दीपक कुमार त्यागी
देश के नीति-निर्माता आखिर कब समझेंगे की अधिवक्ताओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उनका दायित्व है। क्योंकि देश में अब तो आये दिन अधिवक्ताओं के जान-माल को निशाने पर लेना फैशन बनता जा रहा है। पहले तो अधिवक्ता बंधु केवल अपराधियों के निशाने पर रहते थे, फिर वह पुलिस-प्रशासन के निशाने पर आये लेकिन अब तो गज़ब ही हो गया है अधिवक्ता साथी अब न्यायालय परिसर व न्यायालय के अंदर भी सुरक्षित नहीं हैं, क्योंकि गाजियाबाद में तो एक माननीय न्यायाधीश ने भरी अदालत के अंदर ही पुलिस बुलाकर के कलम व फाइल लेकर के खड़े सम्मानित कोर्ट ऑफीसर यानी कि अधिवक्ताओं पर लाठीचार्ज करवाने का कार्य कर दिया है। इस घटना से पूरे अधिवक्ता समाज में आक्रोश व्याप्त है। अधिकांश का मानना है कि देश में अधिवक्ताओं की सुरक्षा की स्थिति चिंताजनक है, और फिर भी देश के ताकतवर नीति-निर्माता अधिवक्ताओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस पहल धरातल पर ना जाने क्यों नहीं कर पा रहे हैं, अधिवक्ताओं की सुरक्षा की खातिर एक मजबूत “अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम” कानून बनवा कर के लागू तक नहीं कर पा रहे हैं।
जब पूरा देश 29 अक्टूबर 2024 को धनतेरस के पावन पर्व को पूरी धूमधाम से मनाने में व्यस्त था, उस वक्त उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद के जिला व सत्र न्यायालय परिसर में जिला जज की भरी अदालत में निहत्थे अधिवक्ताओं पर लाठीचार्ज की घटना घटित करके देश के न्यायपालिका के इतिहास में अत्याचार का इतिहास रचने का काम किया था। लेकिन इस घटना ने अधिवक्ताओं के साथ आम आदमी को भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जब गाजियाबाद के न्यायालय परिसर की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के चलते कोर्ट ऑफीसर यानी की सम्मानित अधिवक्ताओं भी अदालत परिसर में केवल कलम और फाइल लेकर ही जा सकते हैं, फिर क्यों उन निहत्थे लोगों को अधिवक्ता की वेषभूषा देख कर के क्यों निशाना बनाया गया। गाजियाबाद के जिला जज की अदालत में घटित इस घटना ने देश भर के सभी अधिवक्ताओं को एकबार फिर से अपनी सुरक्षा के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है, क्योंकि देश में अगर अधिवक्ता न्यायालय के अंदर भी सुरक्षित नहीं है तो फिर वह कहीं पर भी सुरक्षित नहीं है।
वैसे भी विचारणीय तथ्य यह है कि अगर अधिवक्ता कानून के अनुसार मिले अधिकार के रूप में अपनी बात को दमदार ढंग से न्यायालय में भी नहीं उठा सकते तो फिर कहां उठाएं। हालांकि देश के सत्ता में बैठे सभी लोगों, नीति-निर्माता, शासन-प्रशासन आदि के सभी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी देश में शासन-प्रशासन के लाख प्रयासों के बावजूद भी भयमुक्त समाज की परिकल्पना धरातल पर तब तक साकार नहीं हो पाती है, जब तक कि न्यायालय के अधिकारी के रूप में अधिवक्ता बिना किसी भय-डर के लोगों के हक के लिए निर्भीक होकर के अपने कर्तव्यों का पालन ना कर सकें। लेकिन बेहद अफसोस की बात यह है कि देश की आज़ादी के 77 वर्ष के बाद भी देश की न्याय प्रक्रिया के सबसे अहम हिस्सा अधिवक्ताओं को निड़र रखने के लिए उनकी सुरक्षा के लिए देश में आज भी एक सशक्त विधायी ढांचे के रूप में कानून तक भी मौजूद नहीं है।
“लेकिन कम से कम 21वीं सदी के आधुनिक भारत में तो हमारे देश के नीति-निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि देश में भय मुक्त व अपराधमुक्त समाज की परिकल्पना अधिवक्ताओं को बिना कानूनी संरक्षण दिये हुए पूरी नहीं हो सकती है। उन्हें यह समझना होगा कि एक निडर अधिवक्ता और मजबूत बार एसोसिएशन हमारे समाज में न्याय प्रशासन का मुख्य आधार है, क्योंकि देश के न्यायालयों के अंदर बैठे लोगों का जो हाल है वह किसी से छिपा नहीं है।”
