परिसीमन पर क्यों मच रहा है दक्षिणी भारत के प्रदेशों से हल्ला?

Why is there an uproar from the states of Southern India on delimitation?

क्या वाकई कम होंगी उत्तरी राज्यों के मुकाबले दक्षिणी राज्यों की लोकसभा और राज्यसभा सीटों की संख्या ?

गोपेन्द्र नाथ भट्ट

राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में नया संसद भवन बनने के साथ ही यह चर्चा शुरु हो गई थी कि नए संसद भवन को भावी परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या में संभावित वृद्धि के अनुरूप तैयार किया गया है।संसद के नए भवन को मई 2023 में राष्ट्र को समर्पित किया गया था। संसद के नए भवन में लोकसभा में 888 सदस्यों और राज्यसभा में 384 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है,इसलिए परिसीमन में लोकसभा के सदस्यों की संख्या 888 से अधिक नहीं होने का अनुमान है। वर्ष 2026 तक भारत की जनसंख्या एक अरब 41 करोड़ होने का अनुमान है। ऐसे में अगर भारत सरकार जनसंख्या के प्रति सीट के अनुपात के फार्मूले को अपनाती है और जनसंख्या अनुपात को 10.1 लाख से बढ़ाकर 20 लाख कर देती है तो लोकसभा में 750 से अधिक सीटें हो जायेंगी।

लोकसभा में फिलहाल 543 सीटें हैं। माना जा रहा है कि यदि सीटों का परिसीमन हुआ तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और राजस्थान में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ जाएगी। वहीं दक्षिण भारत के कुछ राज्य केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक को कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती है। जनसंख्या के अनुपात में सीटें बंटी तो केरल में लोकसभा सीटें 20 से घटकर 19 हो जाएगी। यूपी में 14 सीटों का इजाफा हो सकता है। बिहार और एमपी में भी सीटें बढ़ेंगी। कुल कितनी सीटें बढ़ेंगी या घटेंगी यह परिसीमन के बाद ही तय होगा। इन्हीं सवालों के बीच सरकार की ओर से कहा गया है कि किसी राज्य की सीटें कम नहीं होंगी। परिसीमन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित किया जाता है। यह प्रक्रिया जनगणना के बाद की जाती है। परिसीमन का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जनसंख्या का लगभग समान प्रतिनिधित्व हो। यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आवश्यक है। परिसीमन करने के लिए, केन्द्र सरकार एक परिसीमन आयोग का गठन करती है। इस आयोग में न्यायाधीश, चुनाव विशेषज्ञ और अन्य गणमान्य व्यक्ति शामिल होते हैं। आयोग जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करता है।

डी-लिमिटेशन या परिसीमन दरअसल एक संवैधानिक जरूरत है, जिसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व और आबादी में हो रही बढ़ोतरी का अनुपात ठीक बना रहे। संवैधानिक संशोधन के जरिए पहले 1976 में 25 वर्षों के लिए और फिर 2002 में साल 2026 तक के लिए इसे टाल दिया गया। 2011 के बाद 2021 में जो जनगणना होनी थी, कोविड महामारी के चलते वह भी टल गई। हालांकि भारत सरकार ने अभी भी जनगणना की कोई तारीख घोषित नहीं की है, लेकिन माना जा रहा है कि अगले साल तक जनगणना का काम पूरा हो जाने के बाद परिसीमन की प्रक्रिया भी शुरू होगी।

परिसीमन को लेकर दक्षिण भारत के राज्यों में भारी हलचल मची हुई है और दक्षिणी प्रदेशों को यह आशंका है कि जनसंख्या के अनुपात में उत्तर के राज्यों की लोकसभा सीटें दुगनी अथवा उससे भी अधिक हो जाएंगी जबकि दक्षिण भारत के राज्यों को इसमें भारी नुकसान होगा और उनकी लोकसभा सीटें वर्तमान सीटों से भी कम हो जायेंगी। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने परिसीमन मसले पर 5 मार्च को सर्वदलीय बैठक बुलाकर दक्षिणी राज्यों की लोकसभा सीटों की संख्या कम होने की आशंका पर चिंता व्यक्त की। उनका कहना है कि डी-लिमिटेशन की संवैधानिक जरूरत और संभावित जनगणना के बाद संसदीय प्रतिनिधित्व में बदलाव की आंशका से साउथ के राज्यों की भूमिका कम हो सकती है। स्टालिन ने तमिलनाडु को होने वाले संभावित नुकसान का भी जिक्र किया। लोकसभा सीटों की ‘असमानता’ का यह मुद्दा दक्षिण भारत की राजनीति में नया नहीं है,लेकिन जैसे-जैसे साल 2026 क़रीब आ रहा है, दक्षिण भारत के नेता केंद्र सरकार पर ‘भेदभाव’ का आरोप लगाते हुए हमलावर हैं। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत के पांच राज्यों आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु में वर्तमान में लोकसभा की कुल 129 सीटें हैं,जबकि उत्तर भारत के सिर्फ़ दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार को मिलाकर लोकसभा की 120 सीटें है।

केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बुधवार को इन आरोपों पर एक बयान जारी किया और तमिलनाडु के कोयंबटूर में कहाकि, मोदी सरकार ने लोकसभा में स्पष्ट किया है कि परिसीमन के बाद प्रो-रेटा (आनुपातिक आधार) के हिसाब से दक्षिण के एक भी राज्य का एक भी सीट लोकसभा में कम नहीं होंगी। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केंद्र की ओर से तमिलनाडु के साथ किसी भी तरह के अन्याय से इनकार किया और इस प्रकार के आरोपों को ध्यान भटकाने का प्रयास करार दिया। इसके साथ ही शाह ने मुख्यमंत्री स्टालिन पर परिसीमन को लेकर गलत सूचना अभियान फैलाने का आरोप लगाया और कहा कि जब परिसीमन यथानुपात आधार पर किया जाएगा तो तमिलनाडु सहित किसी भी दक्षिणी राज्य में संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी नहीं होगी। शाह ने इस मुद्दे पर तमिलनाडु सरकार द्वारा बुलाई गई 5 मार्च की सर्वदलीय बैठक के बारे में कहा कि वे परिसीमन पर एक बैठक करने जा रहे हैं और कह रहे हैं कि हम दक्षिण के साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगे। अमित शाह ने कहा कि मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि परिसीमन के बाद कोई भी दक्षिणी राज्य एक सीट भी नहीं गंवाएगा। बीजेपी ने स्टालिन के इस कदम को नकली डर बताया है।

चूंकि परिसीमन का आधार क्षेत्र विशेष की जनसंख्या को बनाया जाता रहा है, इसलिए दक्षिणी राज्यों को डर है कि इसके परिणास्वरूप राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका और अहमियत कम हो जाएगी। उनका डर निराधार नहीं कहा जा सकता क्योंकि जनसंख्या के मामले में दक्षिणी राज्यों के मुकाबले उत्तर भारत कहीं आगे है। आजादी के बाद जहां साउथ के राज्यों ने विकास के मार्ग पर तेजी से कदम बढ़ाए वहीं परिवार कल्याण योजनाओं के जरिए आबादी की बढ़ोतरी को भी काबू किया। 2011 की जनगणना के मुताबिक जहां उत्तर के सिर्फ दो राज्य यूपी और बिहार देश की कुल आबादी का 25 फीसदी थे ,वहीं साउथ के पांचों राज्य मिलाकर महज 21 फीसदी। ताजा सरकारी अनुमानों के मुताबिक यह प्रतिशत क्रमश: 26 और 19.5 हो चुका है। जाहिर है, आबादी के आधार पर परिसीमन लोकसभा में दक्षिणी राज्यों के सांसदों की संख्या कम करेगा। स्टालिन ने कहा भी है कि तमिलनाडु को कम से कम आठ सीटों का नुकसान होगा।

दक्षिणी राज्यों का कहना है कि उन्होंने भारत ने जनसंख्या को नियंत्रित करने की नीति को सही ढंग से लागू किया लेकिन ऐसा करना ही दक्षिणी प्रदेशों को भारी पड़ने वाला है क्योंकि परिसीमन में आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटों का निर्धारण होगा। साथ ही उनका कहना है कि यह भी एक तथ्य है कि दक्षिण के राज्य देश के कॉरपोरेट और इनकम टैक्स में एक चौथाई का योगदान करते हैं जबकि यूपी और बिहार का योगदान महज तीन फीसदी बैठता है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस मसले को कैसे हल किया जाता है, यह देखना होगा लेकिन इस दलील में दम है कि देश के किसी भी हिस्से को उसके अच्छे प्रदर्शन का नुकसान नहीं होने देना चाहिए।

परिसीमन आयोग क्या है?

