तनवीर जाफ़री
आजका हमारा स्वाधीन एकीकृत भारत स्वतंत्रता पूर्व लगभग 565 राजघरानों अथवा रियासतों का देश हुआ करता था। इनमें विभिन्न धर्मों व जातियों के अनेक भारतीय राजा -महाराजा – नवाब आदिअलग अलग रियासतों में राज किया करते थे। इनमें से कई राजघराने ऐसे थे जिन्होंने अपनी रियासत को मुग़लों,आक्रांताओं या अंग्रेज़ों की मातहती से बचाने के लिये उनसे संघर्ष किया। जबकि अधिकांश रियासतों के प्रमुख ऐसे थे जिन्होंने या तो भयवश या लालच में आकर या फिर मौक़ा परस्ती के चलते या तो अँग्रेज़ी हुकूमत के आगे घुटने टेक दिए। बताया जाता है कि ईस्ट इण्डिया कंपनी के माध्यम से जब धीरे धीरे अंग्रेज़ों ने भारत में अपनी घुसपैठ शुरू की उस समय वे अपने साथ लाखों की फ़ौज लेकर नहीं आये। बल्कि उन्होंने अपने सहयोगी के रूप में भारत के ही उन्हीं रियासत प्रमुखों यानी राजा महाराजाओं का इस्तेमाल किया। इसके अलावा चूँकि पराधीन भारत में रोज़गार की भी भारी कमी थी इसलिये पुलिस से लेकर सेना तक में अधिकांशतः भारतीयों की ही भर्ती की गयी। इस तरह देश में ब्रिटिश काल में जहाँ भी आज़ादी के मतवालों या अन्य भारतीय नागरिकों पर ज़ुल्म ढाया जाता था या उन्हें अपमानित किया जाता था या उनकी हत्यायें की जाती थीं अथवा फांसी पर चढ़ाया जाता था तो इसके आदेश भले ही अंग्रेज़ अधिकारी देता था परन्तु ज़ुल्म व अत्याचार की घटना को अंजाम देने में अंग्रेज़ों का मातहत भारतीय ही अगुआकार की भूमिका निभाता था। इसी तरह अंग्रेज़ों के पिट्ठू व उनके रहम-ो-करम पर अपनी रियासत चलने वाले तमाम रजवाड़े भी अंग्रेज़ों की ख़ुशामद करने व उनके इशारे पर भारतीयों पर ज़ुल्म करने में पेश पेश रहा करते थे।
ठीक इसके विपरीत इन्हीं 565 राजघरानों में कुछ ऐसे राजा -महाराजा भी थे जिन्होंने अपने व देश के स्वाभिमान से समझौता न करते हुये अंग्रेज़ों के सामने अपने घुटने नहीं टेके। हालांकि ऐसे कुछ राजघरानों को उसकी क़ीमत भी चुकानी पड़ी। निःसंदेह देश ऐसे बलिदानी राजघरानों के समक्ष आज भी नतमस्तक है तथा उनका नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। ऐसी ही एक शहीद वीरांगना का नाम था झाँसी की रानी अथवा रानी लक्ष्मीबाई। रानी लक्ष्मीबाई ने 29 वर्ष की उम्र में 1857 की क्रान्ति में अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। बताया जाता है कि युद्ध के दौरान उनके सिर पर तलवार लगने के कारण वह शहीद हुई। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि ब्रिटिश काल में जो राजघराने अंग्रेज़ों की ख़ुशामद परस्ती में लगे रहते थे उन्हीं में अनेक राजघराने स्वतंत्रता के बाद भी यहाँ तक कि आज़ाद भारत में राज शाही की व्यवस्था समाप्त हो जाने के बावजूद आजतक न केवल सत्ता के केंद्र में बने रहने में सफल रहे हैं बल्कि काफ़ी हद तक अपना शाही रहन सहन व वैभव बरक़रार रखने में भी कामयाब रहे हैं। और इससे भी बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि आज भी ऐसे राजघरानों के अंतर्गत रहने वाली जनता स्वयं को आज़ाद भारतीय नहीं बल्कि राजा की रियाया समझती है। मैंने स्वयं ऐसे अनेक राजघराने देखे हैं जहाँ के लोग अपने राजा या राजकुमार को देवता तुल्य समझते हैं।
