रमेश सर्राफ धमोरा
विनायक दामोदर सावरकर भारत के महान क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, इतिहासकार, राष्ट्रवादी नेता तथा विचारक थे। उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार भी थे। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद, मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक तर्कबुद्धिवादी व्यक्ति थे जो सभी धर्मों के रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे।
विनायक सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र में नासिक के भागुर गांव में हुआ था। उनकी माता राधाबाई तथा पिता जी दामोदर पन्त सावरकर थे। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता का देहान्त हो गया। 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता भी स्वर्ग सिधार गये थे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला। दुःख की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। घर में आर्थिक संकट के बावजूद भाई बाबाराव ने विनायक की शिक्षा जारी रखी। इसी दौरान विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन कर नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करते थे। 1901 में यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी।
1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।
10 मई 1907 को उन्होंने इंडिया हाउस लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातंत्रता का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ इण्डिपेण्डेंस 1857 तैयार हो गयी थी। परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। बाद में यह पुस्तक गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया था। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।
सावरकर ने लन्दन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहना आरम्भ कर दिया था। इण्डिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केन्द्र था जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने 1857 की क्रान्ति पर आधारित पुस्तकों का गहन अध्ययन किया और द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने इस बारे में भी गहन अध्ययन किया कि अंग्रेजों को किस तरह जड़ से उखाड़ा जा सकता है।
लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। मार्च 1910 में सावरकर को तोड़फोड़ और युद्ध के लिए उकसाने से संबंधित विभिन्न आरोपों में गिरफ्तार किया गया और उन्हें मुकदमे के लिए भारत भेजा गया। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी।
एक दूसरे मुकदमे में उन्हें भारत में एक ब्रिटिश जिला मजिस्ट्रेट की हत्या में उनकी कथित मिलीभगत का दोषी ठहराया गया था। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति की अलख जगाने के लिये के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी। जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सजा सुनाए जाने के बाद उन्हें जीवन भर के लिए हिरासत में रखने के लिए अंडमान द्वीप भेज दिया गया था। उन्हें 1921 में वहां से वापस भारत लाया गया और 1924 में नजरबंदी से रिहा कर दिया गया।
विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। सावरकर ने जीवन भर हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए ही काम किया। सावरकर को 1937 में पहली बार हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। जिसके बाद 1938 में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया। उन्हे लगातार 6 बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 10 नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। 8 नवम्बर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। भारत के इस महान क्रांतिकारी का 26 फरवरी 1966 को निधन हुआ।
वीर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी एवं प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए ही बीता। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुनः कागज पर लिखा। 5 फरवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट की धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन बाद में मुकदमे में अपर्याप्त साक्ष्य के कारण उन्हें बरी कर दिया गया था।
महान राष्ट्र भक्त वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग लंबे समय से की जा रही है। जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है। संसद में तो उनका चित्र लगाया जा चुका है। मगर केंद्र सरकार को वीर सावरकर की जन्म जयंती के अवसर पर उनके जैसे देशभक्त नेता को भारत रत्न देकर सम्मानित किया जाना चाहिए। ताकि सावरकर द्वारा राष्ट्र व समाज के लिए किए गए कार्यों को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित हो सके।
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)