समाज की अंतरात्मा को झकझोरता मातृत्व पर लगा कलंक!

The stigma on motherhood shakes the conscience of society!

सोनम लववंशी

रिश्तों की कोमल भूमि पर भरोसे के बीज बोए जाते हैं। वहीं से अंकुरित होता है जीवन, वहीं से जन्म लेती है संवेदना। लेकिन अगर मां की कोख से जीवन नहीं, हिंसा जन्म लेने लगे, तो वह केवल एक अपराध नहीं, बल्कि सभ्यता के विनाश का संकेत है। देवभूमि उत्तराखंड के हरिद्वार से आई हालिया घटना, जिसमें एक महिला नेत्री ने अपनी ही नाबालिग बेटी का बलात्कार करवाया, ये न केवल एक अमानवीय कृत्य है, बल्कि यह भारतीय समाज की मूल आत्मा पर किया गया क्रूरतापूर्ण आघात भी है। यह वो धरती है, जहां मां को देवी मानकर पूजा गया। जहां ‘मातृभूमि’ की संकल्पना में राष्ट्र का रूप देखा गया। वही मां, जब शोषण की सूत्रधार बन जाए, सत्ता और वासना के कॉकटेल में नैतिकता की हत्या कर दे, तो इस त्रासदी को केवल अपराध नहीं कहा जा सकता। यह एक आत्महत्या है संवेदना की, परिवार की, और समाज की। यह घटना हमें मजबूर करती है कि हम सिर्फ पुलिस कार्रवाई या न्यायिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा न करें, बल्कि आत्ममंथन करें। उस मासूम लड़की के कोमल मन पर क्या बीती होगी, जो दुनिया में सबसे सुरक्षित स्थान अपनी मां की गोद से ही अपमान, उत्पीड़न और दर्द पाती रही। जब बेटी अपनी आंखों में दहशत और सवाल लिए देखती है, और मां जवाब में “ये सब करना ही पड़ेगा” कहती है, तब ये न सिर्फ विश्वासघात होता है, बल्कि उस नन्हीं आत्मा के साथ एक गहन ऐतिहासिक अन्याय भी।

परिवार को भारतीय समाज में प्राथमिक इकाई कहा गया है ये वो ईकाई जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है, जो आत्मा को साकार करती है, जो सभ्यता की नींव रखती है। लेकिन जब वही इकाई भीतर से सड़ जाए, तो कौन से मंदिर, कौन से विद्यालय, कौन सा कानून समाज को बचा पाएंगे? हम टेक्नोलॉजी में आगे बढ़े हैं, लेकिन मूल्य कहाँ पीछे छूट गए? हमारी आत्मा की आवाज़ क्यों मंद पड़ती जा रही है? यह सवाल केवल उस एक मां का नहीं है। यह सवाल हम सबका है क्या हमने परिवारों को एक आर्थिक, सामाजिक संस्था मान लिया है? क्या अब माता-पिता सिर्फ पद और प्रतिष्ठा के साधन बन गए हैं, जहां संवेदनाओं की जगह अब ‘इमेज बिल्डिंग’ का शोर है? बच्चे अब माता-पिता के ‘इंस्ट्रूमेंट’ बन रहे हैं कभी विज्ञापन में, कभी सोशल मीडिया पर, और अब, दुर्भाग्य से, अपराध के औजार में भी। हमारा समाज अक्सर बेटी के शोषण पर चुप रहता है क्योंकि अपराध घर के भीतर होता है, पर्दों के पीछे होता है, और ‘इज्ज़त’ की दीवार बहुत ऊंची होती है। लेकिन इस बार पर्दा खुद मां ने हटाया और अपराध को खुलेआम सहमति दी। यहां चुप रहना कायरता नहीं, सांस्कृतिक आत्मवध है। राजनीति की ज़मीन पहले से ही अपराधों से सनी हुई है, पर जब वह घर की चौखट लांघकर बेटी की अस्मिता तक पहुंच जाए, तो वह सिर्फ सत्ता का पतन नहीं, समाज की मृत्यु है। क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि ऐसी महिला कैसे किसी पार्टी में पद पा गई? क्या हम केवल टिकट बांटते हैं, या चरित्र भी परखते हैं? राजनीति का अपराध से यह सांठगांठ, अब परिवारों के विनाश तक पहुंच चुका है।

भारत की पारिवारिक व्यवस्था हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्म की नींव रही है। ‘परिवार’ केवल खून के रिश्तों का नाम नहीं, वह एक नैतिक अनुबंध है जहां बच्चों को संरक्षण, मूल्य और प्रेम मिलता है। परंतु जब वही संस्था अपवित्र हो जाए, और माता-पिता स्वयं अपने बच्चों के अपराधी बन जाएं, तब सामाजिक ताना-बाना ढहने लगता है। यह घटना स्पष्ट संकेत देती है कि आधुनिक समाज में रिश्ते अब भावना नहीं, स्वार्थ के समीकरण बन गए हैं। वह महिला नेत्री अपने प्रेमी के साथ जीवन बिताने की इच्छा में अपनी ही बेटी की बलि चढ़ा रही थी ये प्रेम नहीं, पाशविकता का आधुनिक संस्करण है। हमारे यहां ‘सनातन धर्म’ की धारणा केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं थी। उसमें परिवार एक धार्मिक संस्था मानी जाती थी। ‘गृहस्थ’ आश्रम सबसे महत्वपूर्ण आश्रम इसलिए माना गया क्योंकि उसमें संतुलन, प्रेम, जिम्मेदारी और नैतिकता का समावेश था। इन सबके बावजूद जब धर्म का नाम केवल जप और पर्व तक सिमट जाए, जब परिवारों में बस नाम भर की उपस्थिति रह जाए, तब यह ढांचा अंदर से सड़ने लगता है और जब वह सड़न इस तरह की घटनाओं के रूप में बाहर आती है, तो पूरा समाज स्तब्ध रह जाता है।

इस घटना से दो बातें स्पष्ट हैं एक यह कि भारत की पारंपरिक पारिवारिक संरचना अब संकट में है, और दो, नैतिक मूल्यों की शिक्षा अब केवल विद्यालयों या ग्रंथों का विषय नहीं, बल्कि जीवन का अनिवार्य हिस्सा बननी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि हम देश को बचाने के नारे न दें, परिवार को बचाने की जिम्मेदारी समझें। क्योंकि बिना परिवार के कोई राष्ट्र नहीं होता। राष्ट्र की आत्मा उसके परिवारों में ही बसती है। जब परिवार टूटता है, तो संस्कृति बिखरती है। जब संस्कृति बिखरती है, तो सभ्यता मर जाती है। इस पूरे प्रकरण में यदि कोई प्रकाश की किरण है, तो वह लड़की का पिता है जिसने न्याय की मांग की, केस दर्ज करवाया, और एक असहाय बेटी के लिए आवाज़ उठाई। यह दुर्लभ है, क्योंकि अधिकांश मामलों में पुरुष भी या तो अपराधी बन जाते हैं, या चुप्पी ओढ़ लेते हैं। यह एक नन्हीं आशा है कि शायद समाज अब चुप नहीं रहेगा। समाज को अब ‘परिवार बचाओ आंदोलन’ की आवश्यकता है जो महज भावनात्मक नहीं, बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर पुनरुद्धार करे। हमें फिर से उन मूल्यों की ओर लौटना होगा, जहां मां का अर्थ जन्म देना नहीं, सुरक्षा देना था। जहां पिता कमाने वाला नहीं, नैतिक संरक्षक होता था। जहां बच्चे कर्तव्यों के बोझ तले नहीं, स्नेह और समझदारी से पले-बढ़ते थे। अब भी समय है। इस एक घटना को केवल न्यूज हेडलाइन न बनने दें। इसे समाज की आत्मा पर लगे कलंक के रूप में लें। उस बच्ची के आंसुओं को सहानुभूति से नहीं, व्यवस्था और चेतना से जवाब दें। मां को देवी बनाना है तो पहले मां को फिर से संवेदना का स्त्रोत बनाना होगा। वरना, अगली बार जब बच्चा रोएगा, तो वह अपने दर्द से नहीं, हमारी चुप्पी से भी घायल होगा।