गोविन्द ठाकुर
” कांग्रेस कमाल की पार्टी हो गई है। चुनाव हारते ही वह इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम और चुनाव आयोग को कोसना शुरू कर देती है। हालांकि ऐसा नहीं है कि ईवीएम को लेकर सवाल नहीं हैं या चुनाव आयोग की भूमिका पक्षपातपूर्ण नहीं है। चुनाव आयोग की तटस्थता और निष्पक्षता तो काफी पहले तिरोहित हो चुकी है। लेकिन हर बार कांग्रेस के चुनाव हारने का कारण यही नहीं होता है। कांग्रेस हर बार अलग अलग कारणों से हारती है, जिनमें से कुछ कांग्रेस की अपनी राजनीति से जुड़े होते हैं तो कुछ देश की राजनीति और समाज व्यवस्था में आ रहे बदलावों से जुड़े होते हैं।”
तभी हरियाणा में कांग्रेस की हार के कारणों को ज्यादा गहराई से समझने की जरुरत है। इसे लेकर कांग्रेस और उसका इकोसिस्टम जो नैरेटिव बना रहा है उसका कोई मजबूत आधार नहीं है। वह सिर्फ पार्टी नेतृत्व को जिम्मेदारी से बचाने, अपनी गलतियों पर परदा डालने और अपने समर्थकों की आंख में धूल झोंकने का एक प्रयास है। साथ ही यह इस बात का भी संकेत है कि कांग्रेस देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में हुए व्यापक परिवर्तनों की बारीकी को समझ नहीं पाई है या समझ कर भी कबूतर की तरह आंख बंद कर रही है ताकि खतरा नहीं दिखाई दे।
सबसे पहले ईवीएम की ही बात करें तो क्या कांग्रेस यह कहना चाह रही है कि ईवीएम में इस तरह की छेड़छाड़ की गई कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़े और उसकी सीटें भी बढ़े लेकिन वह चुनाव हार जाए? ध्यान रहे कांग्रेस को पिछले चुनाव में 28 फीसदी वोट मिले थे, जो इस बार बढ़ कर 39 फीसदी से ज्यादा हो गया है। यानी उसके वोट प्रतिशत में 11 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। इसके मुकाबले भारतीय जनता पार्टी का वोट तीन फीसदी बढ़ा है। पिछले चुनाव में भी उसका वोट तीन ही फीसदी बढ़ा था।
कांग्रेस 10 सीटें बागी होकर चुनाव लड़े निर्दलीय उम्मीदवारों के कारण हारी है। तीन सीटों पर इंडियन नेशनल लोकदल और एक सीट पर बसपा को मिले वोट की वजह से कांग्रेस हारी है और पांच सीटों पर आम आदमी पार्टी को मिले वोट के कारण हारी है। एक सीट पर तो कांग्रेस सिर्फ 32 वोट से हारी, जहां आम आदमी पार्टी को ढाई हजार वोट आया। तो क्या कांग्रेस यह कहना चाह रही है कि यह सब बहुत गहरी साजिश का हिस्सा है? इतनी बारीकी से एक एक सीट पर एक एक ईवीएम को इस तरह से मैनेज किया गया कि कांग्रेस का वोट भी बढ़े, निर्दलियों के भी वोट बढ़ें, आम आदमी पार्टी को भी वोट आए और कांग्रेस की हार ऐसी है, जो कम से कम तकनीकी रूप से विश्वसनीय दिखे?
