ललित गर्ग
अठारहवीं लोकसभा के गठन के लिये हो रहे चुनाव अब अन्तिम चरण में हैं। अब चुनाव परिणामों पर सबकी निगाहें लगी है, इसी के साथ नयी लोकसभा कैसी हो, किस तरह से राजनीतिक विसंगतियों से उसे बचाकर एक नये आदर्श लोकसभा का गठन हो, ताकि आजादी का अमृतकाल स्वर्णिम एवं सार्थक बन सके। वर्ष 2047 तक भारत की यात्रा परिवर्तन, संभावनाओं एवं अवसरों से भरी है। व्यापक लोकतांत्रिक सुधारों, समग्र विकास, आर्थिक संभावनाओं का लाभ उठाकर एक समृद्ध, शक्तिशाली एवं विकसित राष्ट्र का सपना साकार किया जा सकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये प्रतिबद्धता, रणनीतिक योजनाओं, सही समन्वय एवं नयी लोकसभा के सदस्यों के आपसी संवाद की अपेक्षा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमृतकाल की पूर्णता तक पहुंचने से पहले देश को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया है।
वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है। लोकतंत्र की नींव जनता के मतों पर टिकी होती है। नागरिकों की आशा-आकांक्षाओं के अनुरूप प्रशासन देने वाला, संसदीय प्रणाली पर आधारित इसका मजबूत संविधान है। लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों के टूटते-बिखरते की स्थितियों और राजनीतिक प्रक्रिया के कारण आम लोगों में अरुचि और अलगाव बहुत साफ दिखाई देता है, इसके कुछ और भी अनेक कारणों में मुख्य है- समानता लोकतंत्र का हृदय है, लेकिन असमानता ही चहूं ओर दिखाई दे रही है। वोटों के गलियारे में सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की होड और येन-केन-प्रकारेण वोट बटोरने के मनोभाव ने इस उन्नत शासन प्रणाली को कमजोर किया है, जिसकी झलक इन चुनावों में हमने बढ़-चढ़ कर देखी है।
नई संसद को लेकर विमर्श प्रारंभ हो गया है और होना भी चाहिए। यह भी याद रखना जरूरी है कि आज भारत का हर नागरिक विश्व में अपने देश के सम्मान को लेकर गौरवान्वित है। देश के भविष्य को लेकर वह काफी आशावान है। दुनिया की तीसरी आर्थिक व्यवस्था बनने को लेकर उत्साहित है। इनकी आशाओं पर खरा उतरने की चुनौती आम चुनावों में सफल होकर प्रधानमंत्री और सांसद बनने वालों के सामने है। इसमें दो राय नहीं कि सकारात्मक नेतृत्व ही व्यक्ति और राष्ट्र को नई प्रेरणा देता है। ऐसे में नवनिर्वाचित सांसदों को सक्रिय संवाद की परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास दलगत राजनीति से ऊपर उठकर करने की अपेक्षा है। इसी से निर्वाचित प्रतिनिधियों की साख एवं स्वीकार्यता बढ़ेगी एवं इसीसे भारत के लोकतंत्र को अपेक्षित गरिमा एवं जीवंतता मिल सकेगी। नयी गठित होने वाली लोकसभा के सामने यह बड़ी चुनौती है।
यह चुनौती बड़ी इसलिये है कि राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है। कई राजनीतिक दल तो पारिवारिक उत्थान और उन्नयन के लिये व्यावसायिक संगठन बन चुके हैं। सामाजिक एकता की बात कौन करता है। आज देश में भारतीय कोई नहीं नजर आ रहा क्योंकि उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्रीयन, पंजाबी, तमिल की पहचान भारतीयता पर हावी हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति ने सामाजिक व्यवस्था को क्षत-विक्षत करके रख दिया है। ऐसा लगता है कि सब चोर एक साथ शोर मचा रहे हैं और देश की जनता बोर हो चुकी हैं।
लोकतंत्र में जनता की भागीदारी केवल वोट देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जनता के स्वतंत्र लिखने, बोलने और करने की स्वतंत्रता का हनन करने वाले शासकों ने इस शासन प्रणाली को ही धुंधला दिया है। शासक ही सोचेगा, शासक ही बोलेगा और शासक ही करेगा- ऐसी घोषणाओं के द्वारा शासक ने जनता को पंगु, अशक्त और निष्क्रिय बनाया है इसका खासतौर से मध्यवर्ग, कामकाजी प्रोफेशनल्स और युवा आबादी में गहरा असंतोष है। शायद यही वजह है कि आज मुश्किल से ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है, जिसकी राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी हो। गौरतलब है कि शहरीकरण और इकनॉमिक ग्रोथ के साथ-साथ ऐसे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। एक तरह से लोकतंत्र जैसी स्वस्थ और आदर्श शासन प्रणाली भी प्रश्नों के घेरे में है। अब आवश्यकता इस बात की भी है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास हो और मतदान के साथ-साथ नागरिक सजगता का भी विकास हो।
लोकतांत्रिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने, चुनाव की खामियों को दूर करने एवं नये लीडर उभारने के प्रयास करने होंगे। आम जनता की सजगता नयी बनने वाली सरकार एवं नये सांसदों की नीतियां और नियत क्या है इस पर भी केन्द्रित हो। वोट देने के बाद हमारे शासक कर क्या रहे हैं, इस पर नजर रखे बिना सजगता संभव नहीं है। सोशल मीडिया में भीड़ है, वह तख्ता पलट तो कर सकती है लेकिन उसके बाद का काम नहीं कर सकती। लिहाजा मतदान पहला कदम है अंतिम नहीं। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिये जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी से सरकार बनें और सही तरीके से चले भी। अच्छे लोग राजनीति में रूचि नहीं रखते। नागरिक सजगता की कमी इसी समझदार वर्ग में भी कम नहीं है। लोकसभा में अपराधियों की बढ़ती संख्या भी चिंता का विषय है। चुनाव आयोग पार्टियों को पंजीकृत तो कर सकता है लेकिन नियंत्रित नहीं। यह काम जागरूक नागरिक ही कर सकतें है अतः वे उठें और अपना कर्तव्य निभाएं। निष्क्रिय राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द होना चाहिए।
लोकतंत्र की यह दुर्बलता है कि सांसदों-विधायकों का चुनाव अर्हता, गुणवत्ता एवं योग्यता के आधार पर न होकर, दल या संस्था के आधार पर होता है। इससे राजनीति स्वस्थ नहीं बन सकती और न ही राजनीति में स्वस्थ, योग्य एवं प्रतिभासंपन्न उम्मीदवारों का चयन होता है। सही व्यक्ति की खोज वर्तमान राजनीति की सबसे बड़ी जरूरत है। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता इसलिये भी है ताकि लोकतंत्र को हांकने वाला निष्पक्ष हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट एवं सर्वजन हिताय का लक्ष्य लेकर चल सके। ऐसी व्यवस्था भी नियोजित की जानी चाहिए है जिसमें स्वतंत्र विचारों वाले जागरूक नागरिकों द्वारा हर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन किया जाए। यह उन्हें अपनी चुनावी घोषणाओं या जीतने के बाद किए गए वायदों के प्रति उत्तरदायी बनाएगा। हमें ऐसे मंच तैयार करने चाहिए जो भारत के उन युवाओं, प्रफेशनल्स और ऊर्जावान नागरिकों को एक साथ लाएं और आपस मंे जुड़ने का अवसर दें, जो इस देश की तस्वीर बदलना तो चाहते हैं लेकिन ऐसा कर नहीं पाते क्योंकि उनके पास मंच नहीं है। भावी नेतृत्व को तैयार करने के लिए हमें उनकी ऊर्जा को सही चैनल देने की पहल करनी होगी। यही युवा, सक्रिय नागरिक और प्रफेशनल अपने पेशे, अपने तौर-तरीकों और नागरिकों मूल्यों की वजह से दूसरों के लिए रोल मॉडल की भूमिका निभायेंगे। यही लोग अगली पीढ़ी के लिए पथ-प्रदर्शक बन जायेंगे। हमें भारत के विशाल प्रांगण में हर कोने में ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी। ऐसे लोगों की तलाश और उन्हें लोकतंत्र के प्रशिक्षण का समुचित प्रबंध होना जरूरी है।
लोकतंत्र की सुदृढ़ता के लिये और नये लीडर तलाशने के लिये जरूरी है कि राजनीति के प्रशिक्षण का उपक्रम विभिन्न स्तरों पर संचालित होना चाहिए। न्यूनतम योग्यता एवं न्यूनतम प्रशिक्षण तय होना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर कृषि, ग्रामीण रोजगार, शिक्षा, वित्तीय अनुशासन, स्वास्थ्य और कुपोषण, जवाबदेही और पारदर्शिता, चुनाव और पुलिस सुधार, मानवाधिकारों की रक्षा और संसाधनों का बराबर इनका मिशन होना चाहिए। इसलिए परिवर्तन के लिए पहले ऐसे लीडर तैयार करने होंगे। सेमिनारों, वाद-विवादों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर राय मांगकर उनकी पहचान की जा सकती है। लीडरों का सशक्तीकरण करें, ताकि वे बदलाव के वाहक बन सकें। ऐसे दूसरे संगठनों और दबाव समूहों की पहचान करें जो अराजनीतिक और अनौपचारिक तंत्र के हिस्से हांे, जैसे एनजीओ और उन्हें नीतियों के निर्माण और उनके आकलन में सहभागी बनाएं।