क्या तपती धरती अशक्तों के कंक्रीट महल से भरेगी?

Will the scorching earth be filled with concrete palaces of the disabled?

आयुषी दवे

दुनिया और कितनी गर्मी झेलने को तैयार है? यह सवाल बेहद गंभीर है और लोग इससे कब तक बेखबर रहेंगे यह समझ से परे है। अब तो इंसान क्या दूसरे जीव, जन्तु भी गर्मी से बेहाल होकर इस कदर बेकाबू हो रहे हैं कि कई तरह की तबाहियों का कारण बने हुए हैं। लेकिन हम हैं कि अपनी प्यारी धरती की तपिश को बजाए कम करने के और बढ़ाए जा रहे हैं। दुनिया में क्या धरती का तापमान बढ़ाकर ही विकास की कहानी लिखी जा सकती है?

क्या दुनिया में अबकी बार साल 2023 से अधिक गर्म 2024 कहलाएगा? जलवायु शोधकर्ता इसी पर चिंतित हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वैज्ञानिकों ने ही खुलासा किया था कि पिछले साल उत्तरी गोलार्ध में इतनी गर्मी पड़ी कि करीब 2,000 साल का रिकॉर्ड टूटा और इसीलिए 2023, धरती पर अब तक का सबसे गर्म वर्ष कहलाया। अब इंग्लैंड में रोहेम्पटन विश्वविद्यालय का सामने आया नया शोध बेहद चिंताजनक है जो बताता है कि जब पृथ्वी का बाहरी तापमान 40 डिग्री सेल्सियस पार हो जाता है तो इंसान का शरीर इससे ज्यादा गर्मी सहन करनी की शक्ति खोने लगता है। इसके चलते कई अंग प्रभावित होने लगते हैं।

अनेकों चिकित्सकीय शोधों से भी साफ हो चुका है कि मानव शरीर अनुकूल परिस्थितियों तक ही तापमान सहजता से सहन कर पाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में कई अंगों के प्रभावित होने या शिथिल या काम बंद कर देने के खतरे बढ़ जाते हैं। सबको पता है कि शरीर का 70 फीसदी से ज्यादा हिस्सा जलतत्व से निर्मित है। यही शरीर के तापमान को स्थिर बनाए रखने के लिए गर्मी से मुकाबला करते हैं। इसका साधारण उदाहरण शरीर में गर्मी लगते ही पसीना आना है। लेकिन जब शरीर में मौजूद जलतत्व, पसीना बनकर उड़ जाएगा तो स्वाभाविक है कि शरीर में पानी की कमीं होगी। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। वहीं शरीर के कई ऐसे संवेदनशील आंतरिक अंग हैं जो पानी या जलतत्व के निश्चित मात्रा में रहे आने पर ही सुचारू पूर्वक काम करते हैं। जब भीषण गर्मीं में लगातार शरीर में पानी की आवश्यक मात्रा को बनाए रखना अनजाने या मजबूरी में संभव नहीं हो पाता है तब इसका असर हमारे आंतरिक अंगों पर भी पड़ता है। इससे शरीर कई गंभीर बीमारियों का अनायास शिकार हो जाता है।

शरीर में जलतत्व की कमीं का प्रभाव लोगों पर सेहत के हिसाब से अलग-अलग पड़ता है। किसी को चक्कर आता है तो कोई सिरदर्द की शिकायत करता है। कई बेहोश हो जाते हैं तो किसी की नाक से खून आ जाता है। कई लोगों को सांस में दिक्कत होने लगती है। कई कारण हैं जो बाहर से तो समझ आ जाते हैं लेकिन आंतरिक अंगों पर पड़ने वाले गंभीर दुष्परिणाम बाहर न तो दिखते हैं और न ही जल्द समझ आते। यही बहुत हानिकारक होते हैं। सांस फूलने से हृदय में रक्त का प्रवाह अनियमित हो जाता है। फेफड़ों पर भी बुरा असर पड़ता है। रक्तचाप भी अनियंत्रित हो जाता है और मौत तक संभव है।

हम भारत के संदर्भ में इन दिनों पड़ रही भीषण गर्मी को देखें तो इससे जहां आम मध्यम लोगों में गुर्दों पर बुरा असर पड़ने के साथ हृदय या सांस संबंधी बीमारियां एकाएक बढ़ सकती हैं। वहीं गरीबों या आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे, बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएं, किसान और रोजाना कमाने खाने वाले मजदूर इसके ज्यादा शिकार होते हैं। अब भारत में गर्मियों में पहाड़ों वह भी ठण्डे इलाकों के जंगलों में लगातार आग की घटनाएं और भी ज्यादा चिंताजनक हैं।

ऐसा नहीं है कि गर्मी को लेकर चिंता केवल भारत में ही सबसे ज्यादा है। यूरोप के तो आंकड़े सामने हैं जब 2022 की गर्मियों में करीब 61,000 लोगों की मौत हुई। वहां भी कुछ वर्षों में तेज गर्मी के चलते जंगलों में भीषण आग लग रही है। बड़े पैमाने पर सूखा पड़ रहा है। यह सब बेहद चिंताजनक है।

सोचिए, इस स्थिति में पहुंचने के बाद भी हम कब तक अनजान रहेंगे? सबको पता है कि विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ निर्माण और प्राकृतिक संरचनाओं से लगातार छेड़छाड़ के अलावा बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन जिनमें प्राकृतिक संसाधनों जैसे जीवाश्म ईंधन जलाने, जंगलों को काटने और पशुधन की खेती से जलवायु और पृथ्वी के तापमान पर तेज प्रभाव पड़ रहा है।

इससे वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से मौजूद ग्रीनहाउस गैसों में भारी मात्रा में प्रदूषित गैसें, धुंआ आदि जुड़ जाती हैं और ग्रीनहाउस प्रभाव और ‘भूमण्डलीय ऊष्मीकरण’ यानी ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जाती है। प्राकृतिक गैसों, पेट्रोलियम, कोयला, खनिज व दूसरे तत्वों के लगातार दोहन और उपयोग से निकलती प्रदूषित गैसों और दूसरे हानिकारक तत्वों से दूषित होते वायुमण्डल के अलावा निरंतर छलनी होते जंगल, पहाड़, नदियां अन्य अनेकों प्राकृतिक संपदाओं का क्षरण, दोहन तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं।

इसी बेतरतीब दोहन से निरंतर बढ़ता कार्बन उत्सर्जन भूतल से लेकर नभ तक प्रदूषित कर रहा है। प्रकृति का सारा का सारा प्राकृतिक नियंत्रण डगमगाया हुआ है। जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले 99 प्रतिशत से ज्यादा वैज्ञानिक मानते हैं कि इसका सबसे अहम कारण इंसानी करतूते हैं जो कंक्रीट के विकास के दिखावे के लिए विनास की गाथा लिख रहे हैं।

ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए दुनिया के क्षत्रपों के पास बड़ी-बड़ी कागजी योजनाएं हैं। पेरिस जलवायु समझौता-2015 अहम है जो उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को सीमित करने पर केन्द्रित है। लेकिन इसे 10 साल होने को हैं पर लगता है कि क्या किसी भी देश ने इस पर ठोस काम किया? जवाब आपके पास भी है। ऐसे में भला कैसे बढ़ता तापमान नियंत्रित होगा, कैसे प्रकृति से इंसाफ होगा और कैसे हम अपनी भावी पीढ़ी को न्याय की गारण्टी दे पाएंगे? निश्चित रूप से जब तक पूरी दुनिया में एक-एक इंसान इसे नहीं समझेगा, तब तक विनाश की ओट में विकास की पल-पल लिखी जा रही गाथा भी नहीं रुकेगी। लगता नहीं कि फिर हम जानते हुए, भविष्य में रुग्ण, अशक्त मानव बस्तियों के कंक्रीट महलों की तैयारी में हैं।