ललित गर्ग
युग प्रवर्तक और युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंदजी भारतीय संन्यास परंपरा और भारतीय मेधा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। धर्म के साथ-साथ समाज में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास छुआ-छूत और पलायनवाद पर भी उन्होंने जमकर निशाना साधा था। धर्म को वह केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं मानते थे। इनकी नजर में धर्म मनुष्य के समपूर्ण विकास का माध्यम है। धार्मिक संकीर्णता से वे ऊपर थे औऱ समस्त विश्व को अपना परिवार मानने के भारतीय दर्शन के प्रचारक थे। वे अनूठे संन्यासी थे, उनकी कीर्ति युग-युगांे तक जीवंत रहेगी, क्योंकि उनका मानवहितकारी चिन्तन एवं कर्म कालजयी हैं, वे एक प्रकाश-स्तंभ हैं, भारतीय संस्कृति एवं भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधायक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक एवं आध्यात्मिक सोच के साथ पूरी दुनिया को वेदों और शास्त्रों का ज्ञान देने वाले एक महामनीषी युगपुरुष थे। जिन्होंने 4 जुलाई 1902 को महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए थे। उन्होंने अपना संकल्प पूरा किया, भारत को अध्यात्म के साथ विज्ञानमय बनाया, वे अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक थे। उन्होंने सारी वसुधा को अपना कुटुम्ब बनाने का सूत्र दिया, वसुधैव कुटुम्बकम का भारतीय मंत्र सारी दुनिया में पहुंचाया। जो अपने को प्रेम नहीं करता, वह किसी को प्रेम नहीं कर सकता। इसके लिये उन्होंने व्यापक प्रेम की वृत्ति और हृदय की विशालता को आवश्यक बताया।
स्वामी विवेकानन्द हिन्दुत्व की शुद्धि के लिये उठे थे और उनका प्रधान क्षेत्र धर्म था, उनकी दृष्टि में संन्यास एवं संतता संसार की चिन्ताओं से मुक्ति का मार्ग था। वे कहते थे कि चित्त शुद्धि के लिये अपने चारों ओर फैले हुए असंख्य मानवों की सेवा करो। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने के बजाय, आपस में झगड़े, नफरत, घृणा असैर विवाद के बजाय, तुम परस्पर एक-दूसरे के हो जाओ, एक दूसरे की अर्चना करो। इन्हीं उन्नत विचारो एवं पुरुषार्थ से उन्होंने अपना एवं असंख्य मानवों का भाग्य रचा। उन्होंने सम्पूर्ण मानव समाज, हिन्दू समाज का और उन सभी को नया जीवन दर्शन दिया, जिनके भीतर थोड़ी भी आस्था एवं आत्मविश्वास था कि हमारा जीवन बदल सकता है। जो अपनी माटी एवं संस्कृति के प्रति समर्पित थे। वे साहसी एवं अभय बनने की प्रेरणा देते हुए कहते थे कि अभय हो! अपने अस्तित्व के कारक तत्व को समझो, उस पर विश्वास करो। भारत की चेतना उसकी संस्कृति है। अभय होकर इस संस्कृति का प्रचार करो।’ वे अच्छे दार्शनिक, अध्येता, विचारक, समाज-सुधारक एवं प्राचीन परम्परा के भाष्यकार थे। काल के भाल पर कुंकुम उकेरने वाले वे सिद्धपुरुष हैं। वे नैतिक मूल्यों के विकास एवं युवा चेतना के जागरण हेतु कटिबद्ध, मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी, अध्यात्म दर्शन और संस्कृति को जीवंतता देने वाली संजीवनी बंूटी, वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु हैं। वे अनावश्यक कर्मकांडों के विरुद्ध थे और हिन्दू उपासना को व्यर्थ के अनेक कृत्यों से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने समाज की कपट वृत्ति, दंभ, क्रूरता, आडम्बर और अनाचार की भर्त्सना करने में संकोच नहीं किया।