रानी लक्ष्मीबाई से जुड़े कई ऐसे क़िस्से हैं जिनसे पता चलता है कि जब वह अपने मासूम बच्चे को अपनी पीठ पर बाँध कर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्धरत थीं उसी समय ग्वालियर का सिंधिया राजघराना उन्हीं अंग्रेज़ों की ख़ुशामद परस्ती में व्यस्त था। कुछ इतिहासकार तो यहाँ तक लिखते हैं कि 1857 के विद्रोह में जहाँ तात्या टोपे व नाना साहब के साथ झांसी की सेना के कई वीर सैनिकों ने अंग्रेज़ों से लोहा लिया वहीँ उसी दौर के ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने उस समय रानी लक्ष्मीबाई की बजाय अंग्रेज़ों का साथ दिया। प्रसिद्ध कवित्री सुभद्रा कुमारी चौहानने झांसी की रानी पर लिखी अमर कविता में लिखा भी था कि – अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी। बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी।। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।” सिंधिया परिवार पर अंग्रेज़ों का पिट्ठू होने का लेबल सिंधिया घराने के कांग्रेस के क़रीब होने के समय भाजपा के नेता लगाया करते थे जबकि अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने पर यही इलज़ाम कांग्रेस या अन्य भाजपा विरोधी दलों की तरफ़ से लगाया जा रहा है। हालाँकि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने परिवार पर अंग्रेज़ों का पिट्ठू होने के आरोप का खंडन करते रहे हैं। परन्तु सच तो यह है कि बिना आग लगे धुंआ नहीं उठता।
गत वर्ष 1857 की क्रांति पर आधारित व इतिहासकार तेजिंदर वालिया द्वारा लिखित व संकलित एक पुस्तक ‘अम्बाला की दास्तां 1857 ‘ की प्रस्तावना लिखने का मौक़ा मिला। उस पुस्तक में उल्लिखित कई दस्तावेज़ों में चौंकाने वाली हक़ीक़त सामने आई। ऐसे ही कुछ दस्तावेज़ों से पता चला कि जब ब्रिटिश अधिकारी पंजाब के इलाक़े में भारतीयों पर अत्याचार कर दिल्ली की तरफ़ कूच करते थे और उन्हें इसबात का डर सताता था कि कहीं रास्ते में आम जनता उन पर हमला न कर दे या कहीं सेना विद्रोह न कर दे तो ऐसे में वे अंग्रेज़ अधिकारी पटियला व जींद जैसे राजघरानों से अपनी सुरक्षा संबंधी सहायता लिया करते थे। इस सहायता में कभी पटियाला व जींद के महाराजा अपनी सेना व घुड़सवार भेजते तो ज़रूरत पड़ने पर कभी ख़ुद भी हाज़िर हो जाते। कितना आश्चर्य होता है कि इस तरह के दर्जनों राजघराने जो कल सत्ता सुख की ख़ातिर अंग्रेज़ परस्ती में जीते थे वे आज भी सत्ता की राजनीति करने में वैसे ही माहिर हैं। और हमारे देश की भोली भाली जनता इन अंग्रेज़ परस्त राजघरानों को तब भी सम्मान देती थी जब वे अंग्रेज़ों से ‘राय बहादुर ‘ जैसी पदवियाँ व रियासत के विस्तार हेतु अधिक से अधिक इलाक़े हासिल करते थे और आज भी उन्हें वैसा ही सम्मान देती है जब वे स्वतंत्र भारत में चुनाव लड़ते हैं या जीतने के बाद मंत्रिमंडल में शोभायमान होकर देश के उज्जवल भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। दरअसल अंग्रेज़ों के ऐसे ख़ुशामद परस्तों को उस समय और भी बल मिल जाता है जब उन्हें अंग्रेज़ परस्ती की विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दलों का साथ मिल जाता है।