि पूरे समाज में क्रांति की अलख जगा देने की ताकत रखते हैं। उनकी कई रचनाओं को स्कूल के साथ ही बी.ए. और एम.ए. के पाठ्यक्रम में विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता हैं। वहीं बहुत से शोधार्थियों ने उनके साहित्य पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की है।
दुष्यंत कुमार का जन्म 01 सितंबर 1933 को उत्तर-प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव में हुआ था। उनका मूल नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था लेकिन वह साहित्य जगत में दुष्यंत कुमार के नाम से जाने गए। उनके पिता का नाम श्री भगवत सहाय और माता का नाम श्रीमती राम किशोरी था। दुष्यंत का अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही राजेश्वरीजी से विवाह हुआ था। इसके बाद दोनों ने प्रयाग विश्वविद्यालय से हिंदी, दर्शनशास्त्र व इतिहास विषय में विवाहोपरांत साथ मिलकर बी.ए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से ही द्वितीय श्रेणी में एम.ए की परीक्षा पास की। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ हुआ और उनके लेखन को एक नया आयाम मिला। अपने दांपत्य जीवन में उन्होंने तीन संतानों को जन्म दिया। उनके दो पुत्र और एक पुत्री थी।
अपने अध्ययन के दौरान दुष्यंत कुमार साहित्यिक संस्था ‘परिमल’ की गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे और ‘नए पत्ते’ जैसे महत्वपूर्ण पत्र से भी जुड़े रहे। इस समय उन्हें मार्गदर्शक के रूप में डॉ.रामकुमार वर्मा, डॉ. धीरेंद्र कुमार शास्त्री व डॉ. रसाल मिले तो सहपाठी के रूप में कमलेश्वर, मार्केंडय और रवींद्रनाथ त्यागी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। लेकिन जिंदगी का काफी हिस्सा मध्य प्रदेश में बीता। मध्य प्रदेश सरकार उनके नाम पर दुष्यंत कुमार पुरस्कार भी देती चली आ रही है। दुष्यंत आपातकाल के दौर में अपनी बागी रचनाओं के लिए भी चर्चित हुए थे। दुष्यंत कुमार ने केवल 42 वर्ष का जीवन पाया था लेकिन उन्होंने जिस भी विधा में साहित्य का सृजन किया वह कालजयी हो गई। उनकी रचनाएं सार्वदैशिक, सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक हैं, जो आधुनिक हिंदी साहित्य में आज भी ‘मील का पत्थर’ मानी जाती हैं। हिंदी अल्फाज़ की ऐसी रवानी, ऐसी ताजगी, ऐसी ऊर्जा और किसी शायर में मुश्किल से ही देखने को मिलती है। दुष्यंत की गजलों एवं शायरी में हिंदी-उर्दू अल्फाज़ का प्रयोग एक नई ताज़गी के साथ ज़ाहिर हुआ है और यह दुष्यंत की बड़ी खूबी मानी जा सकती है। दुष्यंत ने इंसानी कशमकश, जज़्बात, उदासी, महरूमी को भी बहुत फनकारी के साथ बयान किया गया है, जो उन्हें एक न भूलने वाला शायर बनाता है। इसके अलावा ज़बान की सादगी और ज़बान का हिंदुस्तानीपन दुष्यंत को अपने ढंग के सबसे अनोखे और अलबेले शायर के रूप में भी स्थापित करता है।
दुष्यंत नई ग़ज़ल के माध्यम से सच बोलने एवं सच रचने का साहस किया एवं अनोखे शायर कहलाये। जिनकी शायरी तब तक ज़िंदा रहेगी जब तक गरीबों, लाचारों और बेबसों के लिए कोई न कोई आवाज़ उठती रहेगी। दुष्यंत के बारे में अच्छी और बुरी बातें हर नए दौर में कही जाती रहेंगी, लेकिन दुष्यंत ही अकेले ऐसे शायर हैं जिन्होंने उम्र भर सियासत को मुंह चढ़ाया, मगर कमाल यह है कि दुष्यंत के बाद सियासतदानों ने संसद में या संसद के बाहर, विधानसभाओं में या विधानसभाओं के बाहर अपनी बात को मनवाने और अपनी बात में ज़्यादा वजन पैदा करने के लिए दुष्यंत को ही बार-बार कोट किया है, उनकी ही गजलों एवं शायरी का सहारा लिया है। दुष्यंत का आदर्श कोरा दिखावा न होकर संकल्प की उच्चता एवं पुरुषार्थ की प्रबलता है। व्यक्ति एवं समाज क्रांति के रूप में विकृत सोच एवं आधे-अधूरे संकल्पों को बदलने के लिये दुष्यन्त ने जिजीविषा एवं रचनात्मकता के उपाय निर्दिष्ट किये हैं।
दुष्यंत कुमार की संपूर्ण साहित्यिक रचनाओं एवं रचना संसार में अनेक कृतियां हैं। उनके गजल-संग्रह में साये में धूप है तो उपन्यासों में शामिल है छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, दुहरी ज़िंदगी। उनके काव्य-संग्रह में सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे, जलते हुए वन का वसंत हैं। गीति नाट्य है एक कंठ विषपायी। प्रमुख नाटक है और मसीहा मर गया। कहानी-संग्रह है मन के कोण। हिंदी गजल विधा के पुरोधा दुष्यंत कुमार के सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट जारी किया था। इसके साथ ही ‘दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय’ में उनकी धरोहरों को संभालने का प्रयास किया गया है। दुष्यंत कुमार की कविता ‘हो गई है पीर पर्वत सी, अब पिघलनी चाहिए’ के कुछ अंशों का इस्तेमाल 2017 की लोकप्रिय फ़िल्म इरादा में किये गये हैं एवं भारत में हर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान अक्सर इसका उपयोग होता रहा है। दुष्यंत मायूसी के काले बादलों को तार-तार करने की ताक़त रखते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने पर उकसाते हैं।
दुष्यन्त हिंदी साहित्य के आकाश में सूर्य की तरह चमकते हैं और चमकते रहेंगे। आम से दिखने वाले दुष्यंत को इतनी शोहरत इसलिये मिली कि उन्होंने कभी भी शायरी अपने लिए नहीं की बल्कि जब भी कलम उठायी, अपने लोगों, अपने समाज एवं अपने राष्ट्र के लिए उठायी। जब भी दुख ज़ाहिर किया उन लोगों का किया जिनका दुख दुनिया के लिए कोई मायने नहीं रखता था। ऐसे लोग जो अपने दुख अपने सीनों में लिए जीते रहते हैं और ऐसे ही मर जाते हैं, उन लोगों के दर्द को आवाज देने वाला दुष्यन्त महान् रचनाकार है। उनकी शख्सियत अब इतनी बड़ी हो गई हैं कि किताबों की क़ैद से बाहर निकल कर जन-जन की आवाज बन गयी हैं और इतने तेज़ रफ्तार भी हो गई हैं कि सरहदों को मुंह चिढ़ाते हुए शायरी समझने वाले देश एवं दुनिया के लोगों के दिलों में बस गयी है। दुष्यंत को सिर्फ सियासत को आइना दिखाने वाले शायर ही समझ लेना उनकी शायरी की अनदेखी करना है, जो कि हम लोग वर्षों से करते आ रहे हैं। दुष्यंत अपने हाथों में अंगारे लिए नज़र आते हैं, मगर दूसरी तरफ उनके सीने में वह महकते हुए फूल भी हैं जो जवां दिलों को महकाते हैं और प्रेम की एक अनदेखी और अनजानी फिज़ा भी क़ायम करते हैं। दुष्यंत की रूमानी शायरी में भी उनका खुरदुरापन उसी तरह मौजूद है, मगर यह खुरदुराहट दिल पर ख़राशें नहीं डालती बल्कि एक मीठे से दर्द का एहसास कराती चली जाती है।