यहां में आपको याद दिला दूं कि उत्तर प्रदेश के हापुड जनपद में 29 अगस्त 2023 को जिस तरह से हापुड़ पुलिस के द्वारा एक महिला अधिवक्ता व उनके पिता से बदसलूकी करने की घटना घटित हुई थी, जिसके बाद हापुड़ के अधिवक्ताओं ने शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करके घटना पर अपना विरोध जताया था। लेकिन प्रदर्शनकारी अधिवक्ता जिस वक्त शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने के बाद हापुड़ कचहरी वापस जा रहे थे, तो वहां पर हापुड़ पुलिस के द्वारा बेवजह ही जबरदस्त ढंग से लाठीचार्ज कर दिया गया, बिना किसी ठोस कारण के उस वक्त हापुड़ पुलिस के द्वारा सम्मानित अधिवक्ताओं को दौड़ा-दौड़ा कर के पीटा गया था, कचहरी परिसर के अंदर भी पुलिस ने बल प्रयोग करने का कार्य किया था, जिस घटना में काफी सारे अधिवक्ता घायल हुए थे। जिस स्थिति ने उस वक्त हापुड़ के साथ-साथ पूरे उत्तर प्रदेश के सभी अधिवक्ताओं को एकजुट करके लंबा आंदोलन करने पर विवश करने का कार्य किया था। लेकिन उस वक्त जब अधिवक्ताओं का आंदोलन लंबा खिंचने लगा तो शासन-प्रशासन को चिंता हुई और उसने तिकड़म बाजी से “फूट डालो राज करो” की अंग्रेजों की नीति पर काम करते हुए अधिवक्ताओं के इस मजबूत आंदोलन को खोखले झूठे वायदों के दम पर समाप्त करवाने का काम किया था।
लेकिन अब गाजियाबाद जिला न्यायालय में जिला जज की भरी अदालत में अधिवक्ताओं पर घटित पुलिस लाठीचार्ज के इस बेहद ही ज्वलंत घटनाक्रम के बाद से देश में एकबार फिर से अधिवक्ता का ग़ुस्सा देखने को मिल रहा है, अधिवक्ताओं के बीच आक्रोश तेजी से पनपने लगा है, अगर शासन-प्रशासन ने इस घटनाक्रम के दोषियों के खिलाफ जल्द ही कोई ठोस कार्रवाई नहीं की तो देशभर में अधिवक्ताओं के एक बड़े आंदोलन की दोबारा से नींव रखी जा सकती है। क्योंकि जिस तरह से चंद दिनों में ही गाजियाबाद जनपद में हुए लाठीचार्ज के विरोध के मसले पर पूरे उत्तर प्रदेश के अधिवक्ता के साथ-साथ देश के विभिन्न अधिवक्ताओं के संगठनों के बयान आ रहे है, वह अधिवक्ता के आक्रोश को दर्शाने के लिए काफी हैं, इन सभी की एक सुर में मांग है कि घटना के दोषियों के खिलाफ गाजियाबाद के अधिवक्ताओं की मांग के अनुरूप कार्रवाई की जाये और देश में भर “अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम” तत्काल लागू किया जाये।
गाजियाबाद की लाठीचार्ज की घटना के बाद अब एकबार फिर से वर्ष 2023 की तरह ही “अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम” बनाकर के उसको तत्काल लागू करने की मांग की सुगबुगाहट अब जोर पकड़ने लग गयी है। वैसे भी नीति-निर्माताओं को भी अब तो यह समझना चाहिए कि हमारे देश में अधिवक्ता न्यायिक प्रणाली का एक अहम अपरिहार्य हिस्सा हैं, न्यायिक प्रणाली में जहां एक तरफ़ तो न्यायालय के अधिकारी हैं, वहीं दूसरी तरफ़ अधिवक्ता हैं, जोकि समाज में न्याय प्रशासन की व्यवस्था को कायम रखने में लोगों की हर संभव कानूनी मदद करते हैं। जिस कार्य के चलते अधिवक्ता हर समय असुरक्षित रहते हैं और उनके जान-माल को ख़तरा बना रहता है।
“वैसे भी देश के नीति-निर्माताओं को समय रहते हुए यह समझना चाहिए एक अधिवक्ता अपने मुवक्किल की तरफ से कानून के प्रहरी के रूप में ही बार, बेंच व पुलिस के बीच एक सशक्त सेतु की कड़ी के रूप में कार्य करता हैं, इसलिए उसका सुरक्षित रहना बेहद आवश्यक है। वहीं देश में पुलिस और न्यायपालिका के पास अपनी सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा के विशेषाधिकार कानूनी रूप से मौजूद हैं, वहीं इन दोनों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जो एक अधिवक्ता न्याय की देवी के सामने गवाहों व तथ्यों पर आधारित दमदार बहस करके अपने मुवक्किल को न्याय दिलवाने का कार्य करता है, उसके पास अपनी सुरक्षा के लिए आज तक भी आवश्यक कानूनी अधिकार उपलब्ध नहीं हैं, जो स्थिति न्याय व अधिवक्ता हित में बिल्कुल भी उचित नहीं है।”
