राम रहीम की पैरोल चुनावी खेल या न्याय का उल्लंघन?

Ram Rahim's parole election game or violation of justice?

अजय कुमार

भारत में चुनाव केवल जनता का समर्थन पाने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह एक गहरी रणनीतिक जंग होती है, जिसमें सत्ता में बने रहने के लिए हर संभव तरीका अपनाया जाता है। हाल ही में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को 12वीं बार पैरोल मिली, और संयोग से यह फिर से चुनावी मौसम में हुआ। यह पहली बार नहीं है जब किसी विवादित व्यक्ति को चुनाव के दौरान जेल से बाहर आने की अनुमति दी गई हो। सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय जेलें सिर्फ आम कैदियों के लिए बनी हैं? क्या कुछ विशेष कैदी अपनी राजनीतिक उपयोगिता के कारण बार-बार विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि गुरमीत राम रहीम को 2017 में अदालत ने दो मामलों में दोषी ठहराते हुए 20-20 साल की सजा सुनाई थी। लेकिन इसके बावजूद, वे अब तक 275 दिन जेल से बाहर बिता चुके हैं। यह आंकड़ा किसी भी आम कैदी के लिए कल्पना से परे है, लेकिन जब मामला राजनीति से जुड़ा हो, तो नियम भी अपनी सुविधा के अनुसार बदल जाते हैं।

पैरोल एक कानूनी प्रक्रिया है, जिसे मानवीयता के आधार पर लागू किया जाता है। आमतौर पर यह अच्छे आचरण, पारिवारिक आपात स्थिति या चिकित्सा कारणों से दी जाती है। लेकिन जब इसका उपयोग एक विशेष वर्ग को फायदा पहुंचाने के लिए किया जाता है, तो यह व्यवस्था की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है। गुरमीत राम रहीम का मामला इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे कुछ लोगों को कानूनी छूट देने के पीछे राजनीतिक कारण छिपे होते हैं। 2 अक्टूबर 2023 को जब हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब उन्हें 20 दिनों के लिए पैरोल मिली थी। हरियाणा में डेरा सच्चा सौदा के लाखों अनुयायी हैं, और उनके वोटों का झुकाव चुनाव परिणामों को प्रभावित करता है। इसी तरह, दिल्ली में भी उनके समर्थकों की संख्या काफी अधिक है, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें पैरोल क्यों दी गई।

गुरमीत राम रहीम का मामला अकेला नहीं है। जम्मू-कश्मीर में आतंकियों को फंडिंग देने के आरोपी इंजीनियर राशिद को भी चुनाव लड़ने के लिए जेल से रिहा किया गया। दिल्ली दंगों के आरोपी ताहिर हुसैन को भी चुनाव प्रचार के लिए बाहर आने की अनुमति दी गई। इन सभी घटनाओं को जोड़कर देखें, तो यह साफ हो जाता है कि जेल से बाहर आने का मौका उन्हीं लोगों को मिलता है, जिनकी राजनीतिक उपयोगिता होती है। सवाल यह उठता है कि क्या अब जेल में रहना केवल आम नागरिकों के लिए ही बाध्यता बन चुका है? क्या जिनके पास राजनीतिक रसूख और समर्थन है, वे आसानी से जेल से बाहर आ सकते हैं?

अगर इस स्थिति को रोकना है, तो “वन नेशन, वन इलेक्शन” जैसी नीति पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव होंगे, तो राजनीतिक दलों को बार-बार अपने फायदे के लिए इस तरह के कदम नहीं उठाने पड़ेंगे। इससे न केवल लोकतंत्र की पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि बार-बार चुनावों के नाम पर नियमों की मनमानी व्याख्या करने की प्रवृत्ति भी खत्म होगी। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सरकार वाकई इस तरह का कोई बड़ा बदलाव लाने के लिए तैयार है? क्या राजनीतिक दल अपने इस ‘पैरोल गेम’ को रोकने के लिए कोई कदम उठाएंगे, या फिर वे कोई नया तरीका निकाल लेंगे?

भारत में पैरोल किसी भी कैदी का अधिकार नहीं है, बल्कि यह अधिकारियों के विवेक पर निर्भर करता है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर प्रशासन चाहे, तो किसी विशेष व्यक्ति को बार-बार पैरोल दी जा सकती है, और किसी आम कैदी को इससे वंचित भी किया जा सकता है। यह प्रक्रिया पारदर्शिता की कमी को दर्शाती है, जहां आम कैदियों के लिए पैरोल पाना एक जटिल प्रक्रिया होती है, लेकिन प्रभावशाली और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कैदियों के लिए यह एक आसान रास्ता बन जाता है। क्या यह न्यायसंगत है कि एक ही कानून का उपयोग दो अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग तरीके से किया जाए?

इस पूरी व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जनता की होती है। जब राजनीतिक दल अपराधियों को पैरोल दिलवाकर उनका समर्थन प्राप्त करते हैं, तो इसका सीधा अर्थ यह है कि वे जनता की पसंद और उनके वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करना चाहते हैं। लेकिन क्या जनता यह समझ रही है? क्या मतदाता यह पहचान पा रहा है कि कौन से नेता अपराधियों के समर्थन से सत्ता में आना चाहते हैं? यदि जनता सचेत हो जाए और ऐसे उम्मीदवारों को नकार दे, जो अपराधियों का समर्थन लेकर चुनाव जीतना चाहते हैं, तो यह खेल हमेशा के लिए खत्म हो सकता है।

आज के समय में भारतीय मतदाता पहले से अधिक जागरूक हो चुके हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के प्रसार ने राजनीतिक घटनाओं को छुपाना मुश्किल कर दिया है। अब लोग यह देख पा रहे हैं कि कौन-कौन चुनावी फायदे के लिए अपराधियों का इस्तेमाल कर रहा है। यही वह समय है जब मतदाता को अपनी शक्ति का सही उपयोग करना चाहिए। चुनाव के समय हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम उन्हीं नेताओं को चुनें, जो वास्तव में देश की भलाई के लिए काम कर रहे हैं, न कि उन्हें, जो अपराधियों के सहयोग से सत्ता में बने रहना चाहते हैं।

गुरमीत राम रहीम की बार-बार पैरोल एक संकेत है कि भारतीय जेल प्रणाली को राजनीतिक मशीनरी के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। यह केवल बाबा का मामला नहीं है, बल्कि यह एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है, जिसमें सत्ता में बने रहने के लिए कानून के साथ खिलवाड़ किया जाता है। अगर इस प्रवृत्ति को रोकना है, तो सरकार को पैरोल प्रणाली को अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाना होगा। चुनाव आयोग को इस तरह के मामलों पर सख्त रुख अपनाना चाहिए, ताकि कोई भी राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए जेल के नियमों का दुरुपयोग न कर सके।

बहरहाल, यह जनता पर निर्भर करता है कि वह इस खेल को समझे और अपने वोट की शक्ति से इसे रोके। यदि जनता राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट संकेत दे कि वह ऐसे नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी, जो अपराधियों का समर्थन लेकर चुनाव जीतना चाहते हैं, तो इस प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। लोकतंत्र की ताकत जनता के हाथ में होती है, और जब तक जनता अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगी, तब तक यह ‘चुनावी पैरोल सिस्टम’ चलता रहेगा। यदि इसे रोका नहीं गया, तो आने वाले समय में यह इतना मजबूत हो जाएगा कि कोई भी अपराधी जेल से बाहर आकर खुलेआम राजनीति करेगा और जनता इसे रोक पाने में असमर्थ रहेगी।