
सोनम लववंशी
राष्ट्रवाद अब केवल झंडे में सिमटी भावना नहीं, वह स्मृति बन चुका है जो स्वतंत्रता संग्राम की मशाल भी थी और आज के दौर में आम जन के विवेक का हिस्सा भी है। तुर्की और अज़रबैजान द्वारा भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर की गई टिप्पणियाँ केवल राजनीतिक मसले नहीं हैं, बल्कि यह उन राष्ट्रों के प्रति जनमानस की प्रतिक्रियाओं को भी जगा रही हैं, जो भारत की संप्रभुता पर सवाल उठाते हैं। इन प्रतिक्रियाओं में उपभोक्ताओं के बायकॉट की आवाज़ें शामिल हैं, जो अचानक उभरी भावना नहीं, यह एक ऐसे राष्ट्रवादी विचार का संकेत हैं जो अब सरकारी नीतियों या सीमा पर लड़ाई तक सीमित नहीं रहा। यह अब नागरिकों के निर्णयों में धड़कने लगा है। पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल चुकी है। यह अब नारे लगाने या साल में एक दिन झंडा फहराने तक सीमित नहीं है, बल्कि हर उस छोटे-बड़े निर्णय में समाहित हो चुका है, जिसमें व्यक्ति देश के मान और हित को निजी सुविधा से ऊपर रखता है। अब भारतीय उपभोक्ता ब्रांड से पहले यह देखने लगा है कि वह वस्तु किस देश से आई है और उस देश का भारत के प्रति रुख क्या है। यह राष्ट्रवाद का नया चेहरा है जो विचारशील, सजग और विवेकशील।
मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो साल 2024 में ही 3 लाख 30 हजार से ज़्यादा भारतीयों ने तुर्की में छुट्टियां बिताईं, जबकि अज़रबैजान में घूमने वालों की संख्या 2 लाख 43 हजार से ऊपर रही। ये मात्र पर्यटक नहीं थे, बल्कि अरबों रुपये की पूंजी थी जो प्रत्यक्ष रूप से उन देशों की अर्थव्यवस्था को सहारा देती है, जो बार-बार भारत के कश्मीर जैसे संवेदनशील मसलों पर पाकिस्तान का समर्थन करते हैं। आँकड़ों के अनुसार, एक भारतीय पर्यटक औसतन 1 लाख रुपये खर्च करता है यानी सिर्फ 2024 में ही भारतीयों ने तुर्की और अज़रबैजान में करीब 4 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हम उन देशों की तिजोरी भरें, जो हमारी संप्रभुता को चुनौती देते हैं? क्या राष्ट्रवाद केवल जज़्बा है, या फिर निर्णय लेने की दिशा भी? तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान द्वारा लगातार कश्मीर पर भारत विरोधी बयान और अज़रबैजान द्वारा इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) जैसे मंचों पर पाकिस्तान का साथ देना, भले ही कूटनीति के दायरे में आता हो, पर जब इन बातों का असर आम नागरिक की चेतना पर पड़ता है, तब जवाब भी ज़मीनी होता है। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर बॉयकॉट तुर्किए और बॉयकॉट अज़रबैजान जैसे ट्रेंड देशभर से समर्थन पा रहे हैं। यह बायकॉट कोई आवेश में लिया गया फैसला नहीं है। ये उस उपभोक्ता चेतना की अभिव्यक्ति है जो अब राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने लगी है।
राष्ट्रवाद अब युद्ध और वीरता के साथ खड़ा होने तक सीमित नहीं। यह अब उस मोबाइल ऐप को हटाने में दिखता है जो देश विरोधी ताकतों से जुड़ा है, या उस विज्ञापन को अस्वीकार करने में जो भारत की संस्कृति का उपहास उड़ाता है। चीन के खिलाफ उठी आवाज़ें इसकी मिसाल थीं, अब तुर्की और अज़रबैजान की बारी है। यह राष्ट्रवाद प्रतिक्रिया नहीं है एक परिपक्व चेतना है जो अब देश के स्वाभिमान को बाज़ार में भी उतना ही मूल्य देती है जितना सरहद पर। भारत का राष्ट्रवाद कभी भी संकीर्णता की मानसिकता पर नहीं टिका रहा। यह वह विचारधारा है जो विविधता में एकता ढूँढती है, जो सैनिक के बलिदान पर गर्व करती है तो संविधान के मूल्यों की रक्षा भी उतनी ही दृढ़ता से करती है। परिपक्व राष्ट्रवाद दूसरों को गिराने के लिए नहीं, स्वयं को उठाने के लिए होता है। और जब देश का नागरिक अपने छोटे-छोटे निर्णयों में इस चेतना को शामिल करता है, तो वही आत्मनिर्भर भारत की असली नींव बनती है। बॉयकॉट जैसे कदमों के आर्थिक असर सीमित हो सकते हैं, लेकिन इनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव गहरे होते हैं। वे यह संदेश देते हैं कि भारत अब केवल एक बाज़ार नहीं, एक जीवित, सोचने-समझने वाला लोकतंत्र है। जब आम लोग विदेशी कंपनियों या देशों के प्रति अपनी नीतियाँ पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं, तो यह बाज़ार की दिशा बदलने वाली ताकत बनती है। यह भावना सरकार को संकेत ही नहीं देती, उद्यमियों को भी प्रेरित करती है कि ‘मेड इन इंडिया’ अब केवल एक लेबल नहीं, गर्व का प्रतीक है।
हालांकि, राष्ट्रवाद को संतुलित रखना भी आवश्यक है। यदि यह भावना विवेक के बजाय उन्माद में बदल जाए, तो वह समाज में विभाजन और असहिष्णुता को जन्म दे सकती है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होते केवल हित होते हैं। इसीलिए राष्ट्रवाद के साथ विवेक का होना भी उतना ही ज़रूरी है जितना साहस का। जब भारत का नागरिक भावनाओं के साथ तार्किकता को जोड़ता है, तब ही वह वैश्विक मंच पर भारत की एक सम्मानित और सशक्त पहचान गढ़ता है। इसलिए तुर्की और अज़रबैजान जैसे प्रसंग केवल द्विपक्षीय संबंधों की कड़वाहट नहीं हैं, ये याद दिलाने वाले अवसर हैं कि आज का भारतीय न केवल सजग नागरिक है, बल्कि विवेकशील राष्ट्रवादी भी है। यह राष्ट्रवाद अब इतिहास की धरोहर नहीं, वर्तमान की जीवंत शक्ति है जो निर्णयों को दिशा देती है, बाजार को नैतिकता से जोड़ती है, और दुनिया को यह बताती है कि भारत की चुप्पी अब उसकी कमजोरी नहीं, उसकी चेतना है।