
निलेश शुक्ला
25 जून 1975 की मध्यरात्रि को भारत—जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र था—अचानक और बेरहमी से एक अधिनायकवादी राज्य में तब्दील हो गया। उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने, बढ़ती कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करते हुए, संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत “आंतरिक अशांति” का हवाला देते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद के 21 महीनों में भारत में अधिकारों का दमन, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ, और मीडिया पर कठोर सेंसरशिप देखी गई—यह दौर भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है।
संकट में भारत: 1970 का उथल-पुथल भरा दशक
आपातकाल की नींव 1970 के दशक की अव्यवस्थित परिस्थितियों में पड़ी। हालाँकि इंदिरा गांधी को 1971 के पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश निर्माण की जीत ने राष्ट्रीय नायिका बना दिया था, लेकिन कुछ ही वर्षों में उनकी सरकार को आर्थिक ठहराव, बढ़ती महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और प्रशासनिक विफलताओं जैसी चुनौतियों ने घेर लिया। जनता का गुस्सा लगातार बढ़ रहा था।
जनांदोलनों की लहर
इस गुस्से को हवा दी विरोध प्रदर्शनों और छात्र आंदोलनों ने। बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर छात्र-नेतृत्वित आंदोलन शुरू हुए। इन आंदोलनों को जल्द ही जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में नैतिक और राजनीतिक दिशा मिली, जिन्होंने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया—एक ऐसा आंदोलन जो भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना में पूर्ण परिवर्तन की माँग कर रहा था। यह आवाज़ नौजवानों, बुद्धिजीवियों और निराश जनता को प्रेरित कर गई।
कानूनी भूचाल: इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। अदालत ने इंदिरा गांधी को 1971 में रायबरेली से चुनाव जीतने में भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी पाया। उनका निर्वाचन रद्द कर दिया गया और उन्हें छह वर्षों तक कोई पद संभालने से अयोग्य घोषित किया गया।
यह फैसला इंदिरा गांधी की राजनीतिक वैधता के लिए एक झटका था। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें केवल अस्थायी राहत मिली, पूरी तरह से आरोपों से बरी नहीं किया गया। विरोध तेज हुआ और इस्तीफे की माँग उठने लगी।
सत्ता बचाने का जुआ: आपातकाल की घोषणा
सत्ता छिन जाने के डर से इंदिरा गांधी ने एक नाटकीय और खतरनाक कदम उठाया। अपने विश्वासपात्रों और बेटे संजय गांधी की सलाह पर उन्होंने राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की। उसी रात, अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई, और विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
26 जून की सुबह जब भारतीय जनता जगी, तो उन्हें पता चला कि वे अब एक ऐसे देश के नागरिक हैं जहाँ मौलिक अधिकार स्थगित हो चुके हैं और कानून का शासन मौन हो चुका है।
आपातकाल के उपाय: व्यवस्थित दमन
आपातकाल लागू होते ही सरकार ने लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं पर संगठित हमला शुरू कर दिया:
▪ मौलिक अधिकारों का निलंबन
अनुच्छेद 14, 19, 21 और 22—जो समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और मनमानी गिरफ्तारी से संरक्षण की गारंटी देते थे—को निष्क्रिय कर दिया गया। नागरिकों को बिना मुकदमा चलाए असीमित समय तक हिरासत में लिया जा सकता था।
▪ मीडिया पर हमला
प्रेस आपातकाल का पहला शिकार बना। अखबारों को पूर्व सेंसरशिप के तहत चलाया गया, और पत्रकारों को चेतावनी दी गई कि वे सरकार के खिलाफ कुछ भी न लिखें। इंडियन एक्सप्रेस और द स्टेट्समैन जैसे अखबारों ने विरोधस्वरूप अपने संपादकीय पन्नों को खाली छोड़ दिया।
▪ बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ
1,00,000 से अधिक नेता, कार्यकर्ता और छात्र गिरफ्तार कर लिए गए। MISA (Maintenance of Internal Security Act) के तहत किसी कारण या आरोप की आवश्यकता नहीं थी—केवल संदेह ही काफ़ी था।
▪ ज़बरदस्ती नसबंदी और नगर पुनर्विकास
संजय गांधी, जिनका कोई संवैधानिक पद नहीं था, सत्ता के केंद्र बन गए। उनकी निगरानी में आक्रामक परिवार नियोजन अभियान चलाया गया जिसमें विशेषकर उत्तर भारत के लाखों गरीब पुरुषों की ज़बरदस्ती नसबंदी की गई। साथ ही दिल्ली में बिना सूचना के झुग्गियाँ तोड़ी गईं, जिससे हजारों लोग बेघर हो गए।
न्यायपालिका: मौन दर्शक
आपातकाल का सबसे विचलित करने वाला पक्ष था न्यायपालिका का मौन। सुप्रीम कोर्ट ने कुख्यात ADM जबलपुर मामले में निर्णय दिया कि आपातकाल के दौरान जीवन का अधिकार भी स्थगित किया जा सकता है।
