चीन की डगमगाती अर्थव्यवस्था कोई चालाकी तो नहीं?

ऋतुपर्ण दवे

दुनिया के पास अब तमाम वो कारण हैं जिससे यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि चीन की अर्थव्यवस्था एक बार फिर बहुत बुरे दौर में है। कोरोना वायरस को लेकर पहले से दुनिया भर में शक की निगाहों से देखे जाने वाले चीन ने भी इस महामारी के चलते जबरदस्त मंदी का दौर देखा। लेकिन तब इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया क्योंकि हर कहीं मांग और आपूर्ति की श्रंखला धीमी पड़ गई थी। यह भी सच है उस समय बाजार से ज्यादा लोगों को जान की परवाह थी। इस कारण भी एक तरह से पूरी दुनिया ने ये समझौता कर लिया था कि पहले जान फिर जहान। लेकिन कोविड के धीमें पड़ते ही जब पूरी दुनिया अपनी बरबाद अर्थव्यवस्था को लेकर तमाम तरह के जतन में जुट गई तब चीन में ऐसा क्या हुआ कि पूरी अर्थव्यवस्था जबरदस्त डगमगाने लगी?

अगर केवल एक वर्ष का अन्तर देखें तो बीते जुलाई के मुकाबले इस बार 2.1 प्रतिशत गिरावट आई। जुलाई 2022 में यह 14.5 प्रतिशत थी जबकि इस बार 12.4 प्रतिशत पहुंच गई। इतना ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रो कोष के पिछले साल के आंकड़ेंही सारी कहानी बयां करते हैं।आयात और निर्यात दोनों में गिरावट के चलते चीन की विकास दर 1976 के बादपहली बार घटकर 3प्रतिशत पर आ गई जो कोविड के दौर को छोड़कर सबसे कम थी।परदे के पीछे कहीं न कहीं चीन की सत्ता का खेल भी समझ आता है। गौरतलब है कि चीन ने परमाणु शस्त्रागार की जिम्मेदारी संभालने वाले दो टॉप जनरलों को सफाई का मौका दिए बगैर सीधे बर्खास्त कर दिया।इसे क्या समझा जाए कि बर्खास्त सैन्य जनरलों की जगह कम अनुभव वाले अधिकारियों को बिठाना भ्रष्टाचार से लड़ने की मजबूरी है या वजह सत्ता में बने रहने की जिद?पूरी दुनिया को पता है कि वहां की स्थानीय सरकारें कर्ज के बोझ तले दबी हैं, भ्रष्टाचार रोकने के लिए रेगुलेटर कंपनियों पर नकेल कसने की कोशिशें जोरों पर हैं। वहां युवाओं में बेरोजगारी भी अपने रिकॉर्ड स्तर पर है।

अर्थजगत के जानकारों का मानना है कि ऐसे हालात थोड़े और समय तक रहे तो चीन के आर्थिक विकास की दर और नीचे जा सकती है। चूंकि वहां खर्चों में पहले ही लगाम लगी है ऐसे में उत्पादन और घटा तो बेरोजगारी अपने चरम पर होगी। मामला केवल सप्लाई और डिमाण्ड तक होता तो भी बात समझ आती।मौजूदा आर्थिक हालात इसी से समझ आते हैं कि चीनीरीयल इस्टेट कारोबार भीजबरदस्त मुश्किलों से घिरा है। सबसे बड़ी रीयल इस्टेट कंपनी एवरग्रैंड लगभग दिवालिया हो चुकी है। सरकार इसे ऑक्सीजन देकर किसी तरह जिन्दा रखे है और कोशिशें हैं कि फिर उठ खड़ी हो।

यदि आईएमएफ के आंकड़ों को देखें तो कहानी साफ है। 2021 में चीन की अर्थव्यवस्था 8.4 प्रतिशत की रफ्तार में थी जो 2022 में 3 प्रतिशत पर आ टिकी।अब 2023 में यह 5.2 प्रतिशत तक बढ़ना अनुमानित है। बावजूद इसके चीन अपनी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने खातिर कोई कदम उठाता नहीं दिखता। निश्चित रूप से 18 ट्रिलियन डॉलर की चीनी अर्थव्यवस्था अभी काफी सुस्त है। इसे परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्सि यानी पीएमआईसे भी समझना होगा जो एक मिश्रित सूचकांक होता है।इससे मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर का आंकलन होता है। इसमें विभिन्न कारोबारों से जुटे प्रबंधकों की रायशुमारी तथा उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित अंकों से किसी भी कारोबारी गतिविधि का विस्तार और सफलतापता चलती है। आंकड़ों के लिहाज से 50 को आधारमाना जाता है। जहां आंकड़े 50 से ऊपर होते हैं वहां मान लिया जाता है कि कारोबार विस्तार की ओर है। जहां ये नीचे चले जाते हैं वहां पतन की तरह देखा जाता है। चीन का जून में पीएमआई सूचकांक 50.5 था जो जुलाई में 49.1 पर जा गिरा।ये व्यापार के लिहाज से अच्छा नहीं है। अभी जुलाई में घरों की बिक्री में 33 प्रतिशत तक की गिरावट आई जो रियल स्टेट के हालातों का इशारा है।

यह भारत के लिए फायदेमंद और नुकसानदेह दोनों हो सकता है। तेल में गिरावट होने पर भारत दुनिया से आपूर्ति में अपना हिस्सा बढ़ाकर ज्यादा मुनाफाकमा सकेगा।लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन ही भारत का बड़ा बिजनेस पार्टनर है। न-न करते 2021-22 में उसके साथ 11.2 प्रतिशत साझेदारी रही जो करीब 116 अरब डॉलर के आसपास है। ऐसे में यदि चीन खर्चों में कटौती करेगा तो भारत से निर्यात घटेगा।वहीं भारतीय बाजार थोक में चीनी सामानों से पट जाएंगे। दवा, सोलर सेल व पार्ट्स, इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरियों परहम चीन पर ही निर्भर हैं।इनका प्रभावित होना तय है।

अर्थव्यवस्था की बदहाली से पहले भी तमाम कारणों के चलते चीन दुनिया भर में शक की निगाहों से देखा जाता है।इसीलिए उंगलियां उसी पर उठ रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने घरेलू बाजार पर ध्यान देने की रणनीति हो?तमाम उद्योग प्रधान देश सस्ते चीनीसामान के आगे अपना सामान नहीं बेच पाएं?ऐसा होने सेप्रभावित देशों के निवेश में जबरदस्त कमी आएगी और बेरोजगारी भी बढ़ेगी। बांकी दुनिया समस्या से जूझेगी कि सस्ते चीनी सामान के आगे स्वदेशी और मंहगी लागत से बने उनके सामान कैसे बिकेंगे? कहीं चीन की कुटिलता तो नहीं?अनेकों मामले में वह दुनिया की आंखों की किरकिरी पहले से ही है। अब वजह जो भी हो परन्तु सच्चाई यही है कि चीनी अर्थव्यवस्था अभी फिसलन पर जरूर है और संभावितनतीजे समझ से परे हैं।