ललित गर्ग
यह सुखद, अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक अवसर ही है कि देश के सर्वाेच्च न्यायालय ने 75 साल का गरिमामय सफर पूरा कर लिया है। संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के प्रयासों में सर्वाेच्च न्यायालय की भूमिका को यादगार बनाने के लिये बाकायदा डाक टिकट व सिक्के भी हाल ही में जारी किये गए और विभिन्न आयोजनों में सर्वाेच्च न्यायालय की भूमिका को अधिक सशक्त बनाने के विषय पर गंभीर मंथन भी हुआ, ऐसे ही आयोजनों में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) डी.वाई. चंद्रचूड ने इस बात पर बल दिया कि समय पर न्याय मिलने से ही न्याय का वास्तविक लक्ष्य पूरा होता है। ‘न्याय में देरी न्याय के सिद्धांत से विमुखता है’ वाली इस बात को सभी महसूस करते हैं लेकिन न्यायिक व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री की इस स्वीकारोक्ति के गहरे निहितार्थ हैं। ‘न्याय प्राप्त करना और इसे समय से प्राप्त करना किसी भी राज्य व्यवस्था के व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार होता है।’
सर्वाेच्च न्यायालय की हीरक जयन्ती के अवसर पर सभी ने शीघ्र न्याय की जरूरत को स्वीकारते हुए कहा कि ‘तारीख पे तारीख’ की संस्कृति से तौबा करने का वक्त आ गया है? न्याय प्रणाली की कमियों को दूर करने के रास्ते उद्घाटित होने ही चाहिए। यही वजह है कि जिला न्यायपालिका के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जो कुछ कहा, उसे देश की पूरी न्याय व्यवस्था के लिए अलार्म बेल माना जा सकता है। राष्ट्रपति ने याद दिलाया कि जब तक न्यायपालिका देश के आम लोगों को सहजता से इंसाफ तक पहुंचने का रास्ता मुहैया नहीं कराती, तब तक उसका काम पूरा नहीं माना जा सकता। उन्होंने कहा कि त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये अदालतों में स्थगन की संस्कृति को बदलने के प्रयास करने की सख्त जरूरत है। उन्होंने स्वीकारा कि अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामलों का होना हम सभी के लिये बड़ी चुनौती है।
अदालतों से न्याय पाने की प्रक्रिया बड़ी खर्चीली है और इसमें बेहिसाब वक्त लगता है। इन दोनों ही का नतीजा इसी रूप में सामने आता है कि इंसाफ की आस लेकर अदालत पहुंचा व्यक्ति फैसला आने तक टूट चुका होता है। इसीलिये राष्ट्रपति ने ठीक ही कहा कि किसी गंभीर अपराध से जुड़े मामले का फैसला आने में 32 साल लग जाए तो लोगों को ऐसा लगना अस्वाभाविक नहीं कि शायद अदालतें ऐसे मामलों को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। राष्ट्रपति ने किसी खास मामले का जिक्र नहीं किया, लेकिन उनका इशारा अजमेर में पॉक्सो अदालत द्वारा इसी 20 अगस्त को सुनाए गए फैसले की तरफ था। एक चर्चित सेक्स स्कैंडल से जुड़े इस मामले में छह लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाने में 32 साल लग गए। यह अपनी तरह का कोई इकलौता मामला नहीं है। बेहद गंभीर और वीभत्स अपराध के सैकड़ों ऐसे मामले हैं, जो अदालतों में बरसों से लंबित पड़े हैं। लोग अदालतों में मुकदमों के लंबे खिंचने से इतने त्रस्त हो जाते हैं कि किसी तरह समझौता करके पिंड छुड़ाना चाहते हैं। सर्वाेच्च न्यायालय की हीरक जयन्ती पर महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि न्यायपालिका और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट इसके लिए क्या करने जा रहा है, जिससे लोग न्याय प्रक्रिया से हताश-निराश होकर समझौता करने के लिए बाध्य न हों? प्रश्न यह भी है उन्हें समय पर त्वरित न्याय कब मिल सकेगा? दुर्भाग्य से ये प्रश्न दशकों से अनुत्तरित है।
इससे पहले जिला न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में त्वरित न्याय की आवश्यकता पर बल दिया था ताकि महिलाओं में अपनी सुरक्षा को लेकर भरोसा बढ़ सके। निस्संदेह, हाल के वर्षों में महिलाओं एवं बच्चों के खिलाफ अपराधों में तेजी से वृद्धि हुई है, जिससे हमारे समाजशास्त्री और कानून लागू करवाने वाली विभिन्न एजेंसियां भी हैरान-परेशान हैं। कोलकाता में एक मेडिकल कालेज के अस्पताल में महिला डॉक्टर से दुष्कर्म व हत्या कांड ने पूरे देश को उद्वेलित किया है। पूरे देश में अपराधियों को शीघ्र व सख्त दंड देने की मांग की जा रही है। यदि पुलिस व जांच एजेंसियां पुख्ता सबूतों के साथ अदालत में पहुंचें तो गंभीर मामलों में आरोप जल्दी सिद्ध हो सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के 75 वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ये केवल एक संस्था की यात्रा नहीं है। ये यात्रा है भारत के संविधान और संवैधानिक मूल्यों की। ये यात्रा है एक लोकतंत्र के रूप में भारत के और परिपक्व होने की। भारत के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट पर, हमारी न्यायपालिका पर विश्वास किया है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के ये 75 वर्ष ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ के रूप में भारत के गौरव को और बढ़ाते हैं। आजादी के अमृतकाल में 140 करोड़ देशवासियों का एक ही सपना है विकसित भारत, नया भारत बनने का। नया भारत, यानी सोच और संकल्प से एक आधुनिक भारत। हमारी न्यायपालिका इस विजन का एक मजबूत स्तम्भ है। भारत में लोकतंत्र और उदारवादी मूल्यों को मज़बूत करने में न्यायपालिका ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
संविधान का रखवाला, ग़रीबों के अधिकार एवं सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ़ कमज़ोर समूहों का योग्य संरक्षक और करोड़ों नागरिकों के लिए आखरी उम्मीद वाला संस्थान है सुप्रीम कोर्ट। कुछ अपवादों को छोड़कर पिछले 75 वर्षों में ज्यादातर समय भारतीय न्यायपालिका संविधान की रक्षा और क़ानून के शासन को बनाए रखने में सफल रही है। लेकिन भारतीय कानून व्यवस्था के सामने अनेक जटिल स्थितियां भी हैं, न्यायाधीशों की नियुक्ति, बढ़ते केसों की संख्या, जवाबदेही, भ्रष्टाचार एवं विलम्बित न्याय आदि। न्याय को लेकर अदालतों तक आम नागरिकों की पहुंच एवं खर्च के मुद्दों और इसी तरह की दूसरी चीज़ों के मामले में सुधार के बारे में न्यायपालिका की अपनी महत्वपूर्ण चिंताएं हैं। हमारे कानूनों की भावना है-नागरिक पहले, सम्मान पहले और न्याय पहले है।
निश्चित ही डी.वाई. चंद्रचूड न्याय-प्रक्रिया की कमियों एवं मुद्दों पर चर्चा करते रहे हैं तो उनमें सुधार के लिये जागरूक दिखाई दिये हैं। निश्चित ही उनसे न्यायपालिका में छाये अंधेरे सायों में सुधार रूपी उम्मीद की किरणें दिखाई देती रही है। न्याय के इंतजार में कई-कई पीढ़ियां अदालतों के चक्कर काटती रह जाती हैं। देश में शीर्ष अदालत, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में मुकदमों का अंबार निश्चित रूप से न्यायिक व्यवस्था के लिये असहज एवं चुनौतीपूर्ण स्थिति है। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या लगभग 80 हजार है। उच्च न्यायालयों में इनकी संख्या 62 लाख के करीब है और निचली अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़। इसका अर्थ है कि लगभग पांच करोड़ लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं। देश में तीनों स्तरों पर लंबित मामले न्यायिक व्यवस्था के लिये एक गंभीर चुनौती है। आजादी के अमृत महोत्सव की चौखट पार कर चुके देश की इस त्रासद न्याय व्यवस्था के बाबत देश के नीति-नियंताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए। निश्चित ही भारत दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। लेकिन इतनी बड़ी आबादी के अनुपात में पर्याप्त न्यायाधीशों व न्यायालयों की उपलब्धता नहीं है।
निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक किसी भी मामले के निपटारे के लिए नियत अवधि और अधिकतम तारीखों की संख्या तय होनी ही चाहिए। जैसाकि अमेरिका में किसी भी मामले के लिये तीन वर्ष की अवधि निश्चित है। लेकिन भारत में मामले 20-30 साल चलना साधारण बात है। तकनीक का प्रयोग बढ़ाने और पुलिस द्वारा की जाने वाली विवेचना में भी सुधार जरूरी है। उत्कृष्ट लोकतान्त्रिक देशों की तरह भारत की एक अत्यंत शक्तिशाली व स्वतंत्र न्यायपालिका है। तारीख पर तारीख का सिलसिला थम सके इसके लिये हाल ही में लागू हुए तीन नये आपराधिक कानूनों के लागू होने के बाद स्थिति में सुधार की उम्मीद जगी है। नये तीन कानूनों के बाद मुकदमों की सुनवाई द्रुत गति से होगी, लेकिन देखना यह है कि ऐसा हो पाता है या नहीं? प्रश्न यह भी है कि आखिर करोड़ों लंबित मामलों का क्या होगा? ये वे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर देश की जनता को चाहिए। न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिये।