भारत और चीन के बीच हाल ही में पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ है। इससे आशा की जाती है कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को हल करने में मदद मिलेगी। सबको पता है कि दोनों मुल्कों के सीमा विवाद के कारण ही 1962 में जंग भी हुई थी। उस जंग में प्रधानमंत्री नेहरू की अनेकों गलत नीतियों और निर्णयों के कारण ही भारत को पराजय मिली थी।
आर.के. सिन्हा
भारत और चीन के बीच हाल ही में पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ है। इससे या आशा की जाती है कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को हल करने में मदद मिलेगी। दशकों बाद यह एक सकारात्मक पहल हुई है ।सबको पता है कि दोनों मुल्कों के सीमा विवाद के कारण ही 1962 में जंग भी हुई थी। उस जंग में भारतीय सेना के वीर जवानों ने चीन के गले में अंगूठा तो डाल दिया था, पर चीन ने हमारे बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा भी कर लिया था। चीन के खिलाफ जंग में भारत के उन्नीस रहने के लिए कौन मुख्य रूप से दोषी था? कांग्रेस नेता और देश के पूर्व विदेश मंत्री के. नटवर सिंह कहते थे कि चीन नीति पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दूरदृष्टि की कमी थी। इसी कारण 1962 में भारत की सेना चीन से हारी थी। उस जंग के समय नटवर सिंह भारतीय विदेश सेवा के एक वरिष्ठ ज़िम्मेदार अफसर थे। वे कहते थे, “जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि हम चीन के साथ अच्छे संबंध बना सकते हैं। वे समझ ही नहीं सके कि चीन हमारी पीठ पर छुरा घोंप देगा। दुर्भाग्यवश, उनकी चीन नीति बुरी तरह से गलत साबित हुई।” यह लिखा है पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने जो कांग्रेस सरकार में ही मंत्री थे ।
स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू का कार्यकाल चीन के साथ संबंधों में सदैव उतार-चढ़ाव का ही बना रहा। 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना से लेकर 1964 में मृत्यु तक, नेहरू का दृष्टिकोण चीन के प्रति विश्वास और आकर्षण से शुरू होकर अंततः चरम उदासीनता में बदल गया था। चीन से स्पष्ट नकारात्मक संकेतों के बावजूद, नेहरू “ हिंदी – चीनी भाई-भाई “ का नारा बुलंद कर न जाने क्यों संबंध के भ्रम को बनाए रखने के लिए ही उत्सुक थे। वे देश को चीन से जुड़े विवाद को लगातार छिपाते रहे और कृष्णमेनन जैसे कम्युनिस्ट की बात मानकर लगातार देश विरोधी ग़लत निर्णय लेते रहे ।
दरअसल नेहरू के साथ एक बड़ी दिक्कत यह थी कि उन्हें लगता था कि सारा बुद्धि- विवेक और समझदारी उन्हीं के पास है। चीन से युद्ध के बाद उनके जन्म दिन (14 नवंबर) को संसद में चीन से युद्ध के परिणामों पर हो रही चर्चा पर उन्हें बोलना था। चर्चा 8 नवंबर, 1962 से ही जारी थी। सभी दलों के नेता अपनी बेबाक राय रख रहे थे। संसद के बाहर भी नेहरू को ही घेरा जा रहा था। लोहिया ने 1949 में ही देश को आगाह कर दिया था कि उत्तरवर्ती सीमाओं से देश पर साम्यवाद का खतरा मंडरा रहा है। यह बात उन्होंने खासतौर पर तिब्बत, नेपाल और सिक्किम में चीन की भूमिका को लक्ष्य करते हुए कही थी। साल 1950 में तिब्बत पर चीन के हमले की निंदा करने वालों में डॉ ० लोहिया अग्रणी रहे। इसके बाद से उन्होंने लगातार चीन की सीमा पर नज़र जमाये रखी और नेहरू को खबरदार किया कि चीनी निजाम को उसकी कथनी के हिसाब से देखना-समझना या फिर चीन के साथ सीमाओं को लेकर किसी किस्म के लेन-देन की बातचीत में उतरना ठीक नहीं। साल 1962 में भारत को जो सदमा झेलना पड़ा उसके लिए लोहिया ने नेहरू को बड़ी खरी-खरी सुनायी थी। खैर, नेहरू ने संसद में लंबी बहस के बाद अपना वक्तव्य देना शुरू करते हुए कहा- “मुझे दुख और हैरानी होती है कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावा करने वाला चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शेकदम पर चलने लगा।” उन्हें सारा सदन पूरी गंभीरता से सुन रहा था। नेहरू जी बता रहे थे कि चीन ने किस तरह से भारत की पीठ पर छुरा घोंपा। पर जब उनके भाषण के बीच किसी सदस्य ने हस्तक्षेप किया तो वे बुरी तरह नाराज हो गए। पहली बार करनाल से सांसद स्वामी रामेश्वरानन्द ने व्यंग्य भरे अंदाज में कहा, ‘चलो अब तो आपको भी चीन का असली चेहरा दिखने लगा।’ इस टिप्पणी पर नेहरू नाराज हो गए। कहने लगे, “अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है।” सदन को भी नेहरू की यह बात समझ नहीं आई। नेहरू प्रस्ताव पर बोलते ही जा रहे थे। तब एक और सदस्य एच.वी.कामथ ने कहा, “आप बोलते रहिए। हम बीच में व्यवधान नहीं डालेंगे।”
अब नेहरू विस्तार से बताने लगे कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले कितनी तैयारी की हुई थी। इसी बीच, स्वामी रामेश्वरानंद ने फिर तेज आवाज में कहा, ‘मैं तो यह जानने में उत्सुक हूं कि जब चीन तैयारी कर रहा था, तब आप क्या कर रहे थे?” अब नेहरू अपना आपा खो बैठे और कहने लगे, ‘मुझे लगता है कि स्वामी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा। मुझे अफसोस है कि सदन में इतने सारे सदस्यों को रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है।’ वे सदन में अंग्रेजी में अपनी बात रख रहे थे। निश्चित रूप से चीन से जंग के कारण वे हताश थे। उन्हें उस जंग की परिणाम ने गहरी चोट पहुंचाई थी। इसलिए वे सदस्यों पर बरसने लगते थे।
बहरहाल, चीन के खिलाफ जंग के 62 साल गुजरने के बाद भी देश उस युद्ध में जो कुछ हुआ, उसे भुला नहीं पाया है। हालांकि तब से की कई पीढ़ियां पैदा हुईं और जवान हो गईं। राजधानी दिल्ली में अनेक सड़कों के नाम जंग में देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों के नामों पर हैं। पर साउथ दिल्ली की ब्रिगेडियर होशियार सिंह मार्ग पहली सड़क थी जो किसी रणभूमि के योद्धा के नाम पर रखी गई थी। यह बात 1963 की है। चीन के साथ हुई जंग के बाद पहले जिस सड़क को लक्ष्मी बाई नगर मार्ग कहा जाता था,वो हो गई ब्रिगेडियर होशियार सिंह मार्ग। ब्रिगेडियर होशियार सिंह ने चीन के खिलाफ 1962 में हुई भीषण जंग में अपने प्राणों का बलिदान दिया था। वे भारतीय सेना की टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे। कड़ाके की ठंड में गर्म कपड़े न होने और युद्ध के लिए आवश्यक शस्त्रों के अभाव को उन्होंने आड़े आने नहीं दिया था। उस समय रणभूमि में ब्रिगेडियर होशियार सिंह की शौर्य गाथासुनकर सारे देश में देशभक्ति की भावना पैदा हो गई थी। इसलिए उस युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद राजधानी की एक खास सड़क का नाम उस महान वीर के नाम पर रख दिया गया। होशियार सिंह मार्ग का नामकरण करने के लिए देश के तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण खुद आए थे। यानी देश ने अपने उस महान शूरवीर की याद में एक कृतज्ञता का भाव प्रकट किया था। अब भी ब्रिगेडियर होशियार सिंह मार्ग से गुजरते हुए उस महान शूरवीर और 1962 की जंग के यादें ताजा होने लगती हैं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)