ललित गर्ग
दुुनिया की बहुत बड़ी शक्ति होती है-शिक्षक, उनकी प्रासंगिकता, अनिवार्यता और उपयोगिता कभी समाप्त नहीं हो सकती। शिक्षकों के कंधों पर ही उन्नत विश्व के निर्माण का गुरुत्तर दायित्व होता है। यदि इस दायित्व में थोड़ी-सी भूल रह जाती है तो समाज, राष्ट्र एवं विश्व के निर्माण की नींव खोखली रह जाती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्वपूर्ण इकाई संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा विश्व शिक्षक दिवस की शुरूआत 5 अक्टूबर, 1994 को गयी थी। इसका उद्देश्य विश्वभर के शिक्षकों द्वारा विश्व के लगभग दो अरब पचास करोड़ बच्चों के जीवन निर्माण मंे दिये जा रहे महत्वपूर्ण योगदान पर विचार-विमर्श करना है। यूनेस्को अपने कार्यक्रमों के द्वारा विश्व को शिक्षा, विज्ञान, शांति एवं प्रगति का सन्देश देने के लिए कृत संकल्पित है। प्राचीन समय से भारत शिक्षा का बड़ा केन्द्र रहा है और उसने संसार में जगतगुरु की भूमिका निभाई है।
आर्थिक आपाधापी, आतंक, युद्ध एवं हिंसा के आधुनिक युग में शिक्षकों की भूमिका बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि वे छात्रों को न केवल ज्ञान देते हैं, बल्कि उन्हें जीवन में जरूरी कौशल भी सिखाते हैं। शिक्षक छात्रों के साथ सहयोग करते हुए उन्हें नैतिक मूल्यों एवं शांतिपूर्ण जीवन के बारे में भी समझाते हैं जो एक अच्छे नागरिक के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षक को ऐसे छात्र तैयार करने होंगे जो वैज्ञानिक-आध्यात्मिक हो, जिनमें बौद्धिकता एवं भावनात्मकता के साथ शारीरिक एवं मानसिक विकास हो। प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. ए. एस. अल्तेकर ने लिखा है-‘‘शिक्षा प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत है, जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरंतर सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे उत्कृष्ट बनाती है।’’ जब आधारभूमि मजबूत बन जाती है, नींव और खम्भे मजबूत बन जाते हैं तब प्रासाद को खड़ा किया जा सकता है। जब वैयक्तिक चेतना पवित्र बनती है जब सामुदायिक चेतना के विकास की बात आती है, यही विश्व चेतना को मजबूती देती है। विश्वमानव के आधार पर होने वाली शिक्षा तभी पवित्र एवं प्रभावी होगी, जब उसकी पृष्ठभूमि में मानवीय चेतना या वैयक्तिक चेतना की भूमिका पवित्र बनी हुई है।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नेल्सन मंडेला ने कहा था कि ‘‘संसार में शिक्षा ही सबसे शक्तिशाली हथियार है जो दुनिया को बदल सकती है।’’ युद्ध के विचार मानव मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के विचार ग्रहण करने की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन है। मानव मस्तिष्क में शान्ति के विचार बचपन से ही डालना होगा। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालक को सारे विश्व से प्रेम करने के विश्वव्यापी दृष्टिकोण को विकसित करें। ग्लोबल विलेज के युग में सारे विश्व की एक जैसी शिक्षा प्रणाली होनी चाहिए। विश्व एकता की शिक्षा इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव डा0 कोफी अन्नान ने कहा था कि ‘‘मानव इतिहास में बीसवीं सदी सबसे खूनी तथा हिंसा की सदी रही है।’’
बीसवीं सदी में विश्व में दो विश्व महायुद्धों, हिरोशिमा तथा नागाशाकी पर दो परमाणु बमांे का हमला तथा अनेक युद्धों की विनाश लीला का ये सब तण्डाव संकुचित राष्ट्रीयता के कारण हुआ है, इसी के कारण करीब डेढ़ वर्ष से लगातार रूस-यूक्रेन युद्ध चल रहा है, जिसके लिए सबसे अधिक दोषी हमारी शिक्षा है। विश्व के सभी देशों के स्कूल अपने-अपने देश के बच्चों को अपने देश से प्रेम करने की शिक्षा तो देते हैं लेकिन शिक्षा के द्वारा सारे विश्व से प्रेम करना नहीं सिखाते हैं। यदि विश्व सुरक्षित रहेगा तभी देश सुरक्षित रहेंगे और तभी व्यक्ति सुरक्षित रहेगा। पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री जॉन डयूवी ने लिखा है- ‘‘शिक्षक बालक के लिए सदैव परमात्मा का पैगम्बर होता है, जो परमात्मा के सच्चे राज्य में प्रवेश कराने वाला है।’’ एक अध्यापक स्रष्टा की भांति समाज की भावी पीढ़ी का निर्माण करके समाज द्वारा उत्पन्न शून्य को भरने का प्रयत्न करता है। यदि उसके दायित्व में कमी रहती है तो उसे क्षम्य नहीं माना जा सकता।
शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को अलग अलग रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को कांटों पर भी मुस्कुराकर चलने के लिए प्रेरित करता है। जे. कृष्णमूर्ति ने सच्चे अध्यापक की जो कसौटियां प्रस्तुत की हैं, वे उसके व्यक्तित्व के माहात्म्य को प्रकट करने वाली हैं- ‘‘सच्चा अध्यापक अभ्यंतर में समृद्ध होता है अतः अपने लिए कुछ नहीं चाहता, वह महत्वाकांक्षी नहीं होता, वह अपने अध्यापन को पद अथवा सत्ताधिकार प्राप्त करने का साधन नहीं बनाता, सच्ची संस्कृति इंजीनियरों और टेक्नीशियनों पर नहीं, अपितु शिक्षकों पर आधारित होती है। आज की शिक्षा मिशन न होकर, व्यवसाय बन गयी है। तमाम शिक्षक एवं शिक्षालय अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। वर्तमान विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरु-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा छात्रों एवं छात्रों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार, मारपीट एवं अनुशासनहीनता की खबरें सुनने को मिलती हैं। विश्व शिक्षक दिवस एक अवसर है जब हम धुंधली होती शिक्षक की आदर्श परम्परा एवं शिक्षा को परिष्कृत करनेे और जिम्मेदार व्यक्तियों का निर्माण करने का कार्य करें।
वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका भले ही बदली हो, लेकिन उनका महत्व एवं व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी अधिक प्रासंगिक हुई है। क्योंकि सर्वतोमुखी योग्यता की अभिवृद्धि के बिना युग के साथ चलना और अपने आपको टिकाए रखना अत्यंत कठिन होता है। फौलाद-सा संकल्प और सब कुछ करने का सामर्थ्य ही व्यक्तित्व में निखार ला सकता है। शिक्षक ही ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार सर्वांगीण विकास का अर्थ है- हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म से महान। सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास हेतु शिक्षक आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार- इन सबका परिमार्जन करने का प्रयत्न करते रहते थे। भारत के मिसाइल मैन, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि अगर कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त है और सुंदर दिमाग का राष्ट्र बन गया है, तो मुझे दृढ़ता से लगता है कि उसके लिये तीन प्रमुख सामाजिक सदस्य हैं जो कोई फर्क पा सकते हैं वे पिता, माता और शिक्षक हैं।” डॉ. कलाम का यह उद्धरण विश्व में शिक्षकों के प्रभाव का प्रतीक है। शिक्षकों पर इस दुनिया में सबसे प्रेरक काम और एक बड़ी जिम्मेदारी है। शिक्षक का पद अत्यंत गरिमा पूर्ण होता है, क्योकिं जिस प्रकार खेती के लिए बीज, खाद एवं उपकरण के रहते हुए, अगर किसान नहीं हैं, तो सब बेकार है। उसी प्रकार विद्यालय के भवन, शिक्षण सामग्री एवं छात्रों के होते हुए, शिक्षक नहीं हैं तो सब बेकार है। महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में -‘व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन है। निःस्वार्थी और जागरूक शिक्षक ही किसी दूसरे व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है।’ हमने सुपर-30 फिल्म में एक शिक्षक के जुनून को देखा। इस फिल्म में प्रो. आनन्द के शिक्षा-आन्दोलन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुति दी गयी है।
आज शिक्षक एवं शिक्षा का महत्व ज्यादा है। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था-एक स्कूल खुलेगी तो सौ जेलें बंद होंगी। पर आज उल्टा हो रहा है। स्कूलों की संख्या बढ़ने के साथ जेलों के स्थान छोटे पड़ रहे हैं। जेलों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। स्पष्ट है- हिंसा और अपराधों की वृद्धि में वर्तमान शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षक भी एक सीमा तक जिम्मेदार है। प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ रहा अर्थात् विद्या वही है, जो मुक्ति दिलाए। आज शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या नियुक्तये’ हो गया है अर्थात् विद्या वही जो नियुक्ति दिलाए। इस दृष्टि से शिक्षा के बदलते अर्थ ने विश्व मानसिकता को बदल दिया है। यही कारण है कि आज समाज में लोग केवल शिक्षित होना चाहते हैं, सुशिक्षित-संस्कारी नहीं बनना चाहते। वसुधैव कुटुम्बकम के उद्घोष के अनुरूप विश्व को एक परिवार बनाने की महती सोच विकसित हो रही है, इसी के साथ पूरी दुनिया में ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’ पॉलिसी पर काम किया जाना अपेक्षित है। इसके लिये अपेक्षित है कि केवल शिक्षा क्रांति ही नहीं, बल्कि शिक्षक क्रांति का शंखनाद हो।