केवल न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, न्यायपालिका संविधान की रक्षा करने में विफल रही। यह संदेश गया कि सरकार कानून से ऊपर है।
अंधेरे में प्रतिरोध
भारी दमन के बावजूद प्रतिरोध पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। भूमिगत नेटवर्क, गुप्त बैठकों, और गोपनीय पर्चों के माध्यम से विरोध की चिंगारी जिंदा रखी गई। RSS, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनसंघ और कई स्वतंत्र नागरिकों ने गिरफ्तारी और यातना का जोखिम उठाकर तानाशाही के खिलाफ आवाज़ उठाई।
जेपी, जेल में भी, अहिंसक प्रतिरोध के प्रतीक बने रहे। उनका साहस और विचार लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बना।
अंतरराष्ट्रीय आलोचना और अलगाव
दुनिया भर में आपातकाल की तीखी आलोचना हुई। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे “तानाशाही की ओर कदम” कहा। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने मानवाधिकार उल्लंघनों को उजागर किया। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने भारत से कुछ हद तक राजनयिक दूरी बना ली। भारत की लोकतांत्रिक छवि धूमिल हो गई।
आपातकाल का पतन
1977 की शुरुआत तक कांग्रेस के अंदर असंतोष, अंतरराष्ट्रीय दबाव और सत्ता के प्रति आत्ममुग्धता ने इंदिरा गांधी को आपातकाल हटाने और चुनाव घोषित करने के लिए मजबूर कर दिया।
जनता पार्टी, सभी प्रमुख विपक्षी दलों का गठबंधन, लोकतंत्र की बहाली के वादे पर चुनाव लड़ी। इंदिरा गांधी और कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
क्यों भाजपा इसे ‘संविधान हत्या दिवस’ मानती है
हर साल 25 जून को भाजपा ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाती है। पार्टी का मानना है कि आपातकाल के दौरान:
• संविधान का दुरुपयोग कर लोकतंत्र का गला घोंटा गया।
• कार्यपालिका की निरंकुशता ने नागरिक अधिकारों को रौंद डाला।
• यह दिन हमें लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और सतर्कता की याद दिलाता है।
वे चेहरे जिन्होंने आपातकाल को परिभाषित किया
आपातकाल का दौर कुछ खास व्यक्तित्वों से जुड़ा रहा:
• इंदिरा गांधी: प्रधानमंत्री जिन्होंने आपातकाल लागू किया और बाद में उसकी राजनीतिक कीमत चुकाई।
• संजय गांधी: बिना संवैधानिक पद के, सत्ता का असली केंद्र बने।
• जयप्रकाश नारायण (जेपी): अहिंसक जनांदोलन के सूत्रधार।
• अटल बिहारी वाजपेयी व एल.के. आडवाणी: युवा नेता जो जेल गए और बाद में देश का नेतृत्व किया।
• न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना: संविधान के पक्ष में खड़े एकमात्र जज।
दीर्घकालिक प्रभाव
आपातकाल ने भारतीय राजनीति में कई बदलाव लाए:
• नागरिक स्वतंत्रताओं पर बहस और चेतना बढ़ी।
• प्रेस की आज़ादी को लेकर समाज सतर्क हुआ।
• अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग भविष्य में रोकने के लिए संवैधानिक संशोधन (44वाँ) लाया गया।
• यह सिद्ध हो गया कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सतर्कता अनिवार्य है।
एक संवैधानिक संकट: लोकतंत्र टूटा नहीं, थमा था
आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की परीक्षा ली। 21 महीनों तक लोकतंत्र ठिठका, लेकिन मरा नहीं। 1977 में जनता ने मतपत्र के माध्यम से सत्ता को बदल दिया, यह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत थी।
यह एक सबक भी है—कि लोकतंत्र में भी तानाशाही छिपकर जन्म ले सकती है, अगर उसे चुनौती न दी जाए।
हर नागरिक का यह परम कर्तव्य है कि वह लोकतंत्र में सतर्क और जागरूक बना रहे, ताकि आपातकाल जैसी स्थिति फिर कभी न उभरे। इतिहास गवाह है कि कभी-कभी कुछ राजनेता सत्ता खोने के भय से लोकतांत्रिक मूल्यों से समझौता करने का प्रलोभन पा सकते हैं—अपने व्यक्तिगत या राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए। यदि ऐसी प्रवृत्तियों पर समय रहते रोक न लगे, तो ये धीरे-धीरे संस्थाओं को खोखला कर सकती हैं, असहमति की आवाज़ को दबा सकती हैं, और लोकतंत्र की आत्मा पर ही खतरा बन सकती हैं।
लोकतंत्र कोई एक बार की उपलब्धि नहीं है; यह एक सतत प्रतिबद्धता है, जिसमें सक्रिय भागीदारी, सूचित निर्णय और नागरिकों द्वारा निरंतर निगरानी आवश्यक होती है। संविधान ने जनता को शक्ति दी है, लेकिन यह शक्ति तभी सार्थक बनती है जब नागरिक अपनी जिम्मेदारियों का पालन करें। हर एक मत, हर एक शांतिपूर्ण विरोध, और हर एक सवाल जो सत्ताधारी से पूछा जाता है—ये वे साधन हैं जिनके माध्यम से हम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
अतीत के सबक को भुलाया नहीं जाना चाहिए। हमें फिर किसी अंधेरे आधी रात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए यह समझने के लिए कि हमने क्या खो दिया। यह हमारे—जनता के—हाथ में है कि हम सुनिश्चित करें कि लोकतंत्र केवल जीवित न रहे, बल्कि पारदर्शिता, जवाबदेही और न्याय के मूल्यों के साथ फलता-फूलता रहे।