संदीप ठाकुर
भारतीय जनता पार्टी पांच राज्यों के हाेने जा रहे विधानसभा चुनाव में
केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों काे क्याें लड़ाना चाहती है ? क्या पार्टी
काे संभावित हार का डर सता रहा है या फिर उनके पास चुनाव लड़ाने के लिए
याेग्य उम्मीदवार नहीं है। दरअसल ये दाेनाें बातें सच हैं। इसलिए केंद्र
से दमदार नेता भेजे जा रहे हैं। लेकिन जिन सांसदाें काे पार्टी विधायक
बनाने पर तुली है वे खुल कर अपना विराेध ताे दर्ज नहीं करा पा रहे हैं
लेकिन अंदर ही अंदर वे दुखी हैं। भाजपा के मजबूत नेता माने जाने वाले
कैलाश विजयवर्गीज का साेशल मीडिया पर वाइरल हुआ एक विडियाे ताे कम से कम
यही बता रहा कि केंद्र में राजनीति करने वाले नेता राज्य में जाना नहीं
चाहते हैं। वर्गीज इस विडियाे में खुल कर कहते देखे जा सकते हैं कि वे
चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे लेकिन अब मजबूरन उन्हें चुनाव लड़ना पड़ेगा।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए जारी उम्मीदवारों की दूसरी सूची में
भाजपा ने एमपी चुनावों के लिए तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत कुल सात
सांसदों को टिकट दिया है। साथ ही, कैलाश विजयवर्गीय जैसे प्रभावशाली और
चर्चित चेहरे को इंदौर 1 सीट से विधानसभा चुनाव का टिकट दिया है। कहा जा
रहा है कि भाजपा की राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के लिए आने वाली
उम्मीदवारों की लिस्ट में भी कुछ ऐसा ही फॉर्मुला मिलने की पूरी संभावना
है। पार्टी के अतीत के प्रयोगों पर नजर डालें तो पश्चिम बंगाल और
त्रिपुरा में भाजपा ने अपने केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतारकर
मिला-जुला परिणाम हासिल किया था। एक तरफ त्रिपुरा में केंद्रीय मंत्री
प्रतिमा भौमिक ने 68 हजार मतों के भारी अंतर से जीत दर्ज की थी तो प.
बंगाल में उसके पांच में से तीन सांसद हार गए थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश
के पिछले विधानसभा चुनाव में भी केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल को
समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश
यादव के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। तो सवाल है कि बहुत प्रभावी
परिणाम नहीं आने के बाद भी बीजेपी अपने सांसदों को प्रदेशों के चुनावी
चौसर में क्यों धकेलती है?
भाजपा के एक नेता ने बताया कि केंद्र की राजनीति से प्रदेशों में भेजे गए
नेता भले ही चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित नहीं कर पाते हों, लेकिन
उनके असर से आसपास के क्षेत्रों में भाजपा को फायदा मिल जाता है। पश्चिम
बंगाल की ही बात करें तो भले ही वहां केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो,
लोकसभा सांसद लॉकेट चटर्जी और राज्यसभा सांसद स्वप्न दासगुप्ता विधानसभा
चुनावों में खुद नहीं जीत सके, लेकिन उन सभी के प्रभाव से आसपास के
क्षेत्रों में कई बीजेपी उम्मीदवार की किस्मत चमक गई। प. बंगाल के पिछले
चुनाव में बीजेपी को 77 विधायक मिले। पांच साल पहले यह संख्या सिर्फ तीन
तक सीमित थी। इसी तरह, उत्तर प्रदेश की करहल सीट पर केंद्रीय मंत्री एसपी
सिंह बघेल सपा प्रमुख अखिलेश यादव से हार गए, लेकिन उन्होंने पूर्व
मुख्यमंत्री को अच्छी टक्कर दी। अखिलेश को 1 लाख 47 हजार 237 वोट मिले
जबकि एसपी सिंह बघेल को 80 हजार 455 वोट हासिल हुए। लेकिन अखिलेश के पिता
मुलायम सिंह यादव के जमाने से ही सपा का गढ़ रही मैनपुरी सीट के साथ-साथ
भोगांव सीट पर भी बीजेपी का कब्जा हो गया। कुल मिलाकर करहल और किशनी सीट
सपा के पास गई तो मैनपुरी और भोगांव बीजेपी के खाते में आ गई। यानी
परिणाम दो-दो से बराबर का रहा।
भाजपा इन्हीं प्रयाेग के आधार पर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और
तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में भी सांसदों, मंत्रियों समेत बड़े-बड़े
चेहरों को टिकट देकर बड़ा दांव खेलना चाहती है। पार्टी के शीर्ष का मानना
है कि बड़े नेताओं को टिकट मिलने से निचले स्तर के कार्यकर्ताओं का
उत्साह कई गुना बढ़ जाता है। इस कारण चुनाव में अपने नेता की जीत
सुनिश्चित करने के लिए वे जी-जान लगा देते हैं। बड़े-बड़े चेहरों को
चुनाव लड़ाने से पार्टी को राजनीतिक अनुभव और लोकप्रियता का लाभ मिलता
है। इन नेताओं के पास चुनाव जीतने का बेहतर मौका होता है और वे पार्टी के
लिए वोट जुटाने में भी मदद कर सकते हैं। राजस्थान में भी तीन केंद्रीय
मंत्रियों, गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी और अर्जुन राम मेघवाल, और
चार सांसदों को टिकट दिए जाने की अटकलें लग रही हैं। इसके अलावा भागीरथ
चौधरी, डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, सुखबीर सिंह जौनपुरिया जैसे सांसदों को भी
विधानसभा चुनाव लड़ने को कहा जा सकता है। तेलंगाना से बीजेपी के चार
सांसद हैं। पार्टी ने उनमें से एक जी. किशन रेड्डी को केंद्रीय मंत्री और
तेलंगाना प्रदेश का अध्यक्ष बना रखा है। बीजेपी के तेलंगाना से तीन अन्य
सांसद संजय बांदी, अरविंद धर्मपुरिया और सोयम बाबू राव हैं। संभव है कि
सभी चारों सांसदों को बीजेपी विधानसभा चुनाव लड़वा सकती है क्योंकि
पार्टी इस बार तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) के
नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की सरकार को पलटने में कोई
कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती।