मोदी सरकार की तटस्थ रहने वाली विदेश नीति

Modi government's foreign policy remains neutral

संजय सक्सेना

भाजपा के दिग्गज नेता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत की विदेश नीति में एक नया दृष्टिकोण देखने को मिल रहा है, जिसे कई विशेषज्ञ तटस्थता या रणनीतिक संतुलन की नीति के रूप में परिभाषित करते हैं। यह नीति खासतौर पर अमेरिका और रूस के बीच तनाव, चीन के उभार, और वैश्विक धु्रवीयता के संदर्भ में भारत के रुख को दर्शाती है।ऐसा ही इजरायल और ईरान के बीच जंग के दौरान भी देखने को मिला। भारत किसी के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ बल्कि दोनों देशों को शांति का पैगाम देता रहा। यही भारत की तटस्थ नीति है। तटस्थ रहने की नीति का मुख्य उद्देश्य यह है कि भारत अपनी संप्रभुता, रणनीतिक स्वायत्तता और राष्ट्रीय हितों को सर्वाेपरि रखते हुए किसी एक वैश्विक शक्ति के साथ पूरी तरह से नहीं जुड़ता, बल्कि सभी के साथ संवाद और सहयोग बनाए रखता है। हालांकि इस नीति के अपने फायदे हैं, वहीं कुछ गंभीर नुकसान भी सामने आते हैं।

इजरायल और ईरान के बीच बढ़ते तनाव और संघर्ष के दौरान भी मोदी सरकार ने अपनी तटस्थता वाली विदेश नीति को प्राथमिकता दी। वैश्विक राजनीति के इस संवेदनशील मोड़ पर जब कई देश खुले समर्थन या विरोध में उतर आए, भारत ने संयम और संतुलन का परिचय देते हुए किसी पक्ष का खुला समर्थन नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने मानवता, कूटनीति और क्षेत्रीय स्थिरता को आधार बनाते हुए एक ऐसा रुख अपनाया जिससे भारत की साख एक जिम्मेदार और परिपक्व लोकतंत्र के रूप में और मजबूत हुई। सरकार ने आधिकारिक बयानों में शांति, संवाद और संयम की अपील की, साथ ही युद्ध में शामिल दोनों देशों से बातचीत के रास्ते तलाशने को कहा। यह नीति न केवल भारत की ऊर्जा सुरक्षा, व्यापारिक हितों और पश्चिम एशिया में बसे लाखों भारतीयों की सुरक्षा को ध्यान में रखती है, बल्कि वैश्विक मंचों पर भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को भी दर्शाती है। भारत का यह संतुलित दृष्टिकोण बताता है कि वह किसी एक खेमे में नहीं बल्कि वैश्विक स्थिरता और संतुलन में विश्वास करता है।

तटस्थता का सबसे बड़ा फायदा यह है कि भारत को स्वतंत्र निर्णय लेने की पूरी आज़ादी मिलती है। जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा, तब भारत ने किसी एक पक्ष के साथ खड़ा होने की बजाय शांति और बातचीत का पक्ष लिया। इससे भारत को दोनों देशों के साथ अपने संबंध बनाए रखने में मदद मिली। अमेरिका और यूरोप जैसे पश्चिमी देशों ने भले ही भारत की स्थिति पर सवाल उठाए हों, लेकिन उन्होंने भारत के साथ अपने रिश्तों को बिगाड़ने का जोखिम नहीं उठाया, क्योंकि भारत आज की तारीख में वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुका है।

दूसरा फायदा यह है कि तटस्थ नीति के कारण भारत को वैश्विक मंचों पर अधिक सम्मान और ध्यान मिल रहा है। भारत ने जी-20 की अध्यक्षता के दौरान जिस प्रकार से विकसित और विकासशील देशों के बीच पुल का काम किया, वह इसी नीति का परिणाम है। भारत की स्थिति अब एक ऐसे देश की बन गई है जो वैश्विक शक्ति संतुलन को प्रभावित करने की क्षमता रखता है, न कि केवल किसी एक धड़े का समर्थक है। इससे भारत को वैश्विक कूटनीतिक दबाव से बचने में सहायता मिलती है और वह अपने दीर्घकालिक आर्थिक व सुरक्षा हितों पर फोकस कर पाता है।