देश के नागरिकों के मन में यह उत्सुकता है कि आखिर परिसीमन आयोग क्या है? हकीकत में परिसीमन से आशय लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण करने की प्रक्रिया से है। परिसीमन के जरिए ही लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए सीटों को आरक्षित किया जाता है। परिसीमन के लिए भारत सरकार द्वारा एक आयोग का गठन किया जाता है। इस आयोग को परिसीमन आयोग के नाम से जाना जाता है।भारत में अब तक चार बार परिसीमन आयोग का गठन किया गया है। सर्वप्रथम 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम, 1952 के तहत, परिसीमन आयोग का गठन हुआ था। उसके उपरान्त 1963 में परिसीमन आयोग अधिनियम, 1962 के तहत, 1973 में परिसीमन अधिनियम, 1972 और 2002 में परिसीमन अधिनियम, 2002 के तहत. परिसीमन आयोग के आदेशों को कानून के तहत जारी किया गया है। परिसीमन आयोग के फैसले को देश की किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती हैं। ये आदेश राष्ट्रपति की ओर से किसी नियत तारीख से लागू किए जाते हैं। इसके आदेशों की प्रतियां लोकसभा और राज्य विधानसभा के पटल पर रखी जाती हैं, लेकिन उनमें किसी तरह का संशोधन नहीं किया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 82 और 170 के तहत हर जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा की सीटों की संख्या और उनकी सीमा का निर्धारण किया जाता है। यह काम जनगणना के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है। वर्तमान में संसद और विधानसभाओं में सीटों की संख्या 1971 की जनगणना पर आधारित है,इसलिए लोकसभा में सीटों की संख्या 543 और राज्य सभा में सीटों की संख्या 250 ही है।

परिसीमन और एससी-एसटी आरक्षण

साल 2001 की जनगणना के आधार पर 2007 में पूरे हुए परिसीमन के बाद लोकसभा एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बदल गई। इस समय लोकसभा में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए 84 और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। इससे पहले लोकसभा में एससी के लिए 71 और एसटी के लिए 41 सीटें आरक्षित थीं।

भारत में परिसीमन का इतिहास

भारत में 1976 तक परिसीमन की कार्रवाई हर जनगणना के बाद होती थी। इसमें लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में सीटों की संख्या में बदलाव होता था। ऐसा 1951, 9161 और 1971 की जनगणना के बाद तक हुआ, लेकिन देश में लगे आपातकाल के दौरान हुए 42वें संविधान संशोधन के बाद संसद और विधानसभाओं में सीटों को 2001 तक के लिए स्थिर कर दिया गया। इसका मकसद यह था कि अधिक जन्मदर वाले राज्य संसद और विधानसभा में अपनी सीटों को गंवाए बिना परिवार नियोजन की योजनाओं को लागू कर सकें। साल 2001 की जनगणना के बाद हुए परिसीमन में लोकसभा और विधानसभा की सीटों की सीमा तो बदली लेकिन उनकी संख्या में बदलाव नहीं हुआ। ऐसा दक्षिण के राज्यों के विरोध की वजह से हुआ था। वहीं साल 2001 में हुए 84वें संविधान संशोधन के बाद 2026 के बाद होने वाली जनगणना तक के लिए परिसीमन को रोक दिया गया।

साल 1951 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन के बाद लोकसभा में सीटों की संख्या 494 हो गई थी।इसमें प्रति सीट जनसंख्या का अनुपात 7.3 लाख प्रति सीट रखा गया था।वहीं 1961 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन में सीटों की संख्या 522 हो गई। इसमें प्रति सीट जनसंख्या का अनुपात 8.4 लाख प्रति सीट रखा गया था। वहीं 1971 की जनगणना के बाद हुए परिसीमन के बाद लोकसभा में सीटों की संख्या 543 हो गई थी। इसमें प्रति सीट जनसंख्या का अनुपात 10.1 लाख प्रति सीट रखा गया था। इसके बाद 2001 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन में लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमाएं और एससी-एसटी को मिलने वाला आरक्षण में बदलाव तो हुआ, लेकिन सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं हुआ।

अगली जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन होगा

अब अगली जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन होना है। इससे राज्यसभा की सीटों संख्या में भी बदलाव होगा।भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना की अंतिम जनगणना 2011 में कराई गई थी। अगली जनगणना 2021 में प्रस्तावित थी,लेकिन कोरोना महामारी की वजह से वह नहीं हो सकी। केंद्र सरकार ने हालांकि अभी यह नहीं बताया है कि अगली जनगणना कब होगी? भारत सरकार ने पिछले साल अक्टूबर में रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त मृत्युंजय कुमार नारायण की केंद्रीय प्रतिनियुक्ति को अगस्त 2026 तक के लिए बढ़ा दिया था। इसके बाद कयास लगाए जाने लगे थे कि सरकार 2025 में जनगणना का काम शुरू कर सकती है। इसके 2026 तक चलने का अनुमान लगाया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों को उम्मीद है कि परिसीमन का काम 2025 में शुरू हो सकता है। इसी परिसीमन के बाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण भी दिया जाना है। इसलिए इसी परिसीमन में महिला सीटों का भी आरक्षण तय किया जाएगा।

दक्षिण भारत की चिंता कितनी जायज ?

तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत के राज्य अपनी कम जनसंख्या दर की वजह से चिंतित हैं। उन्हें डर है कि अगर केन्द्र सरकार ने जनसंख्या के आधार पर ही परिसीमन करवाया तो उन्हें उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है। दरअसल दक्षिण भारत में जनगणना की वृद्धि उत्तर भारत की तुलना में कम है। इसी को ध्यान में रखते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने 25 फरवरी को एक ट्वीट किया। इसमें उन्होंने लिखा कि परिसीमन से केवल तमिलनाडु को ही नुकसान नहीं होगा, बल्कि इसका असर पूरे दक्षिण भारत पर पड़ेगा। उन्होंने कहा है कि एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उन राज्यों को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए जिन्होंने जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया है, विकास किया और राष्ट्र के विकास में योगदान दिया है। हमें एक निष्पक्ष, पारदर्शी और न्यायसंगत नजरिए की जरूरत है जो संघवाद को सही मायने में कायम रखे। परिसीमन के बाद लोकसभा में अपने सीटों की संख्या कम होने की आशंका तमिलनाडु बहुत पहले से जता रहा है।सितंबर 2023 में संसद में महिला आरक्षण पर बहस हुई थी। इसमें डीएमके की कनिमोझी ने एम के स्टालिन के हवाले से कहा था कि अगर परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हुआ तो इससे दक्षिण भारत के राज्यों का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा। उन्होंने कहा था कि तमिलानाडु के लोगों के मन में यह भय है कि उनकी आवाज कमजोर पड़ जाएगी।

फिर भी माना जा रहा हैं कि जनसंख्या के फार्मूले पर तमिलनाडु को दो सीटों का फायदा हो सकता है,लेकिन इस फार्मूले से दक्षिण भारत के केरल को एक सीट का नुकसान हो सकता है। केरल में अभी लोकसभा की 20 सीटें हैं, जो परिसीमन के बाद घटकर 19 हो सकती हैं। वहीं दक्षिण भारत में इसका सबसे अधिक फायदा कर्नाटक को मिल सकता है। कर्नाटक में अभी लोकसभा की 28 सीटें हैं. परिसीमन के बाद कर्नाटक में लोकसभा के सीटों की संख्या 36 हो सकती है।

वर्तमान में लोकसभा में दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक की कुल 129 सीटें हैं। लोकसभा की 543 सीटों में दक्षिण भारत की प्रतिनिधित्व करीब 24 फीसदी का है। वहीं अगर 20 लाख जनसंख्या प्रति सीट का फार्मूला अपनाया गया तो 750 सदस्यों वाली लोकसभा में दक्षिण भारत के राज्यों की 144 सीटें हो जाएंगी। यह करीब 19 फीसदी होगा,जबकि वर्तमान लोकसभा में दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व करीब 24 फीसदी है. इस तरह दक्षिण भारत के प्रतिनिधित्व में पांच फीसदी की गिरावट आएगी। वहीं इसके उलट उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक बढ़ोतरी देखी जा सकती है. वहां लोकसभा सीटों की संख्या 80 से बढ़कर 128 हो सकती है। उत्तर प्रदेश में अभी भी लोकसभा की सबसे अधिक 80 सीटें हैं। वहीं बिहार में लोकसभा के सीटों की संख्या 40 से बढ़कर 70 हो जाएंगी। इसी तरह मध्य प्रदेश के सीटों की संख्या 29 से बढ़कर 47 हो जाएगी।महाराष्ट्र में लोकसभा सीटों की संख्या 25 से बढ़कर 44 हो सकती है। राजस्थान और गुजरात आदि प्रदेशों में भी इसी अनुपात में सीटें बढ़ेगी।

लोकसभा में दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व कम होने की आशंका ही, तमिलनाडु और दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों की चिंता का प्रमुख कारण है। इसी कारण मुख्यमंत्री स्टालिन की बात का तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों के नेताओं ने समर्थन किया है, लेकिन उनकी आशंका सही साबित होती हैं या गलत इसके लिए हमें तब तक का इंतजार करना होगा, जब तक कि भारत सरकार परिसीमन आयोग का गठन नहीं कर देती है और उसकी रिपोर्ट नहीं आ जाती है?