अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती पृथ्वी

नृपेंद्र अभिषेक नृप

मानव पृथ्वी का ऐसा प्राणी है जो कि पृथ्वी का विकास भी करता है और विनाश भी। विज्ञान के विभिन्न आविष्कारों ने हमें क्रांतिकारी जीवन जीने के लिए भागीदार बनाया तो वहीं दूसरी ओर पृथ्वी को विनाश के रास्तों पर भी ला कर खड़ा कर दिया है । आजकल मानव अपना अस्तित्व भी स्वयं गढ़ रहा है और विनाश का मार्ग भी स्वयं सी तैयार कर रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था – “पृथ्वी सभी मनुष्यों की ज़रुरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है , लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।”

दुनियां को तबाह कर देने वाली समस्याओं में से ही एक है पर्यावरण समस्या जो मानव जीवन की दुर्दशा लिख रहा है और पृथ्वी का भविष्य अंधकार में करने पर उतारू है। पर्यावरण एक ऐसी समस्या है जो स्थानीय नहीं बल्कि विश्वव्यापी समस्या बन कर मानव जीवन में चुनौती बन कर खड़ी है, पूरा विश्व इस ज्वलंत समस्या के विनाशकारी प्रभाव से चिंतित है।

सूर्य इस संसार का जीवन हैं, आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी सूर्य की किरणें को प्राकृतिक महौषधि मानता है। पर सूर्य कब तक हमें ऊर्जा और स्वास्थ्य देने वाला बना रहेगा? शायद बहुत लंबे समय तक नहीं, मनुष्य अपनी करतूतों से ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रहा है कि सूर्य मित्र न रह कर सब से बड़ा शत्रु हो जाएगा। तब वह मनुष्य को मृत्यु से बचाएगा नहीं बल्कि मृत्यु की ओर ले जाएगा। सूर्य की किरणें कैंसर जैसे भयानक रोग अपने साथ लाएंगी और रोग से लड़ने की इंसानी क्षमता को कम कर देंगी। गरमी बेहद बढ़ जाएगी और बर्फ पिघल कर समुंद्र के जलस्तर को बढ़ा देगी। समुंद्र के किनारे बसे शहर पानी में डूब जाएंगे। कुएं सुख जाएंगे और रेत का साम्राज्य इतना बढ़ जाएगा कि लोगों को जान बचाने के लिए मैदानों और जंगलों की तरफ भगाना पड़ेगा। यह कल्पना बहुत भयानक लगती है, क्योंकि जिस सूर्य पर हम सदियों से निर्भर हैं उस से ऐसी उम्मीद कर ही नहीं सकते, पर इस में सूर्य की क्या गलती ? गलती तो अपने अंहकार में चूर मानव की हैं, जो प्रकृति और पर्यावरण से जम कर खिलवाड़ कर रहा हैं।

जंगलों का विनाश किया जा रहा है, हवा और पानी में विषैली गैंसों और गंदगी झोंकी जा रही है। ऐटमी हथियारों से वातावरण में रेडियोधर्मी विकिरण और गरमी घोली जा रही है। भूमिगत संसाधनों की खोज के लिए धरती का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। दशकों से वैज्ञानिक और पर्यावरणशास्त्री प्रकृति की इस दुर्दशा के खतरनाक नतीजों की तरफ संकेत करते आए हैं ,पर उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब हाल यह है कि धरती पर ऋतुचक्र अव्यवस्थित हो रहा हैं, बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ गया है, तूफान भूकंप जैसी आपदाओं के सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है, धरती का तापमान बढ़ रहा है, दक्षिणी ध्रुव पर ओज़ोन की उस परत में छेद हो गया है जो हमें सूर्य के विनाशकारी प्रभावों से बचाती है और केवल उन्हीं किरणों को धरती पर जाने देती है जो हानिप्रद न हों, प्रकृति की गोद में रहना है तो इन नियमों और समीकरणों का सम्मान करना पड़ेगा।

प्रकृति खुद से छेड़छाड़ तो बरदाश्त कर लेती है,पर एक हद तक,लेकिन इस के बाद भी मनुष्य उस के दोहन से बाज नहीं आता,परंपरानुसार विकास और प्रकृति का आंकड़ा छत्तीस का ही रहा है, विकास में जितनी तेजी आई, प्राकृतिक समीकरणों पर उतना ही आकर्षक हुआ, मनुष्य भी प्रकृति की बहुत छोटी सी रचना हैं, पर विकास ने आज उसे इतना क्षमतावान बना दिया है कि वह विशाल, अनंत प्रकृति को चुनौती दे सकता है, उसे नुकसान पहुंचा सकता है, प्रकृति का सब से बड़ा वरदान है, जीवनदायिनी वायु में गैंसें इस तरह सन्तुलित हैं कि वे धरती पर रहने वाले जीव और वनस्पति जगत दोनों को उन की जरूरत के हिसाब से उपलब्ध हो जाती हैं और इस्तेमाल के बावजूद उन का अनुपात मनुष्य की तरफ से झोंके गए प्रदूषण के बिना लगभग स्थिर रहता है,लेकिन आज वनस्पति आदि की धौंकनियों से निकलने वाली को Co2, Clf कार्बन और दूसरी गैसें वायु में घुल कर संतुलन बिगाड़ रही हैं। इस कृत्रिम गैंसों से वातावरण का तापमान बढ़ जाता है, वैज्ञानिक इसे ग्रीन हाउस प्रभाव भी कहते है, यह ग्रीन हाउस प्रभाव आज एक बड़ा खतरा बन चुका हैं।

ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए सब से ज्यादा जिम्मेदार गैस है Co2 का 50 फीसदी और क्लोरोफ्लोरो का 20 फीसदी योगदान है। पर दूसरे अर्थो में क्लोरोफ्लोरो कार्बन ज्यादा खतरनाक है। वजह यह है कि सूरज की हानिकारक किरणों के अभिशाप से हमें बचाने वाली ओजोन की परत क्लोरोफ्लोरो कार्बन के असर से पतली होती जाती है।क्लोरोफ्लोरो और कार्बन के परमाणुओं के संयोग से बना क्लोरोफ्लोरो कार्बन का एक अणु कार्बन डाइऑक्साइड के अणु की तुलना में 20 हजार गुना ज्यादा गरमी पैदा करता है, क्लोरोफ्लोरो कार्बन का एक अणु ओजोन के एक लाख अणुओं को तोड़ सकता है। 10 से 30 मील की ऊँचाई पर स्थिर ओजोन का कवच हमें सूर्य की उन किरणों से सुरक्षित रखता है जो प्राणियों को कैंसर जैसे रोग दे सकती हैं और रोगों से लड़ने की क्षमता नष्ट कर सकती हैं। ये क्लोरोफ्लोरो कार्बन हमारे प्राकृतिक सुरक्षा कवच पर हमला करते है।

ग्लोबल वॉर्मिंग के असर के चारों ओर ही जलवायु नीति की बहस तय होती है और इसके ख़तरों पर विशेषज्ञ हमें लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं । पिछले तीन सालों को ही आधार बनायें तो संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट पैनल (आईपीसीसी) – जिसमें दुनिया भर के जाने माने जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ और वैज्ञानिक हैं – ने कम से कम तीन बड़ी रिपोर्ट दी हैं जो मानवता पर जलवायु परिवर्तन के असर को बताती हैं । 6 अक्टूबर 2018 को 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि पर जारी की गई। एक विशेष रिपोर्ट रिपोर्ट SR 1.5 में साफ कहा गया अगर विश्व को बर्बादी से बचाना है तो हमारे पास सिर्फ दस साल का ही वक़्त बचा है और 2030 तक धरती से हो रही कुल कार्बन उत्सर्जन में साल 2010 के स्तर पर 45% कटौती करनी होगी । वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम में तीव्र उतार चढ़ाव से फ्लू घनी आबादी वाले इलाकों तक पहुंच रहा है और 2050 तक बड़े शहरों में इन्फ्लुएंजा के मामले 20%-30% बढ़ेंगे।

उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से साल 2015 में पेरिस संधि (पेरिस क्लाइमेट डील) हुई जिसके बाद सभी देशों ने कार्बन इमीशन घटाने के राष्ट्रीय लक्ष्य तय किये । 2020 के नवंबर में यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो में होने वाली जलवायु परिवर्तन वार्ता (जिसे COP-26 कहा जाता है) में तमाम देशों को अपनी योजनाओं के विस्तृत ख़ाके जमा करने थे। इन्हीं योजनाओं के आधार पर पता चलता कि अगले 30 साल में अलग-अलग देश ग्लोबल वॉर्मिंग कम करने और क्लाइमेट चेंज के प्रभावों से अपनी जनता को बचाने के लिये क्या कदम उठायेंगे। जलवायु परिवर्तन वार्ता में हर साल 190 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं । पिछले साल का महासम्मेलन COP-26 स्थगित कर दिया गया था और इसकी तारीखों का ऐलान कोरोना संकट के गुज़र जाने के बाद होने की सम्भावना है । इस वार्ता से पहले होने वाली सारी वार्तायें भी रद्द ही हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने पहले ही कह दिया है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई अहम है लेकिन फिलहाल सभी देशों को अपने सारे संसाधन इस वायरस से निबटने में लगाने होंगे।

धरती पर हवा में और भी पचासों तरह के प्रदूषण हो रहे हैं, यूनियन कार्बाइड के भोपाल कारखाने से रिसी जानलेवा मिथाइल आइसो साईनेट जैसी गैस भी इस मे घुलती रहती है, हथियारों को होड़ में ऐटमी विस्फोट के चलते भी वायु में रेडमी एक्टिव तत्त्वों के साथसाथ धरती का तापमान भी बढ़ता हैं यह सब आगे चल कर हमें भारी पड़ेगा। मामला सिर्फ हवा का भी नहीं है। धरती पर आच्छादित वनों का सब से बड़ा मकसद पर्यावरण संतुलन को डगमगाने से बचाना ही है। ईंधन और इमारती काम में वनों की आहुति देना तो इंसान का अपना आविष्कार हैं वनों के जरिये प्रकृति वायुमंडल में आ घुसने वाली अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेती है, पर इंसान ने जंगलात पर कुल्हाड़ी चला कर बचाव का रास्ता भी बंद कर दिया हैं जो पेड़ अतिरिक्त Co2 सोखने के बड़े उद्देश्य से जन्मे थे, उन्हें काट कर जला दिया जाता है और वे खुद Co2 पैदा करते है, जंगलों के कोने साफ हो कर इंसानी इमारतों में बदलने लगे हैं और हरे जंगलों की जगह कंकरीट के जंगल लेने लगे है। इधर ईंधन इमारती कामकाज, उद्योगों, खेती वग़ैरह के बहाने से भी जंगलों का जम कर सफाया हुआ है। वनों की दुर्दशा का आलम सार्वभौम है और चिंतनीय भी, एक और बड़ा समस्या है- कचरा ,खासतौर पर औधोगिक और ऐटमी कचरा, सवाल यह है कि इसे दफनाया कहाँ जाए, इस कि भी व्यवस्था करनी होगी।

पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी। अगर वो ख़ुद नहीं बदलते हैं, तो उन्हें जबरन बदलवाना पड़ेगा जैसा जापान के क्योटो शहर में हुआ था। साल 2001 में यहां मोटर वाले रास्ते बंद कर दिए गए और लोगों को सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने को मजबूर किया गया। धीरे-धीरे ये लोगों की आदत में शामिल हो गया । जब दोबारा रास्ते खुले तो भी ज़्यादातर लोग सार्वजनिक परिवहन का ही इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन इसके लिए सरकारों को सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहतर करनी होगी।

