बेटियाँ आगे बढ़ रही, पर मंच अब भी खाली!

Daughters are moving ahead, but the stage is still empty!

सोनम लववंशी

यूनेस्को की वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट 2024 जब यह कहती है कि लड़कियों की शैक्षणिक प्रगति वैश्विक स्तर पर उल्लेखनीय रही है, तो यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, एक उम्मीद का सिरा है। भारत में भी यह बदलाव साफ नजर आता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागू होने के बाद से प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक लड़कियों की भागीदारी में बढ़ोतरी हुई है। उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी अब 49 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। यह एक ऐसा तथ्य है जो न केवल भारत के भविष्य की दिशा तय करता है, बल्कि सामाजिक संरचना में बदलाव के संकेत भी देता है, किंतु इसी उजाले के साथ एक लंबी छाया खिंचती है। जब बात नेतृत्व की होती है, चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो, कॉरपोरेट की ऊँचाइयाँ, या तकनीकी दुनिया के निर्णायक मोर्चे, महिलाएं वहाँ बहुत पीछे खड़ी नजर आती हैं। केवल 7.2 प्रतिशत भारतीय कंपनियों में महिलाएं सीईओ पद पर हैं। संसद में उनकी भागीदारी 14 प्रतिशत से भी कम है। वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा थोड़ा ही बेहतर है। विश्व बैंक की साल 2024 की रिपोर्ट की माने तो, विश्वभर में शीर्ष नेतृत्वकारी पदों में केवल 10 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। यह आंकड़े न सिर्फ स्थिति की गंभीरता बताता हैं, ये सवाल भी उठाता हैं कि आखिर क्यों शिक्षा में आगे निकल चुकी महिलाएं नेतृत्व के पायदान पर पिछड़ जाती हैं?

यह सवाल और भी गंभीर तब हो जाता है, जब हम मातृसत्तात्मक समाज की बात करते हैं। मेघालय इसका ज्वलंत उदाहरण है। यहाँ खासी और जयंतिया जनजातियों में संपत्ति और वंशानुक्रम महिलाओं से जुड़ा है। इन सबके बावजूद इस राज्य की विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम या यूं कहें नाममात्र ही है। ऐसे में यह विसंगति केवल सांस्कृतिक ही नहीं, संरचनात्मक और मनोवैज्ञानिक भी है। क्या यह किसी सुनियोजित दमन का परिणाम है, या महिलाएं स्वयं नेतृत्व से दूर रहना चाहती हैं? शायद सत्य इन दोनों के बीच कहीं छिपा है, क्योंकि देश के बाकी हिस्सों की स्थिति भी काफी दयनीय है। पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक अपेक्षाएं, और कार्यस्थलों पर मौजूद लैंगिक भेदभाव की संरचनाएं मिलकर एक ऐसा वातावरण निर्मित करती हैं, जहाँ महिलाएं नेतृत्व के अवसरों से वंचित रह जाती हैं। अवसर मिलने पर भी उन्हें दुगना संघर्ष करना होता है। राजनीति जैसे क्षेत्र में तो यह और भी कठिन हो जाता है, जहाँ जोखिम, सार्वजनिक आलोचना, और कभी-कभी हिंसा तक का सामना करना पड़ता है। विश्व आर्थिक मंच की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि कार्यबल में वैश्विक रूप से महिलाओं की भागीदारी 42 प्रतिशत है, लेकिन वरिष्ठ नेतृत्व में यह संख्या घटकर केवल 31.7 प्रतिशत रह जाती है। इसी प्रकार, स्टीम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) क्षेत्रों में महिलाओं की वैश्विक भागीदारी मात्र 28.2 प्रतिशत है। इसका अर्थ यह है कि महिलाएं केवल शिक्षा तक सीमित नहीं, ज्ञान के अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी अनदेखी का शिकार हैं।

वेतन असमानता भी एक बड़ी बाधा है। विश्व बैंक की “वीमेन, बिज़नेस एंड द लॉ-2024” की रिपोर्ट बताती है कि महिलाएं औसतन पुरुषों की तुलना में 2.4 घंटे अधिक अवैतनिक देखभाल कार्य करती हैं। इसके अतिरिक्त, 98 देशों में समान वेतन के कानून तो हैं, लेकिन केवल 35 देशों में ही ऐसे कानूनों के प्रवर्तन और पारदर्शिता के लिए मजबूत ढांचा है। इसका सीधा प्रभाव महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और नेतृत्वकारी भूमिका पर पड़ता है। इन सबके बावजूद, तस्वीर पूरी तरह धुंधली नहीं है। बदलाव की किरणें मौजूद हैं। भारत में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के बाद से स्थानीय स्तर पर नेतृत्व में उनकी भागीदारी में सुधार देखा गया है। यह दिखाता है कि जब अवसर और संरचना दोनों सकारात्मक रूप में मिलते हैं, तो महिलाएं नेतृत्व में भी उत्कृष्टता दिखा सकती हैं। वैश्विक स्तर पर भी प्रयास किए जा रहे हैं। विश्व बैंक की “जेंडर स्ट्रेटेजी 2024-2030” का लक्ष्य है कि 2030 तक 300 मिलियन महिलाओं को डिजिटल कनेक्टिविटी, 250 मिलियन को सामाजिक सुरक्षा नेटवर्क और 80 मिलियन महिला-नेतृत्व वाले व्यवसायों को वित्तीय समर्थन दिया जाए। ये योजनाएं महिलाओं को सशक्त करने के प्रयास नहीं, एक समावेशी भविष्य की नींव हैं। सवाल यह है कि इस नींव पर हम कैसे निर्माण करेंगे? सबसे पहले तो जरूरी है कि समाज में गहराई तक समाई लैंगिक रूढ़ियों को तोड़ा जाए। यह काम केवल पाठ्यक्रम बदलने या पोस्टर लगाने से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि बचपन से ही लड़के और लड़कियों दोनों को समानता, नेतृत्व और सह-अस्तित्व के मूल्यों की शिक्षा दी जाए।

कार्यस्थलों पर भी व्यापक बदलाव जरूरी हैं। मातृत्व अवकाश, लचीली कार्य व्यवस्था, यौन उत्पीड़न के मामलों में सख्त कार्यवाही, और महिलाओं की पदोन्नति के लिए पारदर्शी और न्यायसंगत प्रणाली का निर्माण अनिवार्य है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए सिर्फ आरक्षण पर्याप्त नहीं होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि आरक्षण सांकेतिक न रहे, बल्कि उसके माध्यम से वास्तविक और प्रभावी नेतृत्व उभर कर सामने आए। इसके लिए उन्हें प्रशिक्षण, संसाधन और एक सुरक्षित सार्वजनिक वातावरण प्रदान करना होगा। समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि महिलाओं का नेतृत्व महिलाओं के लिए नहीं, पूरे समाज के विकास के लिए जरूरी है। जिन क्षेत्रों में महिलाओं को नेतृत्व का अवसर मिला है, वहाँ निर्णय प्रक्रिया अधिक समावेशी, दीर्घकालिक और मानवीय दृष्टिकोण वाली रही है।

महिलाओं की शिक्षा में हो रही प्रगति सराहनीय है, लेकिन यह तब तक अधूरी है जब तक वह नेतृत्व की ऊँचाइयों तक न पहुंचे। जब एक शिक्षित लड़की केवल एक नौकरी ही नहीं, बल्कि एक संस्था, एक आंदोलन, या एक नीति का नेतृत्व करती है, तभी हम कह सकते हैं कि शिक्षा ने अपना उद्देश्य पूरा किया है। समाज को यह स्वीकारना होगा कि नेतृत्व कोई जन्मगत विशेषाधिकार नहीं, अर्जित किया गया दायित्व है और जब तक महिलाओं को इस दायित्व को निभाने का पूरा अवसर नहीं मिलेगा, तब तक हम एक सशक्त, समावेशी और प्रगतिशील राष्ट्र नहीं बन सकते। अतः यह समय केवल आंकड़ों की तालिका सजाने का नहीं, उन आंकड़ों को जीने और बदलने का है। यह समय है कि हम लड़कियों की शिक्षा से आगे बढ़कर उन्हें नेतृत्व के मंच तक पहुँचाएं। क्योंकि जब महिलाएं आगे बढ़ती हैं, तो समाज भी आगे बढ़ता है।