लघुकथा : प्रेम परोसती हो

सतीश “बब्बा”

संदीप की पत्नी संदीप को आज इसलिए इस रेस्टोरेंट में लेकर आई थी ताकि संदीप का कद शर्मा के कद से कम न रहे! और शर्मा की पत्नी के सामने मैं यह कह सकूं कि, ‘हम कम नहीं हैं!’

शर्मा की तनख्वाह और ओहदा, संदीप की तनख्वाह और ओहदा से कम था।

संदीप की पत्नी प्रिया ने देखा कि, एक टेबल पर शर्मा भी सपरिवार बैठे हैं और तमाम आइटम के आर्डर दे रहे हैं।

वसुंधरा ने पिज्जा मंगाया तो संदीप ने कहा, “एक में ही दोनों जन खा लेंगे!”

वसुंधरा ने सोचा ए साबूदाना के बड़े बहुत पसंद करते हैं तो वसुंधरा ने साबूदाना के बड़े भी मंगाया।

टेबल पर सब कुछ आ गया था और वसुंधरा गौर कर रही थी कि, रेस्टोरेंट की इस अच्छी सामग्री को जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं लेकिन संदीप मेरा मन रखने के लिए खा रहे हैं; उनका इंट्रेस्ट नहीं है। वसुंधरा को ही ज्यादा खाना पड़ रहा था। फिर भी वसुंधरा ने वहां कुछ कहा नहीं।

वसुंधरा घर आकर संदीप से कहा, “क्या बात है आप मन से नहीं खा रहे थे! क्या पैसों की सोच रहे थे? अब तो हम दोनों हैं लड़के बहू तो खुद कमा खा रहे हैं!”

संदीप ने वसुंधरा को अंक में भर लिया और कहने लगा कि, “ऐसी बात नहीं है! तुम्हारे पास ही तो सभी पैसे रहते हैं; मैंने कभी तुम्हें रोका है क्या?और जरूरत पर मैं अपने लिए मांग लेता हूं!”

वसुंधरा ने कहा, “तो फिर बात क्या है, कहो न!”

संदीप ने प्यार से वसुंधरा को चूम लिया और कहने लगा, “वसुंधरा तुम बहुत भोली हो! तुम जो भी बनाती हो उसका स्वाद ही कुछ और होता है; क्योंकि तुम उसमें प्यार परोसती हो!”

वसुंधरा पति की बातें सुनकर बहुत खुश हुई थी, फिर भी बनावटी गुस्से में कहा, “तुम्हें अब भी जवानी सूझती है; जब देखो तब प्रशंसा करते रहते हो मेरी बुढ़ापे में!”

संदीप ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “तन बूढ़ा हो सकता है, मन नहीं! और हम बूढ़े नहीं होंगे कभी भी, तुम मेरी जिंदगी हो यार!”
संदीप ने यह कहकर वसुंधरा को और अपने सीने से चिपका लिया और उसके माथे को चूम लिया।
वसुंधरा की आंखों से प्रेमाश्रु बह चले और वह संदीप से और चिपक गई।

उनके प्यार को देखकर दूर गगन में उड़ते पंछी भी खुश थे!