विनोद तकियावाला
हमारा देश पर्व त्योहारों का देश है ।जिसका अपना आध्यात्मिक महत्व है।जिसका वर्णन हमारे धार्मिक ग्रंथो पुरानों में उल्लेख मिलता है।दिवाली का महत्व इसलिए है।कई इसके पीछे धर्म कथा व किंदवन्ती कथाएं प्रचलित है।आप को बता दे कि दिवाली अपने संग कई त्योहारो को अपने संग लाती है।दीपावली के पूर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी
(धनतेरस)से कार्तिक शुक्ल द्धितीया(भाईदूज)तक मनाया जाने वाला पंच-महोत्सव पर्व है।कार्तिक मास की अमावस्या ‘दीपावली ‘भारतीय सभ्यता,संस्कृति की अस्मिता की पहचान है।इन 5 दिनों में सर्वप्रथम त्रयोदशी को धनतेरस का त्योहार आता है।इस दिन भगवान धनंवतरी का पूजन होता है,दूसरे दिन यमराज के निर्मित नरक चतुर्दशी(रूप चौदस)मनाई जाती है जिसे छोटी दीपावली भी कहते है।इस दिन सुबह हल्दी ,सरसों तेल,आटे और बेसन के उबटन से नहाकर नये वस्त्र पहनकर दिया जलाते है।तीसरे दिन दीपावली,कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को,जो अँधेरे में रौशनी,असत्य पर सत्य,अर्थात नकारात्मक भावों पर सकरात्मक भावों की जीत का त्योहार मनाते है।इस दिन श्री लक्ष्मी जी के पूजन का विशेष विधान है। हिन्दू धर्म के ब्रह्मपुराण के अनुसार इस दिन अर्धरात्रि के समय महा लक्ष्मी जी सद्गृहस्थों के मकानों में यत्र -तत्र विचरण करती हैं।इसलिए इस दिन घर -बाहर को खूब साफ -सुथरा करके,आम के पत्तों,केले का खम्ब और फूलों और रंगोली से सजाया -संवारा जाता हैं।दीपावली मनाने से श्री लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर स्थायी रूप से भक्तों के घर निवास करती हैं। चौथे दिन गोवर्धन पूजा तथा पांचवें दिन द्धितीया को भाईदूज,जिन्हें विभिन्न वर्गों के लोग बड़ी श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।वास्तव में दीपावली धनतेरस,नरक चतुर्दशी तथा महालक्ष्मी पूजन-इन तीनों पर्वों का संगम हैं।दीपावली मनाने के पीछे धार्मिक मान्यताएं हैं।बाल्मीकि रामायण के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम14वर्ष का वनवास पूरा करके तथा आसुरी वृत्तियों के प्रतीक रावणादि का संहार करके अयोध्या पधारे थे।तभी से अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में और राम के राज्यारोहण पर दीपमालाएं जलाकर महोत्सव ‘दीपावली पर्व’मनाया था।
वामनपुराण के अनुसार विष्णु धर्मकथा -दीपावली पंच -महोत्सव पर्वों का समूह हैं!ब्रह्मपुराण के अनुसार इस दिन अर्धरात्रि के समय महालक्ष्मीजी सद्गृहस्थों के मकानों में यत्र -तत्र विचरण करती हैं। इसलिए इस दिन घर -बाहर को खूब साफ -सुथरा करके,आम के पत्तों,केले का खम्ब और फूलों और रंगोली से सजाया -संवारा जाता हैं। दीपावली मनाने से श्री लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर स्थायी रूप से भक्तों के घर निवास करती हैं। चौथे दिन गोवर्धन पूजा तथा पांचवें दिन द्धितीया को भाईदूज ,जिन्हें विभिन्न वर्गों के लोग बड़ी श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।वास्तव में दीपावली धनतेरस ,नरक चतुर्दशी तथा महालक्ष्मी पूजन –इन तीनों पर्वों का मिश्रण हैं।
दीपावली मनाने के पीछे काफी मान्यताएं हैं।बाल्मीकि रामायण अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम 14 वर्ष का वनवास पूरा करके तथा आसुरी वृत्तियों के प्रतीक रावणादि का संहार करके अयोध्या पधारे थे।तभी से अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत की ख़ुशी में और राम के राज्यारोहण पर दीपमालाएं जलाकर महोत्सव ‘दीपावली पर्व ‘मनाया था।वही वामनपुराण के अनुसार विष्णु भगवान ने वामन अवतार के रूप में दैत्यों के राजा बलि से 3पग भूमि मांगी थी तो दो पगों में समस्त पृथ्वी और आकाश नाप लिया तथा तीसरे पग को राजा बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल भेज दिया।स्वर्ग मिलने के कारण प्रतिवर्ष यह पर्व आश्विन वदी दादश को मनाया जाता है।
द्धापर युग के अनुसार राजा नरकासुर नेअहंकार,मद वश इन्द्र का घोडा चुरा लिया तथा16000 कन्याओं को बन्दी बना लिया तब योगिराज श्रीकृष्ण ने उसका वध करके उन कन्याओं का उद्धार किया।वह दिन चतुर्दशी का था।बकासुर -वध के आनन्दोत्सव के रूप में भी दीपावली ब्रजवासियों ने मनायीं।दीपावली के पहले दिन धनत्रयोदशी(धनतेरस)को सभी वर्गअपने बजट के हिसाब से चाँदी,पीतल,काँसे के बर्तन खरीदते हैं।रात्रि में यम की दीया (जमदिया)जलाकर घर के मुख्य द्धार पर यम की पूजा करके रखा जाता है।आपको बता दे कि इसी दिन उज्जैन सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था यानी विक्रमी संवत का आरंभ भी इसी दिन से माना जाता है।अतः यह नए वर्ष का प्रथम दिन भी है। आज दिन व्यापारी गण अपने बही -खाते बदलते हैं तथा अपने वर्ष भर के लाभ -हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।इस दिन घूरे को भी पूजा जाता है!भारतीय सभ्यता व संस्कृति में ही यह अनूठी परम्परा है कि घूरे(कूड़ा दान रखने की जगह)के प्रति भी यहां सम्मान व्यक्त किया जाता है।समूचे वर्ष में एक शाम उसके नाम भी होती है।जिस घूरे ने वर्षभर हमारे घरों को साफ-सुथरा रखने के लिए अपने ऊपर टनों कूड़ा-कचरा फिंकवाया हों,वहीं दीपावली के दिन महालक्ष्मी के आगमन का मार्ग प्रशस्त करता है और स्वयं लोग उसी घूरे को अपने हाथों से साफ कर लक्ष्मी जी के आने की प्रतीक्षा में उनके लिए इतनी साफ-सफाई व शुद्धता दर्शाते हैं।
कहावत भी है कि ‘एक दिन घूरे के दिन भी फिरते हैं ‘और इस घूरे के दिन छोटी दीपावली के ही रोज फिरते हैं।जिस घूरे पर रोज घर का ढेरों कूड़ा-करकट फेंका जाता है,वहां दीपावली की शाम को घर की गृहणियां तेल का दीपक जलाती हैं।
‘कौड़ी’ धन -लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है- इसके साथ ही घूरे को प्रसाद के रूप में कौड़ी चढ़ाने की परम्परा है।यम दिवस के भी दिन जमदिया(यम दीपक)में कौड़ी डालकर घर के बाहर जलाने का रिवाज है,तेल शेष हो जाने पर दीपक तो बाहर छोड़ देते है पर कौड़ी उठाकर गल्ले या तिजोरी में रख देते हैं।कहते है कि ऐसा करने से धन-समृद्धि में बरकत होती है और मृत्यु के देवता हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं।घूरे पर चढ़ाई जाने वाली कौड़ी धन-लक्ष्मी की प्रतीक मानी जाती है।यूं भी कौड़ी ने अपने रंग-रूप,आकार व चमक -दमक से अपनी अलग ही पहचान बना रखी है।कौड़ियों से मनुष्य का बहुत प्राचीन रिश्ता रहा है। प्राचीन समय में लेन-देन भी कौड़ियों के जरिये होता था ,तब कोई रुपया व सिक्का नहीं था। बल्कि मोल-भाव में कौड़ियां ही गिन कर दी जाती थीं।कौड़ी का उपयोग आज भी विभिन्न समुदायों के लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता रहता हैं।भारतीय संस्कृति में रचे-बसे-तीज त्यौहार,शादी-ब्याह,जन्म-मरण ,साज -श्रृंगार व जादू-टोने में भी कौड़ी की पूछ-परख बरकरार है। बंगालियों में लक्ष्मीपूजन के अवसर पर श्रद्धालु अलग टोकरी सजाते हैं,उसे ढकने के लिए जिस कपड़े का उपयोग करते हैं वह पूरा कौड़ियों से मढ़ा होता हैं। कौड़ियां आदिमुद्रा हैं,हालांकि उनसे पहले मिट्टी के पक्के हुए ठीकरे चलते थे,लेकिन उनमें ठोस स्थावित्व न होने की वजह से उसका प्रचलन बंद हो गया। कौड़ियों के रूप में हीं सभ्यता का स्थायी मुद्रा से प्रथम परिचय हुआ था।मुद्रा के रूप में कौड़ियों का इस्तेमाल सबसे पहले भारत में हुआ था।इसके बाद ही एशियाई,अफ़्रीकी,यूरोपीय व अमरीकी देशों में भी कौड़ियों का प्रचलन शुरू हो गया।नवीं शताब्दी में भारतीय व्यापारी तो कौड़ियों के बूते पर सोना तक खरीदते थें।विश्व की सबसे महंगी कौड़ी’ प्रिंस कौड़ी ‘है जो 1करोड़ पौंड से भी महंगी होंगी।यह कौड़ी संसार में एक ही है,जो बिट्रिश संग्रहालय में रखी हुई हैं।इसी तरह’ गट्टाटा ‘कौड़ी भी है जो पूरे विश्व में कुल 30 ही हैं और एक कौड़ी की कीमत करीब15 हजार रूपये हैं।विश्व में कुल187 किस्मों की कौड़ियां हैं जिनमें 36किस्में भारत में पायी जाती हैं।राजमुदा का सम्मान प्राप्त कौड़ी को अमूल्य माना जाता है और इसी वजह से इस बेशकीमती कौड़ी को ही घूरे पर चढ़ाकर सम्मान दिया जाता है।
प्राचीनकाल में राजा हेमन्त के पुत्र को शाप मिला था कि विवाह होते ही काल का गास बन जायेगा।एक राजकुमारी से विवाह हुआ और राजकुमार की तुरन्त मृत्यु हो गई। राजकुमारी ने अपने करुण विलाप से यम से पति के प्राण वापस ले लिए।यम ने जीवनदान देते हुए कहा-‘जो व्यक्ति इस दिन अखण्ड दीपक जलाकर यम (मेरा)का पूजन करेगा ,वह कभी अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीँ होगा। इसलिए आज भी यमराज को प्रसन्न करने के लिए ‘घूरे ‘को अपने हाथों से साफ कर वहां पर घर की गृहणियाँ तेल का दीपक जलाती हैं।’घूरे’पर चढ़ाई जाने वाली कोड़ी धन लक्ष्मी का प्रतीक मानी जाती है।ऐसा माना जाता है कि जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने इसी दिन निवार्ण प्राप्त किया था। दीपों के प्रकाश में आध्यात्मिक दीपक काआह्वान किया।मानवता को सनातन सर्वोदय चेतना देकर अमृतपान कराया,इसलिए हर्षोल्लास से दीपावली पर्व मनाते हैं।संत ज्ञानेश्वर ने दीपावली को ‘ ऐसा आध्यात्मिक पर्व ‘बताया जो मन के अज्ञान को दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाता है।
अकाल से दुःखी राजा अग्रसेन ने वन में जाकर माता लक्ष्मी की घोर तपस्या की।जिस पर माता लक्ष्मी ने साक्षात दर्शन दिए।राज्य में वर्षा करा दी,तभी से भारत में सनातन धर्म को मानने वाले दीपावली पर्व पर श्री गणेश और माता लक्ष्मी की पूजा करतें हैं। लक्ष्मी के स्वागत में लोग अपने घरों की खूब अच्छे से चूल-धूल झाड़कर सफाई,रंग-रोगन करते हैं द्वार पर रंगोली सजाई जाती हैं ,तरह-तरह के लजीज पकवान जैसे –गुझियां,सवाली,नमकीन पेठा,दाल का हलवा ,मोतीचूर के लड्डू ,दिल खुशाल की चक्की,माठी,शक्करपारे,खीर (मीठे भात),चूरमा -दाल -बाटी ,पूरी,केर-सांगरी की सब्जी,आलूदम,दही बड़े और न जाने क्या-क्या ।
आतिशबाजी(आकाशदीप,कंडील ),पटाखें,अनार,फुलझड़ी जलाई जाती हैं।पूरा देश रंग-बिरंगी रोशनाई(प्रकाश)से जगमगा उठता हैं।दीपावली की रात में घर का दरवाजा बंद नहीँ किया जाता है। रात भर तेल और घी का दिया जलता हैं।गणेश-लक्ष्मीजी की पूजा की जाती हैं,फिर यथाशक्ति 51,31 या21तिल्ली के तेल के या फिर सरसों के तेल के दिए जलाकर पूजा करते हैं फिर अपने घर के मंदिर,बालकोनी,कमरे ,घर के दरवाजे पर रख देते हैं।कई राजस्थानियों में गृहणियां दीपावली-पूजन के उपरांत चूने या गेरू में रुई भिगोकर चक्की,चूल्हा,सिल्ल,लोढ़ा तथा छाज (सूप )पर तिलक काढ़ती हैं फिर दूसरे दिन अल्ल(4बजे)सुबह उठकर लक्ष्मीजी की कहानी सुनकर घर में बासी झाड़ू देकर उस इकठ्ठे कूड़े को ‘सूप में रखकर घर के मुख्य द्धार पर कूड़ा समेत सूप को उलटकर बेलन से सूप पर मारते हुए सात बार’ लक्ष्मी -लक्ष्मी आओ,दरिद्र-दरिद्र जाओ,कहकर सूप(पुराने छाज)को वहीँ छोड़कर केवल बेलन लेकर घर के भीतर आ जाती हैं और दरवाजा बन्द कर लेती हैं।उसके बाद बासी दिया पूजते हैं अर्थात -रात वाले छोटे दीयों में तेल डालकर बड़े दीपक को मिलाकर सात दिया फिर जलाकर रात की तरह पूजते हैं।उन्हें फिर सब जगह रखकर बड़ो का आशीर्वाद लेते हैं।इस दिन घर में बिल्ली आए तो उसे भगाना चाहिए।फिर महिलाएं गोबर से गोवर्धन बनाकर नथ ओढ़ना पहनकर उसकी विधिवत गोवर्धन- पूजा करती हैं। दूसरे दिन भैया दूज पर बहनें अपने भाईयो को घर बुलाकर उनका मनपसंद पकवान बनाकर उन्हें प्रेम से भोजन करवाती है और माथे पर टीका करके हाथ में नारियल देती है और भाई भी यथाशक्ति गिफ्ट या रूपये देते हैं।मुगल सम्राट अकबर ने दीपावली पर्व को ‘राष्ट्रीय पर्व ‘की संज्ञा दी थी।इस पावन पर्व का धार्मिक ,सांस्कृतिक,आध्यात्मिक,ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व हैं।इस प्रकार यह दीपक और आतिशबाजी का आलोक पर्व है इस बार दीपावली12नवंबर रविवार को है।अत:सभी बड़े बच्चों को बड़ी सावधानी से पटाख़ों को थोड़ी दूरी पर रखकर छोड़ना हैं तभी दीपावली मनाने में आनन्द की अनुभूति होगी।ध्यान रहें न फटने वाले पटाखें,अनार व चरखी तथा फुलझड़ी भी कभी-कभी फट जाती हैं इसलिए सावधानी रखें,आप के जीवन यह प्रकाशोत्व संकट रूपी अंधकार को समाप्त कर आनंद – उत्सव की रूप प्रकाश विखरे।