पता नहीं क्यों कांग्रेस नतीजे के राजनीतिक पहलू को नहीं देखना चाह रही है। राजनीतिक हकीकत यह है कि भाजपा ने माइक्रो प्रबंधन के तहत बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़ा कराया और उनको चुनाव लड़ने में मदद की। ऐसी कोई रणनीति कांग्रेस नहीं बना सकी। इतने दो ध्रुवीय चुनाव में निर्दलीय व अन्य को 12 फीसदी के करीब वोट मिले हैं। दूसरे, यह संयोग कहें या प्रयोग लेकिन हरियाणा में कांग्रेस के जाट और दलित वोट समीकरण में सेंध लगाने वाले दो गठबंधन बने और दोनों ने चुनाव लड़ा। एक इनेलो और बसपा का तो दूसरा जजपा और आजाद समाज पार्टी का। इन दोनों गठबंधनों को साझा तौर पर सात फीसदी वोट मिले। तीसरे, कांग्रेस की एक रणनीतिक गलती यह रही कि उसने लोकसभा की तरह आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल नहीं किया। लोकसभा में कांग्रेस ने 10 में से एक सीट उसके लिए छोड़ी थी। आप उम्मीदवार उस सीट पर हार गए थे लेकिन विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के एकजुट होकर लड़ने का मैसेज बना था, जिसका फायदा कांग्रेस को यह हुआ कि वह पांच सीट जीत गई। ध्यान रहे विधानसभा में आप को 1.80 फीसदी वोट मिले हैं।
चौथी बात यह है कि कांग्रेस इस मुगालते में रही कि भाजपा की डबल इंजन सरकार के खिलाफ 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी है। लोग उससे उबे हुए हैं और भाजपा ने खुद ही मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद से हटा कर मान लिया है कि उसने हरियाणा में अच्छा काम नहीं किया है। लेकिन हकीकत यह है कि हरियाणा में या देश के ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकारों के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी जैसी कोई चीज नहीं होती है। कितने भी बरस सरकार चलाने के बाद भी भाजपा अपने वोट नहीं गंवा रही है। जिन राज्यों में वह हारी है वहां भी शायद ही कहीं ऐसा है कि उसके वोट कम हुए हैं। उसका आधार वोट उसके साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि हिंदुत्व की अंतर्धारा अब स्थायी हो गई है।
सांप्रदायिकता की राजनीति समाज में बहुत गहरे जड़ जमा चुकी है और भाजपा के मौजूदा नेतृत्व की तरफ से पिछले 10 साल से चलाए जा रहे अभियान की परिणति यह हई है कि भारतीय समाज की संरचना या विचारधारात्मक अंतर्वस्तु में गुणात्मक बदलाव आया है। बहुसंख्यक हिंदू अब मुसलमान को स्थायी तौर पर अपने लिए खतरनाक मानने लगा है। ‘अब्दुल को टाइट’ करने की धारणा बहुत गहरे तक जड़ जमा चुकी है। पहले आमतौर पर सांप्रदायिक दंगों आदि के बाद इस तरह की धारणा बनती थी। लेकिन अब समाज में स्थायी खदबदाहट है। इस वजह से भाजपा का आधार वोट उसके साथ ज्यादा मजबूती से जुड़ा है और हर चुनाव में इसमें कुछ बढ़ोतरी हो रही है। हरियाणा में भी लगातार तीन चुनावों में यह प्रवृत्ति दिखी है।
पांचवें, कांग्रेस ने भाजपा की तरह अपने सामाजिक समीकरण पर ध्यान नहीं दिया। मुख्यमंत्री पद से मनोहर लाल खट्टर को हटा कर भाजपा ने नायब सिंह सैनी के जरिए अन्य पिछड़ी जाति का जो समीकरण साधा उसकी कांग्रेस ने अनदेखी कर दी। इसके उलट वह एंटी इन्कम्बैंसी और जवान, किसान व पहलवान के नाराज होने की धारणा को हवा देती रही। दूसरी ओर हरियाणा के संभवतः पहले ओबीसी मुख्यमंत्री ने 36 फीसदी वोट को एकजुट कर दिया। खट्टर के चेहरे पर यह नहीं हो सकता था। भाजपा को पता था कि खट्टर को हटाने पर भी पंजाबी भाजपा के साथ रहेगा लेकिन सैनी संपूर्ण ओबीसी वोट जोड़ देंगे। उनके साथ भाजपा ने ब्राह्मण प्रदेश अध्यक्ष और पंजाबी, गुर्जर और यादव केंद्रीय मंत्री बनाया।
उसने जान बूझकर हरियाणा से कोई जाट केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया। इसका मकसद गैर जाट वोटों को एक मैसेज देना था। छठा, कांग्रेस ने इस सामान्य राजनीतिक सिद्धांत पर ध्यान नहीं दिया कि जब सबसे मजबूत जाति एकजुट होती है तो उसकी प्रतिक्रिया में सामान्य रूप से अन्य जातियों की गोलबंदी होती है। उसने हरियाणा में जवान, किसान और पहलवान के नैरेटिव के साथ भूपेंद्र सिंह हुड्डा की कमान बनने का मैसेज बनने दिया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे जाट पूरी तरह कांग्रेस के पक्ष में एकजुट हुआ लेकिन इससे जाटशाही आने का जो मैसेज बना उसको कांग्रेस काउंटर नहीं कर सकी और उसके विरोध में अन्य जातियां एकजुट हो गईं।
सातवां, भाजपा के तमाम शीर्ष नेताओं ने हुड्डा के 10 साल के कामकाज यानी 2014 से पहले के दस साल के कामकाज का मुद्दा बनाया। खर्ची और पर्ची से बहाली होने, जमीन में घोटाले और दलितों पर अत्याचार का मुद्दा चर्चा में आया। कांग्रेस ने इसका मजाक तो उड़ाया लेकिन वह प्रभावी तरीके से इसका जवाब नहीं दे सकी। आठवां, संगठन के मामले में कांग्रेस बेहद कमजोर और लापरवाह भी रही। विपक्ष में होने के बावजूद कांग्रेस ने संगठन नहीं बनाया। आठ साल से प्रदेश संगठन नहीं है। अध्यक्ष बदलते रहे और संगठन तदर्थ तरीके से काम करता रहा। पार्टी एक या दो व्यक्तियों के करिश्मे पर निर्भर रही। दूसरी ओर मोदी के करिश्मे और शाह की रणनीति के बावजूद भाजपा ने मजबूत संगठन बनाया, जिसका असर मतदान के दौरान दिखा। यह जमीनी रिपोर्ट है कि अनेक मतदान केंद्रों पर कांग्रेस के पोलिंग एजेंट्स नहीं थे। नौवां, टिकट बंटवारे में कांग्रेस ने कोई होमवर्क नहीं किया। जमीनी फीडबैक लिए बगैर अपनी हवा होने और हुड्डा के सबको जितवा लेने की धारणा पर टिकट बांटे। दसवां, कुमारी सैलजा की नाराजगी को बिल्कुल नीचे तक पहुंचने दिया और उसके बाद संकट प्रबंधन शुरू हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा गैर जाट की हवा में बह गया।
कांग्रेस इकोसिस्टम के लोग कह रहे हैं कि ‘हरियाणा के लोगों ने दुष्यंत चौटाला को इसलिए हरा दिया क्योंकि वे भाजपा के साथ चले गए थे लेकिन उसी भाजपा को लोगों ने जीता दिया, यह बात गले नहीं उतरती है’। ऐसे लोग खुद दिशाभ्रम का शिकार हैं और कांग्रेस नेतृत्व को भी हमेशा ऐसे ही भ्रम में डाले रहते हैं। पिछली बार जाट ध्रुवीकरण नहीं था, जिसकी वजह से दुष्यंत की पार्टी को करीब 15 फीसदी वोट मिले थे। इस बार उनके दादा की पार्टी इनेलो का थोड़ा उभार हुआ और दूसरी ओर हुड्डा के साथ साथ विनेश फोगाट यानी पहलवान और किसान व जवान की वजह से जाटों की गोलबंदी कांग्रेस के पक्ष में हुई।
तभी दुष्यंत का 14 फीसदी वोट टूटा, जिसका थोड़ा हिस्सा इनेलो को गया और बाकी कांग्रेस के साथ आ गया। कांग्रेस का जो 11 फीसदी वोट बढ़ा है वह लगभग पूरा ही दुष्यंत चौटाला से टूट कर आया है और लगभग पूरा ही जाट का वोट है। सो, कांग्रेस का सामाजिक समीकरण मोटे तौर पर जाट, मुस्लिम और कुछ हद तक उम्मीदवार की जाति का रह गया। गैर जाट वोट कांग्रेस के विरोध में गए, जिसका बड़ा हिस्सा भाजपा को मिला। कांग्रेस को इन राजनीतिक कारणों पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। लेकिन इसकी बजाय वह साजिश थ्योरी का बहाना बना कर रोने बिसूरने में लगी है।