इसके अतिरिक्त, तटस्थता की नीति भारत को बहुपक्षीय सहयोग की दिशा में भी मजबूत बनाती है। भारत ब्रिक्स, क्वाड, शंघाई सहयोग संगठन, और इंडो-पैसिफिक फ्रेमवर्क जैसे कई मंचों का हिस्सा है, जो अलग-अलग वैश्विक शक्तियों से जुड़े हैं। अगर भारत किसी एक पक्ष के साथ खुलकर जुड़ जाता, तो उसकी भागीदारी पर असर पड़ता। इस नीति ने भारत को ऊर्जा सुरक्षा, तकनीकी सहयोग, निवेश और रणनीतिक साझेदारी जैसे क्षेत्रों में व्यापक विकल्प दिए हैं।

हालांकि, तटस्थ नीति के कुछ नुकसान भी हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ा नुकसान यह है कि वैश्विक संकट के समय भारत की भूमिका अस्पष्ट हो जाती है। जब यूक्रेन युद्ध हुआ या जब गाजा में संघर्ष भड़का, तब भारत की तटस्थता को कुछ विश्लेषकों ने नैतिक चुप्पी के रूप में देखा। इससे भारत की छवि एक नैतिक शक्ति या वैश्विक नेतृत्वकर्ता के रूप में कमजोर पड़ती है। आज की दुनिया केवल रणनीतिक फायदे नहीं देखती, बल्कि यह भी देखती है कि कौन-सा देश मानवाधिकार, लोकतंत्र और न्याय के पक्ष में बोलता है। भारत की चुप्पी कई बार इसे हित-चिंतक की बजाय हित-साधक बना देती है।

दूसरा नुकसान यह है कि तटस्थ रहते हुए भारत कभी-कभी अपने साझेदार देशों के साथ रिश्तों में वह गहराई नहीं बना पाता जो स्पष्ट समर्थन से बनती है। अमेरिका भारत को चीन के खिलाफ एक मजबूत रणनीतिक साझेदार मानता है, लेकिन भारत की रूस के साथ दोस्ती अमेरिका के लिए चिंता का विषय बनती है। इसी तरह, रूस को भारत की अमेरिका के साथ नजदीकी खटकती है। ऐसे में भारत को हमेशा संतुलन बनाए रखना पड़ता है, जो कि एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और कभी-कभी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है।

एक और नुकसान यह है कि तटस्थता के कारण भारत को कुछ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाता। उदाहरण के लिए, जब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की बात आती है, तो उसे किसी एक गुट का मजबूत समर्थन नहीं मिल पाता। सभी देश भारत को एक संभावित भागीदार तो मानते हैं, परंतु कोई उसे खुलकर समर्थन नहीं देता, क्योंकि भारत खुद किसी गुट का हिस्सा नहीं बनता।इसके अलावा, तटस्थ नीति के चलते भारत कभी-कभी उन अवसरों से चूक जाता है जो एक पक्ष का समर्थन करने पर मिल सकते थे। अमेरिका और यूरोप जैसे देश अपने रणनीतिक सहयोगियों को रक्षा तकनीक, निवेश और बाजार में प्राथमिकता देते हैं। भारत की स्थिति अक्सर दो नावों की सवारी जैसी हो जाती है, जिससे वह पूरी तरह से किसी एक दिशा में लाभ नहीं उठा पाता।

फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार ने तटस्थता वाला रवैया सोच-समझकर तय किया होगा,जो उनकी अपनी रणनीति का हिस्सा होगाी, जो उसके भौगोलिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों के अनुसार उपयुक्त है। इस नीति का उद्देश्य किसी को नाराज़ किए बिना सभी से संबंध बनाए रखना है, जो कि एक उभरती हुई वैश्विक शक्ति के लिए जरूरी भी है। मगर इस नीति को लागू करते समय यह ध्यान रखना होगा कि रणनीतिक संतुलन के साथ नैतिक नेतृत्व और दीर्घकालिक दृष्टिकोण भी बना रहे, ताकि भारत केवल एक संतुलनकर्ता नहीं, बल्कि दिशा-निर्देशक शक्ति के रूप में भी उभरे।