
नरेंद्र तिवारी
समय तेजी से भाग रहा है, गतिशील समय को पकड़ पाना नामुमकिन सा नजर आता है। इस दौर में जो स्क्रीन पर दिखता है, उसके पार हमारी समझ खत्म सी हो जाती है। असल में जीवन की वास्तविक सच्चाई को स्क्रीन पर लाना बड़ा कठिन होता है। हम अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर आदिवासी समाज की उन महिलाओं की बात कर रहे है जो वास्तविक प्रगति की दौड़ में अभी भी पीछे नजर आ रही है। आदिवासी समाज में महिलाओं की वास्तविक दशा जानने के लिए निष्पक्ष आकलन की जरूरत है, तभी हम आदिवासी समाज की महिलाओं की वास्तविक स्थिति को समझ पाएंगे। दरअसल महानगरों की ऊंची अट्टालिकाओं में निवास करती महानगरीय महिलाएं और सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में अल्पतर सुविधाओं के मध्य अपना जीवन गुजार रही आदिवासी महिलाओं की जमीनी हकीकत जानने के उपरांत वास्तविक स्थिति को समझा जा सकता है। इन महिलाओं की जमीनी हकीकत देखने के पश्चात संविधान में उल्लेखित समानता के अधिकार के अमल की बहुत कुछ खामियां नजर आती है। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समुदाय की इन महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार नहीं हो रहा है, यह सुधार कछुआ चाल की तरह बेहद धीमी गति से हो रहा है। अपनी आंखों देखी बताना चाहूंगा अब से 15–20 वर्ष पूर्व का दृश्य है, जो उस समय आम हुआ करता था, अब भी मेरी आंखों के सामने घूमता दिखाई देता है, मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य बड़वानी जिले की सेंधवा तहसील में आदिवासी समुदाय की महिलाएं सुदूर जंगल से अपने सिर पर 40–50 किलो लकड़ी का गट्ठा रखकर 15 से 20 किलोमीटर का रास्ता तयकर गली गली घूमती थी, सौदा पट जाने पर उन लकड़ियों को बेचती थी, इसे बेचकर एकत्रित राशि से अपने परिवार के लिए तेल, मसाला, आटा दाल की व्यवस्था करती थी। समय के बदलाव के साथ अब यह दृश्य बदल गया है, जिसका कारण ईंधन के साधनों में गैस की आमद का होना है। नहीं बदली तो मेहनतकश आदिवासी महिलाओं की दशा जो अब भी संपूर्ण आदिवासी क्षेत्रों में खासकर एमपी, छत्तीसगढ़ में चिंतनीय, सोचनीय और विचारणीय बनी हुई है। आदिवासी बाहुल्य जिलों में पलायन बढ़ा है, आदिवासी समाज मजदूरी करने परिवार संग महाराष्ट्र, गुजरात और देश के अन्य प्रांतों में जाने को अभिशप्त है। परिवार के पुरुषों के साथ गोदी में अपना दूधमुहा बच्चा और जरूरी सामान को लादकर मजदूरी करने जाने वाली आदिवासी महिलाओं की स्थिति में बहुत से सुधारों की जरूरत है। अपना घर छोड़कर काम की तलाश में पुरुष के संग महिलाएं भी शामिल है, यह महिलाएं काम तो पुरुष के बराबर करती है, किंतु इनका मेहनताना पुरुषों की तुलना में कम होता है। इनमें नाबालिग बालिकाएं भी है जिनको होना तो स्कूल में चाहिए किन्तु परिवार के साथ मजदूरी के लिए इधर उधर भटकना जैसे नियति बन गई है। इस दौरान बालिकाओं के दैहिक शोषण के किस्से भी सुनने को आए दिनों मिलते है। जिसमें नाबालिक बालिकाओं के शारीरिक, मानसिक, शोषण की घटनाएं शामिल है। आदिवासी महिलाओं की यह स्थिति भारत के किसी एक प्रांत की नहीं वरन संपूर्ण भारत में आदिवासी समाज की महिलाओं की स्थिति थोड़े बहुत अंतरों के साथ एक सी नजर आती है। भारत में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति वर्ग की संख्या 104 मिलियन है। यह भारत की कुल जनसंख्या का 8.6% है। भारत में लगभग 550 जनजातियां है। आदिवासी समाज का अधिकांश हिस्सा वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है। इस समाज की कुल आबादी में आधा हिस्सा महिलाओं का है। आजादी के 7 दशक बीतने के पश्चात आदिवासी समाज की महिलाओं की स्थिति में कोई गुणात्मक अंतर आया हो ऐसा दिखाई नहीं देता है। अब भी सुदूर ग्रामीण अंचल में आदिवासी समुदाय की महिलाओ की स्थिति दयनीय बनी हुई है। आदिवासी समाज में विवाह की प्रक्रिया में पनप रहे लालच और मनमानी के कारण अच्छे रिश्ते नहीं बन पाते। इस समुदाय में दैजा नामक प्रक्रिया ने बुराई का रूप धारण कर लिया है, विवाह से जुड़ी इस बुराई में वर पक्ष, वधु पक्ष को दैजा के रूप में धनराशि देता है। इस दैजा का निर्धारण भी पुरुष वर्ग द्वारा किया जाता है। इस प्रक्रिया ने समाज में बुराई का रूप धारण कर लिया है। यह एक तरह से लड़कियों के सौदे के रूप में सामने आने लगा है। सामाजिक कार्यकर्ता राजेश कनौजे ने इसे सामाजिक बुराई बताते हुए कहां की दैजा समाज में गैरबराबरी को जन्म दे रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार अपने बच्चों का विवाह नहीं करा पा रहे है। लालच में फंसे पुरुष परिजन लकड़ियों की इच्छा के विरुद्ध विवाह कर देते है। यह विवाह लम्बा नहीं चलता इससे उत्पन्न विवाद समाज में हिंसा का कारण बनते है,यह विवाद थानो और न्यायालय तक पहुंच जाते है।
बहु विवाह भी आदिवासी समाज में व्याप्त पुरुष प्रधानता का उदाहरण है। एक से अधिक पत्नी रखना समाज में शान समझा जाता है। सम्पन्न पुरुष एक से अधिक पत्नी रखता है। इस कारण महिलाओं को सामाजिक परेशानी का सामना भी करना पड़ता है। बहु विवाह की यह बुराई महिलाओं के जीवन को नरक बना देती है। पुरुष वर्ग का एक पत्नी के बाद दूसरी पत्नी बनाना पहली पत्नी के महत्व को खत्म कर देता है। यह पुरुष कब तीसरा विवाह कर लेगा कहा नहीं जा सकता है। पुरुष धनबल से एक से अधिक विवाह बनाता है जो महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझते है। पुरुष प्रधानता वैसे अमूमन सभी समाजों में किंतु आधुनिकता के दौर में शहरी क्षेत्रों में कुछ समाजों ने महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना आरंभ किया है। आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सुमलीबाई जो महिलाओं की दशा सुधारने के लिए सतत संघर्षशील है ने बताया महिलाओं की समाज में कमजोर स्थिति का कारण महिलाओं का निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं होना है। निर्णय की प्रक्रिया पहले पटेलों के पास थी, अब पंच सरपंचों और ग्राम पंचायत के पास है। अब भी आदिवासी समाज में प्रमुख निर्णय पुरुष समाज ही करता है। सरकार द्वारा महिलाओं को ग्राम पंचायतों में प्राप्त आरक्षण की व्यवस्था का महिलाओं की आड़ में पुरुष समाज ही इस्तेमाल करता है।
सुमलीबाई का कहना है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनका निर्णय प्रक्रिया में भागीदार होना आवश्यक है। महिलाओं को घर के काम के अलावा रोजगार मूलक परीक्षण दिए जाने की आवश्यकता है। महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधारने के अनेकों कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाए जा रहे है। किंतु सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों की स्थापना करना चाहिए जिससे आदिवासी समाज की महिलाओं को अपना घर छोड़कर अन्यत्र प्रांतों में मजदूरी के लिए नहीं जाने पढ़े, गांव में रोजगार होंगे तो पलायन रुकेगा, बालिकाओं की शिक्षा संभव हो सकेगी। शिक्षा का प्रसार बढ़ा है किंतु शहरी क्षेत्रों में, गांव अब भी सरकारी शिक्षा के भरोसे है। उस पर भी गांव में लड़कियों की शिक्षा पर कम ध्यान दिया जा रहा है। बालिकाओं को शिक्षित करने से महिलाओं की दशा में व्यापक बदलाव आने की उम्मीद की जा सकती हैं। इसकी शुरुवात हो गई है। किंतु देखा जा रहा है कि पढ़ लिख कर शहर गया वर्ग शहर में ही बस जा रहा है। अपने गांव संस्कृति और रीतिरिवाज से दूर होता जा रहा है।
आदिवासी महिलाओं की स्थिति में व्यापक बदलाव के लिए सामाजिक कुरीतियों से सख्ती से निपटने की आवश्यकता के साथ बालिका शिक्षा को बढ़ाने की आवश्यकता है। शिक्षित महिला निर्णय में भागीदार होगी तो निश्चित ही महिलाओं की दशा में तेजी से सकारात्मक परिवर्तन होंगे। महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा तभी मिल सकेगा जब वह निर्णय प्रक्रिया में भागीदार होगी, यह प्रक्रिया चल रही है किन्तु इसकी कछुआ चाल है। महिलाएं समाज निर्माण की प्रमुख कारक है। महिला सशक्तिकरण समाज की अनिवार्य प्रकिया है।