देश के नीति-निर्माताओं को सोचना चाहिए कि अधिवक्ताओं के द्वारा न्यायालय के अधिकारी के रूप में की गई सार्वजनिक सेवा की जोखिम भरी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, उनकी सुरक्षा के लिए एक सशक्त व्यापक कानून बनाकर के धरातल पर लागू किया जाना चाहिए, लेकिन आज़ादी के दशकों बीत जाने के बाद भी उस कानून का धरातल पर कोई अता-पता नहीं है। वैसे भी देखा जाये तो ‘आपराधिक प्रक्रिया संहिता’ की ‘धारा 197’ न्यायाधीशों और लोक सेवकों को उनके पेशेवर कर्तव्य के निर्वहन के दौरान किए गए कार्यों के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने से बचाती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इसके विपरीत अधिवक्ता जो कि इसी पूरी न्यायिक व्यवस्था व प्रक्रिया का एक बेहद अहम हिस्सा हैं, उन्हें कानूनी रूप से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है, जो कि अधिवक्ताओं के साथ घोर अन्याय है।
अधिवक्ताओं की रोजमर्रा की दुश्वारियां के हालातों पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट रूप से नज़र आता है कि अधिवक्ता बंधुओं को उनके द्वारा उठाए गए मामलों के कारण की मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न, जानलेवा हमलों, हत्या तक की विकट परिस्थितियों तक का सामना करना पड़ जाता है। लेकिन इन ज्वलंत परिस्थितियों के बावजूद भी देश की आज़ादी के 77 वर्ष बीत जाने के बाद भी अधिवक्ताओं की सुरक्षा के लिए कोई स्पष्ट कानूनी प्रावधान नहीं होना आश्चर्यचकित करता है। जबकि अधिवक्ता न्यायालय के अधिकारी हैं और वह भी उसी मान-सम्मान व कानूनी संरक्षण के पात्र हैं जो कि एक न्यायिक और पीठासीन अधिकारियों को दिया जाता है।
हालांकि बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने इस पर पहल करते हुए 2 जुलाई 2021 को “अधिवक्ता संरक्षण विधेयक, 2021” का एक ड्राफ्ट तैयार किया था, जिस ड्राफ्ट कानून को केन्द्रीय कानून मंत्रालय को सौंप दिया गया था, लेकिन फिर भी अभी तक अधिवक्ता भाईयों के लिए स्थिति ‘ढाक के तीन पात’ वाली ही बनी हुई है, क्योंकि आज तक भी देश में कोई ऐसा केन्द्रीय कानून नहीं बना है जो कि अधिवक्ताओं को सुरक्षा का संरक्षण प्रदान करने का कार्य करता हो। जबकि समय-समय पर इसकी निरंतर मांग उठती रहती है। इसलिए समय की मांग है कि देश के नीति-निर्माताओं को अधिवक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए एक ठोस केन्द्रीय कानून बनाकर के उसको लागू करने की पहल जल्द से जल्द धरातल पर अब करनी चाहिए। क्योंकि जिस तरह से हर व्यक्ति व शासन-प्रशासन चाहता है कि “अधिवक्ता अधिनियम 1961” के अनुसार अधिवक्ता निर्भीक होकर के पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कानून की रक्षा के कर्तव्य का निर्वहन करें, ठीक उसी तरह से अधिवक्ताओं की भी सरकार से मांग है कि वह भी “अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम” लागू करके अधिवक्ताओं को कानूनी रूप से सुरक्षा व संरक्षण के अधिकार देने का कार्य करें।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे प्यारे देश में जब भी अधिवक्ताओं की सुरक्षा की बात होती है तो केन्द्र व राज्य सरकारें ना जाने क्यों बेहद ही चतुराई के साथ अपने हाथ पीछे खींचने का कार्य करती हैं। जबकि देश की आज़ादी के इतिहास से लेकर के इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत तक के निर्माण की इस यात्रा में हमेशा अधिवक्ताओं का अनमोल योगदान रहा है। उनकी निर्भीक व निडर आवाज़ के प्रतीक गांधी, नेहरू, पटेल आदि तक रहे हैं। इसलिए देश के नीति-निर्माताओं से अनुरोध है कि वह “अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम” के माध्यम से अब अधिवक्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य जल्द से जल्द करें, जिससे कि आयेदिन अधिवक्ताओं को निशाना बनाने वालों पर लगाम लग सकें और निर्भीक होकर के एक अधिवक्ता न्यायालय के अधिकारी के रूप में आम जनमानस की सशक्त आवाज़ बनकर के उन लोगों के हक की लड़ाई पुलिस-प्रशासन व न्यायालय में लड़ सकें, लोगों को समय से न्याय दिलवाने का कार्य बेखौफ होकर के कर सकें।