विश्व मच पर्यावरण के समाधान हेतु कितना आगे आएगा यह वक्त के गर्भ में है क्योंकि कोरोना जैसे हालातों से सभी देशों को आर्थिक झटका लगा है और लॉकडाउन से जो पर्यावरण को संजीवनी मिली थी वह धीरे धीरे फिर से अपना रफ़्तार पकड़ने लगा है।महामारी के काबू में आते ही इमीशन फिर से आसमान छूने लगेंगे। इसके अलावा अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद अमीर-विकसित देश पैसे की कमी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे और पेरिस संधि में जिस क्लाइमेट फाइनेंस का वादा है वह पूरा नहीं होगा । यहां यह उल्लेखनीय है कि 2010 में कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान 2020 तक 100 बिलियन डॉलर का एक ग्रीन क्लाइमेट फंड बनाने की बात हुई थी जिसमें आजतक 10% से भी कम जमा हुआ है।

गैर जिम्मेदार देशों के रवैया देख यही अंदेशा होता है कि इस निरंतर प्रक्रिया में कहीं धरती पर बसी सभ्यता खुद को खत्म तो नहीं कर लेगी। जनसंख्या में जिस तेजी से वृद्धि हो रही है, उसे देखते हुए लगता है कि जंगलों की कटाई और बढ़ेगी, हवा में प्रदूषण और बढ़ेगा, पानी में गंदगी और बढ़ेगी और रेडियोधर्मी विकिरण भी और बढ़ेगा। साफ पानी, साफ हवा, साफ भोजन तो इंसान की पहुंच से बाहर हो जाएगा। क्या हम ऐसी धरती पर लंबे समय तक रह सकेंगे? वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण विनाश की परिकल्पना कितनी ही भयावह हो, सतर्कता और इच्छाशक्ति से काम लें तो यह लाइलाज नहीं है, पर इस के लिए दुनिया भर में समन्वित प्रयास करने होंगे। मेरठ के किसान से ले कर इथोपिया की गृहणी और अमेरिकी नागरिक से लेकर अफ्रीका के आदिवासी तक को साथ लेना होगा। सब से पहला काम तो ओजोन कवच बचाने के लिए क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्पादन रोकना होगा, ऊर्जा के प्रदूषणकारी संसाधनों के बजाय सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे अहानिकर साधनों पर ध्यान देना होगा। मोटरगाड़ियों और कारखानों में प्रदूषण के उपचार के नियमों का कटाई से पालन करना होगा। जंगलों की कटाई तुरंत रोक कर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के अंतराष्ट्रीय कार्यक्रम चलाने होंगे। वन्य जीवों का शिकार रोकना पड़ेगा, कचरा डालने पर पाबंदी लगानी होगी, यह सब बड़ा, श्रमसाध्य, खर्चीला काम है पर आने वाली पीढ़ियों के भले के लिए ही सही, इसे हाथ में लेना ही चाहिए।

वर्ना वह वक्त दूर नहीं जब पृथ्वी से जीवन नष्ट होने लगेगा। स्टीफ़न हॉकिंग्स ने पृथ्वी पर इंसानियत के भविष्य को लेकर चौंकाने वाला ऐलान किया था। स्टीफ़न हॉकिंग ने कहा था, “मुझे विश्वास है कि इंसानों को अपने अंत से बचने के लिए पृथ्वी छोड़कर किसी दूसरे ग्रह को अपनाना चाहिए और इंसानों को अपना वजूद बचाने के लिए अगले 100 सालों में वो तैयारी पूरी करनी चाहिए जिससे पृथ्वी को छोड़ा जा सके।”