स्वामी विवेकानन्द में सम्पूर्ण नारी समाज के लिये असीम उदारता एवं सम्मान का भाव था। उनका मानना था कि नारियां महाकाली की साकार प्रतिमाएं हैं। यदि तुमने उन्हें ऊपर नहीं उठाया, तो तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे। नारी सम्मान में ही तुम्हारी उन्नति का मार्ग है। संसार की सभी जातियां नारियों का समुचित सम्मान करके ही महान हुई हैं। जो जाति नारी का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न भविष्य में उन्नति कर सकेगी। इसी तरह उन्होंने समाज की युवाओं को सबल बनाने की प्रेरणा दी। उनकी हमेशा यही शिक्षा रही कि आज के युवक को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति की जरूरत है। वे युवकों में जोश भरते हुए कहा करते थे कि उठो मेरे शेरांे! इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो। वे एक बात और कहते थे कि जो तुम सोचते हो वह हो जाओगे। ऐसी ही कुछ प्रेरणाएं हैं जो आज भी युवकों को आन्दोेलित करती है, पथ दिखाती है और जीने का दर्शन प्रदत्त करती है। इन्हीं सुलझे एवं उच्च विचारों के कारण वे तत्कालीन युवापीढ़ी के आकर्षण का केन्द्र बने, इसमें कोई शक नहीं कि वे आज भी अधिकांश युवाओं के आदर्श हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नया भारत निर्मित करने की बात कर रहे हैं, उसका आधार स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं एवं प्रेरणाएं ही हैं।
भारत में विवेकानंद को एक देशभक्त संत एवं भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा पुरुष के रूप में माना जाता हैं। वे अध्यात्म की अतल गहराइयों में डुबकी लगाने वाले योग साधक थे तो व्यवहार में जीने वाले गुरु भी थे। वे प्रज्ञा के पारगामी थे तो विनम्रता की बेमिशाल नजीर भी थे। वे करुणा के सागर थे तो प्रखर समाज सुधारक भी थे। उनमें वक्तृता थी तो शालीनता भी। कृशता थी तो तेजस्विता भी। आभिजात्य मुस्कानों के निधान, अतीन्द्रिय चेतना के धनी, प्रकृति में निहित गूढ़ रहस्यों को अनावृत्त करने में सतत् संलग्न, समर्पण और पुरुषार्थ की मशाल, सादगी और सरलता से ओतप्रोत, स्वामी विवेकानन्द का समग्र जीवन स्वयं एक प्रयोगशाला था, एक मिशन था, भारतीय संस्कृति के अभ्युदय का अनुष्ठान था।
स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में उनके प्रयासों एवं प्रस्तुति के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक मूल्यों को सुदृढ़ कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं। इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। वे बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। वे पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था।
स्वामी विवेकानन्द हर इंसान को शक्ति एवं समझसम्पन्न मानते थे, विश्व का हर कण शक्ति का अक्षय भंडार है और असीम स्रोत है। विश्व का दीप वह बनता है जो इस सत्य को अभिव्यक्ति देता है और दूसरों में अनुभूति की क्षमता जागृत करता है। हर युग हजारों संभावनाओं को लिए हुए हमारे सामने प्रस्तुत होता है। युग का नेतृत्व वह करता है जो उन संभावनाओं को वर्तमान का परिधान दे पाता है। वर्तमान युग संघर्षों का युग है। आज का प्रबुद्ध मनुष्य प्राचीन मूल्यों के प्रति आस्थावान होकर नए मूल्यों की स्थापना के लिए कृत-संकल्प है। युग का प्रधान वही हो सकता है जो इस संकल्प की पूर्ति में योग दे सकता है। स्वामी विवेकानन्द विश्वदीप थे, युग नेतृत्व के सक्षम आधार थे एवं नये धर्म के प्रवर्त्तक थे। उन्होंने भौतिकता के वातावरण में अध्यात्म की लौ जलाकर उसे तेजस्वी बनाने का उल्लेखनीय उपक्रम किया था। उन्होंने अध्यात्म साधना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कही। विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों के माध्यम से उन्हांेने अध्यात्म को एक नई पहचान दी। स्वामी विवेकानन्द पुण्यतिथि पर उनको हार्दिक नमन!